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'सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला'

कई बार निदा को अपने रेडियो स्‍टेशन के स्‍टूडियो में इंटरव्‍यू देते हुए सुनने का मौका मिला था और हर बार यही लगता था कि अपनी जड़ों से और अपने परिवार से कटने की कितनी तड़प निदा में थी। शायद इसी तड़प ने उनसे लिखवाया था, तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्‍यार ना हो/ जहां उम्‍मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता/ कभी किसी को मुकम्‍मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’।
'सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला'

मुझे याद है बहुत बरस पहले मध्‍यप्रदेश के शहर जबलपुर में था, ये वो दिन थे जब हम दो भाई अपने जेबखर्च को जोड़कर कुछ नायाब कैसेट खरीदा करते थे। जगजीत-लता का अलबम सज्‍दा उन्‍हीं दिनों की हमारी पूंजी थी और उसमें भी निदा फाजली की लिखी गजलें हमारी जबां पर चढ़ी रहतीं और दिल पर छाई रहतीं। हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी /फिर भी तन्‍हाईयों का शिकार आदमी और धूप में निकलो घटाओं में नहाकर देखो/ जिंदगी क्‍या है किताबें हटाकर देखो’। तब पता नहीं था कि जिस शायर को दूरदर्शन पर मुशायरों में पढ़ते हम अपनी डायरी में उतार लेते हैं, समंदर वाले इस शहर मुंबई में उस शायर तक पहुंच इतनी आसान हो जाएगी। हम उसे देख, सुन पाएंगे और फिर विविध भारती के स्‍टूडियो में एक ऐसा आयोजन भी होगा जब संचालन की जिम्‍मेदारी छोटे शहर के उस बच्‍चे को ही दिया जाएगा, जो निदा का मुरीद है।

यकीन मानिए उस रात नींद नहीं आई थी, क्‍योंकि अगले दिन सिर्फ निदा नहीं बल्कि राहत इंदौरी, कुंवर बेचैन, बालकवि बैरागी और दीप्‍ती मिश्रा के लिए संचालन मुझे करना था। इससे पहले कुछ बार निदा को अपने रेडियो स्‍टेशन स्‍टूडियो में इंटरव्‍यू देते हुए सुनने का मौका मिला था और हर बार यही लगता था कि अपनी जड़ों से और अपने परिवार से कटने की कितनी तड़प निदा में थी। शायद इसी तड़प ने उनसे लिखवाया था—तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्‍यार ना हो/ जहां उम्‍मीद हो उसकी वहां नहीं मिलता/ कभी किसी को मुकम्‍मल जहां नहीं मिलता/ कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’। या ‘बेनाम सा ये दर्द ठहर क्‍यों नहीं जाता/ जो बीत गया है वो गुजर क्‍यों नहीं जाता’।

निदा हमेशा कहते थे कि जिंदगी में उन्‍हें जो कुछ मिला बहुत देर से मिला, सोलह बरस की पत्रकारिता की जद्दोजेहद के बाद मुंबई में फिल्‍मी गीतकारी ने पैर जमवाए। वो भी कब्‍बन मिर्जा के गाए गाने के जरिये तेरा हिज्र मेरा नसीब है / तेरा गम ही मेरी हयात है’। फिर उन्‍होंने तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है, अजनबी कौन हो तुम, तेरे लिए पलकों की झालर बुनूं जैसे गाने रचे। जब हमारा बेटा आने वाला था तो निदा का लिखा ये गीत अकसर जेहन में गूंजता तुम्‍हारी पलकों की चिलमनों में ये क्‍या छिपा है शरारे जैसा

निदा कबीर की परंपरा को उूर्द शायरी में लाए। उन्‍होंने उर्दू में दोहे लिखे। जगजीत की सालगिरह के दिन फानी दुनिया को अलविदा कहने वाले निदा ने ही लिखा है तेरे होते कोई किसी की जान का दुश्मन क्यों हो/ जीनेवालों को मरने की आसानी दे मौला। जब वो मुशायरों में अपने अशआर बेचैनी से दोहरा-दोहरा कर कुछ यूं पढ़ते थे— चाहे गीता बांचिये, गीता बांचिये या पढिये कुरआन/ तेरा मेरा प्‍यार ही हर पुस्‍तक का ज्ञान.. तो सुनने वाले ‘अश अश’ कर उठते थे। हम विविध भारती में निदा को जल्‍दी ही दावत देना चाहते थे। हम चाहते थे कि दिल में बेचैनी का समंदर लिए ये शायर हमारे स्‍टूडियो आता और अपने सब मशहूर अशआर हमें सुनाता.. पर वक्‍त ने हमें मौका ही नहीं दिया। आज ‘नीम का पेड़’ का शीर्षक गीत खूब याद आ रहा है—मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन/ आवाजों के बाजारों में खामोशी पहचाने कौन

मैं आज तक अपने मोबाइल फोन से जगजीत सिंह का नंबर डिलीट नहीं कर सका। निदा साहब आपका नंबर हमारी फोनबुक में हमेशा रहेगा। अफसोस उस तरफ से आपकी आवाज नहीं आएगी।

 

(लेखक विविध भारती मुंबई में उद्घोषक हैं) 

 

 

 

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