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गैर-बराबरी, गरीबी से लोकतंत्र को खतरा | डीटन, नोबेल सम्‍मानित अर्थशास्‍त्री

मैं अल्फ्रेड नोबेल की स्मृति में दिए जाने वाले स्वेरिग्स रिक्सबैंक पुरस्कार, 2015 से पुरस्कृत किए जाने को ले‌कर रोमांचित हूं। मैं इसे लेकर ज्यादा रोमांचित हूं कि नोबेल समिति ने भारत पर किए गए मेरे और मेरे सहयोगियों के कार्य को रेखांकित किया है।
गैर-बराबरी, गरीबी से लोकतंत्र को खतरा | डीटन, नोबेल सम्‍मानित अर्थशास्‍त्री

मेरा कार्य यह दर्शाता है कि स्वतंत्र शोधकर्ताओं की पहुंच आंकड़ों तक होना कितना महत्वपूर्ण है ताकि सरकारी सांख्यिकी की जांच की जा सके और भारत के अंदर लोकतांत्रिक बहस को इस बारे में विभिन्न विद्वानों की अलग-अलग व्याख्याओं की जानकारी मिल सके। लोकतंत्र की सहायता करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले खुले, पारदर्शी और बिना सेंसर किए आंकड़ों का होना जरूरी होता है।

मैंने गरीबी को मापने के लिए भारत के प्रसिद्ध नेशनल सैंपल सर्वे के डाटा का इस्तेमाल किया। इस प्रकार की माप के साथ संभवतः सबसे बड़ा खतरा यह होता है कि राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी और सर्वे के आंकड़ों में बहुत अधिक विसंगति होती है। सर्वे, राष्ट्रीय लेखा के मुकाबले कम खपत की जानकारी देता है और राष्ट्रीय लेखा का मापन तीव्र गति से बढ़ता है। मैं जहां इस बात को लेकर निश्चित हूं कि समस्या का कुछ हिस्सा सर्वे से जुड़ा है, क्योंकि ज्यादा लोग विविध प्रकार की चीजों पर ज्यादा खर्च करते हैं इसलिए सबको समेटना मुश्किल है, वहीं राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों में भी कमियां हैं और मैं इस बात को लेकर वर्षों तक परेशान रहा कि सर्वे के आलोचकों को विकास के कारकों के आलोचकों की तुलना में हमेशा ज्यादा तवज्जो मिलती रही। शायद कोई भी भारत के असाधारण (कम से कम जैसा मापा गया) विकास दर को नीचा दिखाने वाले किसी बदलाव का जोखिम नहीं उठाना चाहता।

हमें इस मुद्दे के इर्द-गिर्द और बेहतर कार्य की जरूरत है। इसके बिना हम इसे लेकर आश्वस्त नहीं हो सकते कि भारत में आज के समय में गरीबी या गैर बराबरी को लेकर क्या हो रहा है। कटुतापूर्ण पक्षपाती बहस की जगह पर ज्ञात और गैरविवादित उपायों पर जोर होना चाहिए।

गरीबी पैसे की कमी से कहीं आगे की चीज है और ज्यां द्रेज के साथ मेरा कार्य भारत में पोषण के सुधरते मगर आज भी डरावने हालात को बयां करता है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन ‌सिंह ने भारतीय बच्चों में विकास के रुकने को राष्ट्रीय शर्म करार दिया था और ऐसा ही है। हमारे कार्य ने रेखांकित किया कि कुपोषण सिर्फ कैलोरीज की कमी का मामला नहीं है और निश्चित रूप से यह अनाज संबंधित कैलोरीज की कमी का तो नहीं ही है बल्कि यह भोजन में विवि‌धता की कमी का मसला ज्यादा है जैसे कि खाने में पत्तेदार सब्जियां, अंडे और फलों की कमी होना। साथ ही यह महत्वपूर्ण रूप से अपर्याप्त स्वच्छता, गर्भावस्‍था में महिलाओं को पर्याप्त भोजन न मिलने और कई इलाकों में खराब मातृ-शिशु स्वास्‍थ्य सेवाओं से जुड़ा मसला भी है।

मेरे कार्य का एक अन्य पहलू रैंडमाइज्ड नियंत्रित परीक्षण और उसके आधार पर नीति निर्माण की कमियों और खूबियों के बारे में है। यहां मेरा मुख्य संदेश यह है कि ज्यादा दावे न करें। ये कोई जादुई औजार नहीं हैं। उदाहरण के लिए यदि हम जन वितरण प्रणाली के बदले नकदी हस्तांतरण के बारे में सोचें तो हमें सभी आगामी बदलावों पर विचार करना होगा कि इसके बाद खरीद और भंडारण का क्या होगा और अनाज के मुक्त बाजार कीमत पर क्या असर होगा। इस बारे में कोई भी प्रयोग पूरे मसले के सिर्फ एक हिस्से के लिए उपयोगी हो सकता है मगर सिर्फ एक हिस्से के लिए, और सभी हिस्सों के बिना हम नहीं आंक सकते कि क्या करना चाहिए। मैं चिंतित भी हूं कि प्रयोग, राजनीतिक समस्याओं का तकनीकी समाधान होते हैं, कि ये वस्तुतः लोकतांत्रिक विमर्श के जरिये किंचित भी तय होते हैं, कि प्रयोग, अक्सर गरीबों पर किए जाते हैं न कि गरीबों द्वारा किए जाते हैं और ऐसे में यह मुश्किल से कोई उत्साहवर्धक संकेत है।

 अंत में, मैंने गैर बराबरी के बारे में लिखा है और उस खतरे के बारे में जो अत्यधिक गैर बराबरी के कारण लोकतंत्र को पहुंच सकता है। भारत कई लोगों के लिए बेहतर जीवन का निर्माण करने में बहुत अधिक सफल रहा है। इनमें से कुछ लोगों के उपभोग का पैटर्न अमेरिकियों और पश्चिमी यूरोपीय लोगों से मेल खाता है और बहुत अधिक धनवान लोगों की संख्या कम नहीं है। एक आदर्श दुनिया में ऐसे लोगों तथा जो लोग पीछे छूट गए हैं उन्हें ऊपर खींचकर लाने से दोनों के बीच की खाई भरती है। गरीब लोग शिक्षा और भाग्य के जरिये नए अवसरों को देख और समझ सकते हैं, उनके बच्चे भी समृद्ध हो सकते हैं। मगर गैरबराबरी के डरावने खतरे भी हैं, यदि वे लोग जो अभाव से बच निकले हैं, अपनी संपत्ति का इस्तेमाल अभाव से घिरे लोगों को उसी स्थिति में बनाए रखने में करते हैं। उचित शिक्षा, उपलब्‍ध एवं प्रभावी स्वास्‍थ्य सेवा एवं कार्यरत सफाई व्यवस्‍था ऐसी चीजें हैं जिनसे सभी को लाभ होता है और नए मध्य वर्ग को खुशी-खुशी कर चुकाना चाहिए ताकि दूसरे लोग भी अपने बेहतर भविष्य को हासिल कर सकें। एडम स्मिथ का कहना है, ‘कर चुकाने वाले हर व्यक्ति के लिए चुकाया गया कर दासता नहीं बल्कि आजादी का प्रतीक है।’ और यदि करों को बुद्धिमानी से खर्च किया जाए तो आजादी की सहभागिता तेजी से बढ़गी। 

(एंगस स्टीवर्ट डीटन को इस साल अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यह लेख भारतीय प्रेस को भेजे गए उनके प्रेस नोट का हिंदी अनुवाद है।)

 

 

 

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