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बड़े बदलाव की मुकम्मल आहट

क्या ये चुनाव बाजारवाद और निजीकरण से वापसी का संदेश लेकर आएंगे, क्या कल्याणकारी राज्य की ओर वापसी के संकेत दिखने लगे?
कल्याणकारी मुद्दों की वापसी

इन्हीं दिनों पांच साल पहले की याद कीजिए। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी एक ही मंत्र ‘विकास, विकास, विकास’ की रट लगा रहे थे। उनका अगला मंत्र था ‘गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस टु बिजनेस।' इन सबका युग्म ‘गुजरात मॉडल’ नई लहर पैदा कर रहा था। कहा जा रहा था कि देश में एक आकांक्षी युवा वर्ग तैयार है जो हर कीमत पर विकास और विकसित देशों जैसे उद्योगों और इन्फ्रास्ट्रक्चर को हासिल करने को लालायित है। अब वर्तमान में आइए। आज आम चुनाव में न विकास, न गुजरात मॉडल और न ही वह आकांक्षी युवा कहीं खोजे मिल रहा है। उसकी जगह बेरोजगार युवा, किसान, गरीब, छोटे कारोबारियों की पुकार राजनैतिक पार्टियों के घोष-वाक्य बनकर उभर रही है। यही नहीं, ‘गवर्नमेंट हैज नो बिजनेस’ के बदले ‘गवर्नमेंट हैज इवरी बिजनेस’ की जोरदार धमक सुनाई दे रही है।

जरा गौर कीजिए, इन चुनावों से क्या गायब है। विकास, गुजरात मॉडल के साथ आर्थिक सुधार, श्रम सुधार, निजी निवेश, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) की चर्चाएं खो गई हैं। यही नहीं, सड़क, बिजली पानी की भी चर्चाएं कुछ हल्के स्वरों में उठ रही हैं। सबसे मुखर स्वर किसान और रोजगार के मुद्दे हो गए हैं। किसान कर्जमाफी को कभी अर्थव्यवस्‍था की बरबादी बताने वाले, गरीबों के मद में सब्सिडी को सबसे ज्यादा त्याज्य मानने वाले नेताओं और पार्टियों के ही नहीं, बाजारवाद और निजीकरण के बड़े पैरोकार अर्थशास्त्रियों की आवाज भी हकलाने लगी है। नब्बे के दशक में जोरशोर से आर्थिक सुधारों और उदारीकरण की नींव रखने वाली कांग्रेस के मौजूदा अध्यक्ष राहुल गांधी कहते हैं, “मोदी जी अगर अपने 15-17 अमीर दोस्तों को 3.5 लाख करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर सकते हैं तो हम देश के सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोगों को 72,000 रुपये सालाना दे सकते हैं।”

गरीबों के हक में यह आक्रामक पैरोकारी भाजपा समेत बाकी दलों के भी एजेंडों में इस तरह दिखने लगी है, मानो उन्होंने कभी बाजारवाद, औद्योगीकरण, निजीकरण की नीतियों को विकल्पहीन माना ही नहीं था। याद कीजिए, 2014 तक हर पार्टी इसी विकास का राग अलाप रही थी और अपने शासित राज्यों में 'इन्वेस्टर समिट' कर रही थी। भाजपा नीत नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने छठे अंतरिम बजट में दो हेक्टेयर तक जोत रखने वाले किसानों को हर साल 6,000 रुपये देने का ऐलान किया तो उसके बौद्धिक पैरोकार वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अमेरिका से ब्लॉग लिखा कि यह कोई खैरात नहीं, बल्कि किसानों के प्रति देश का दायित्व है। जबकि ये पैरोकार ही कुछ समय पहले तक हर सब्सिडी को खैरात कहकर मखौल उड़ाया करते थे। भाजपा ने अपने 2019 के संकल्प पत्र में हर किसान को उतनी रकम सालाना मुहैया कराने का वादा किया है, बल्कि हर बुजुर्ग को पेंशन और मजदूरों को मान धनराशि देने का वादा किया है।

कांग्रेस का मौजूदा घोषणा-पत्र तो मानो नेहरू और इंदिरा गांधी के जमाने की मिश्रित अर्थव्यवस्‍था से भी आगे जाकर सरकारी खर्च और सार्वजनिक उपक्रमों पर अधिक जोर देता है। उसमें साठोत्तरी दशक के 'जय जवान जय किसान' दौर के बाद शायद पहली दफा खेती-किसानी पर ऐसा फोकस है कि अलग से किसान बजट पेश करने का वादा है। देश के 20 फीसदी सबसे गरीब परिवारों को सालाना 72,000 रुपये देने का वादा तो है ही, 12वीं तक सभी को मुफ्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, सबको मुफ्त सरकारी स्वास्‍थ्य सेवा मुहैया कराने का वादा भी है। यह भी कि शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत और स्वास्‍थ्य पर जीडीपी का तीन प्रतिशत खर्च की बात भी है। यही नहीं, यह घोषणा-पत्र दशकों से लंबित केंद्र में करीब चार लाख खाली सरकारी पदों और राज्यों में करीब 20 लाख खाली पदों को भरने की बात करता है। इसमें अब निजी क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करवाने की भी बात है।

तथाकथित क्षेत्रीय दलों समाजवादी पार्टी, तेलुगु देशम, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसों का घोषणा-पत्र भी लगभग ऐसे ही मुद्दों पर केंद्रित है, जिन्हें कभी लोकलुभावन मुद्दे कहकर खारिज किया जाता रहा है। समाजवादी पार्टी तो जितनी आबादी, उतना आरक्षण की बात करती है। यानी हर पार्टी अब उस ओर मुड़ रही है, जिस पर फोकस नब्बे के दशक के पहले हुआ करता था। तो, क्या यह कल्याणकारी राज्य की ओर वापसी का कदम है? इस सवाल का जवाब हां में देना तो अभी जल्दबाजी कहलाएगी। वजह यह कि ऐसे वादे करके भी पार्टियां अंततः सरकार में आने के बाद बदलती रही हैं। इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो मोदी सरकार की नीतियां ही हैं।

पिछले चुनावों में विशाल बहुमत से जीत के बाद संसद भवन में भाजपा संसदीय दल की बैठक में नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया, “यह सरकार गरीबों, किसानों की ही होगी। हम हर तरह से किसानों और गरीबों के हक में ही नीतियां बनाएंगे।” लेकिन सरकार बनी तो नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से दुनिया भर के उद्योगों को बुलावा भेजा, “कम, मेक इन इंडिया।” फिर, उद्योगों के लिए जमीन अधिग्रहण आसान करने के लिए लगातार चार बार अध्यादेश जारी किया। आखिर 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों में आसन्न हार देखकर उन्हें वह जिद छोड़नी पड़ी। उसके बाद उनकी सरकार के नोटबंदी और हड़बड़ी में जीएसटी लागू करने के फैसलों ने असंगठित क्षेत्र, ग्रामीण अर्थव्यवस्‍था, छोटे उद्योग-धंधों को चौपट कर दिया। इसकी वजह से कृषि संकट बेपनाह हो गया। बेरोजगारी की दर 45 साल में सबसे अधिक हो गई। हालात ऐसे हो गए कि सरकार को एनएसएसओ के बेरोजगारी दर के आंकड़ों को जारी होने से रोकना पड़ा। जीडीपी में गिरावट को छुपाने के लिए पैमाने बदलने पड़े। अभी सरकार जीडीपी की वृद्धि दर को सात फीसदी बता रही है मगर कई अर्थशा‌िस्‍त्रयों का अनुमान है कि यह दर पांच फीसदी से भी नीचे है। यही नहीं, मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में लगातार गिरावट दर्ज की जाती रही है। निवेश तो सर्वाधिक निचले स्तर पर पहुंच गया।

इन सबके बीच बैंकों के डूबत कर्जों या एनपीए की हिस्सेदारी 2014 के सवा दो लाख करोड़ रुपये से बढ़कर मोटे अनुमान से तेरह लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई। हाल में एक अखबार ने सूचना के अधिकार के तहत भारतीय रिजर्व बैंक से यह जानकारी हासिल की कि 2014 से अब 2018 तक करीब 5,55,000 करोड़ रुपये के सरकारी बैंकों के कर्ज डूबत खाते में डाल दिए गए हैं। सरकार ने यह नहीं जाहिर किया कि ये किन लोगों के हैं।

दरअसल, यह सभी उन नीतियों की ही बुलंदी थी कि जो उदारीकरण और निजीकरण के साथ शुरू हुई थीं और जिसे एक मायने में 'गुजरात मॉडल' और निर्णायक नेतृत्व के नाम पर आगे बढ़ाया गया। इसका एक परिणाम यह भी देखने को मिला कि केंद्रीकरण भी इसी दौर में बुलंदी पर पहुंच गया।

यह भी गौरतलब है कि इन बाजारवादी नव-उपनिवेशवादी नीतियों के फलस्वरूप फैली गैर-बराबरी पर दुनिया भर के कई अर्थशास्त्रियों ने सवाल उठाना शुरू किए। फ्रांस के अर्थशास्‍त्री थॉमस पिकेटी ने 2013 में अपनी किताब 'कैपिटल इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' में बताया कि भूमंडलीकरण के दौर में दुनिया के अधिकतर संसाधन एक फीसदी के हाथ में है। इससे दुनिया भर में बहस छिड़ी कि संसाधनों का बंटवारा वंचितों में होना चाहिए। इससे विकेंद्रीकरण की ओर भी बहस मुड़ी। उसके बाद ब्रिटिश अर्थशास्‍त्री गॉय स्टैंडिंग का सिद्धांत आया कि गरीबों को संसाधनों में हिस्सेदारी मिलनी चाहिए और राज्य की जिम्मेदारी बनती है कि वह गरीबों को एक निश्चित आय मुहैया कराए।

हमारे अपने देश के अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज भी सरकारी क्षेत्र की सिकुड़ती भूमिका को ही वर्तमान संकट का मूल मानते हैं। यूपीए सरकार के दौरान मनरेगा और खाद्य सुरक्षा कानूनों के मजमून तैयार करने में भूमिका निभा चुके ज्यां द्रेज संसाधनों के बंटवारे और न्यूनतम आय गारंटी के बड़े पैरोकार हैं। रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन अपनी ताजा किताब 'द थर्ड पिलर' में कहते हैं कि राज्य और बाजार के साथ तीसरा स्तंभ समाज है जिसकी अनदेखी ने लोगों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया, जो घातक साबित हुआ।

रघुराम राजन यह भी पेशकश करते हैं कि सामाजिक सुरक्षा की नीतियों पर ही फोकस से न सिर्फ अर्थव्यवस्‍था में तेजी आएगी, बल्कि समाज में अशांति की स्थितियां भी घटेंगी। इसी तरह गॉय स्टैंडिंग पूरी उथल-पुथल के इस दौर में पैदा हुए उस प्रीकारिएट या बेठिकाना लोगों के नए तबके की बड़ी भूमिका मानते हैं, जो लगातार अस्थिरता की स्थितियों में जीवन-यापन करने को मजबूर हैं। मतलब यह कि भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में यह ऐसा तबका बन आया है कि जिसे निरंतर रोजगार के लिए डर सताता रहता है। ये बेठिकाना लोग वे हैं जिन्हें जमीन जैसी स्‍थायी संपत्ति से महरूम कर दिया गया है।

जाहिर है, उदारीकरण और आर्थिक सुधारों के दौर में तमाम श्रमिक कानून भी ऐसे ढीले कर दिए गए हैं, जिससे कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए हायर और फायर आसान हो गया है यानी काम पर रखो और अपनी सुविधा से उसे चलता कर दो, की इस नीति से कॉरपोरेट को सहूलियत तो मिली लेकिन समाज का एक बड़ा तबका बेठिकाना बनता गया। अभी हाल तक भी कृषि क्षेत्र में ऐसी ही कंपनियों की ठेकेदारी की सिफारिशें की जाती रही हैं।

तो, क्या माना जाए कि समाज के बेठिकाना और वंचित लोगों और इन अर्थशा‌िस्‍त्रयों की बात अंततः 2019 के आम चुनावों ने राजनैतिक बिरादरी को मानने पर मजबूर कर दिया? क्या हम फिर कल्याणकारी राज्य की ओर लौट रहे हैं, जो लोगों की बुनियादी जरूरतों की गारंटी देने पर राज्य को बाध्य करेगा? क्या आर्थिक गैर-बराबरी और अमीरों पर अधिक टैक्स लगाने के लिए नई पेशकश की शुरुआत होगी, जैसी कि कुछ हलकों में मांग उठ रही है? जाहिर है, ये सवाल आम चुनावों के नतीजों से ही तय होंगे लेकिन इसके संकेत बदस्तूर मिलने लगे हैं। इतना तो तय लगता है कि उदारीकरण की आक्रामक धारा का रुख मुड़ रहा है। 

 

नीतियों का नया फलसफा !

किसान

भाजपाः सभी किसानों को सम्मान निधि योजना के तहत हर साल 6,000 रुपये, एक लाख रुपये तक के कृषि कर्ज पर ब्याज मुक्त, 60 साल से अधिक उम्र के किसानों को पेंशन, 2022 तक आमदनी दोगुनी

कांग्रेसः अलग से किसान बजट, कर्ज न चुका पाने पर आपराधिक की जगह सिविल मामला, कर्जमाफी से कर्जमुक्ति, कम इनपुट लागत, नेशनल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर डेवलपमेंट प्लानिंग का गठन 

सपाः किसान कोष से किसानों की कई समस्‍याओं का समाधान किया जाएगा, किसानों को 100 फीसदी कर्जमाफी

टीडीपीः दो लाख से ऊपर लोन पर ब्याज नहीं, केंद्र की किसान सम्मान योजना को राज्य के मेल खाते अनुदान के साथ जारी रखने का वादा, इससे हर किसान को सालाना 15,000 रुपये का फायदा

गरीबी

भाजपाः सभी गरीब परिवारों को एलपीजी गैस सिलिंडर, हर परिवार के लिए पक्का मकान, सभी घरों में बिजली-पानी और शौचालय

कांग्रेसः न्याय (न्यूनतम आय योजना) के जरिए 72 हजार रुपये सालाना का वादा, देश के 20 फीसदी सबसे गरीब परिवार होंगे लाभान्वित

राजदः दलितों को आबादी के हिसाब से आरक्षण देने का वादा

सपाः गरीबों के लिए समाजवादी निधि, निशुल्‍क गेहूं, किसान के बीमार जानवरों के लिए भी एंबुलेंस की व्‍यवस्‍था

टीडीपीः हर साल प्रत्येक परिवार को दो लाख रुपये, महिला पेंशनभोगियों की उम्र 65 साल से घटाकर 55 साल करने का वादा

शिक्षा

भाजपाः मैनेजमेंट, साइंस, लॉ कॉलेजों और इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट में भी सीटों की संख्या बढ़ाई जाएगी, 2024 तक 200 नए केंद्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय खोले जाएंगे, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टीचर्स ट्रेनिंग खोलने का वादा

कांग्रेसः जीडीपी का छह प्रतिशत देश की शिक्षा व्यवस्था पर खर्च, पहली से 12वीं तक सरकारी स्कूलों में शिक्षा जरूरी और मुफ्त

राजदः शिक्षा में जीडीपी का छह फीसदी लगाएंगे, 200 पॉइंट रोस्टर को संवैधानिक दर्जा देने का वादा

सपाः लैपटॉप के साथ ही पढ़ाई में तेज छात्रों को स्मार्ट फोन भी देंगे, सरकारी स्‍कूलों में शिक्षा का स्‍तर सुधारने की कवायदा

टीडीपीः कम्मा, रेड्डी और अन्य उच्च वर्ग के छात्रों को फंडिंग

स्वास्थ्य

भाजपाः 75 नए मेडिकल कॉलेज और पोस्ट ग्रेजुएट मेडिकल कॉलेज खोले जाएंगे, आयुष्मान भारत योजना के तहत 2022 तक डेढ़ लाख हेल्थ ऐंड वेलनेस सेंटर (एचडब्ल्यूसी) खोलने का वादा

कांग्रेसः सभी को स्वास्थ्य का अधिकार, 2023-24 तक स्वास्थ्य पर जीडीपी का तीन फीसदी खर्च करने का लक्ष्य, सरकारी अस्पतालों को मजबूत करने पर जोर

राजदः स्वास्थ्य में जीडीपी का चार फीसदी लगाएंगे

सपाः कुपोषित बच्चों को एक किलोग्राम घी और एक डिब्बा दूध पाउडर हर महीने दिया जाएगा

रोजगार

भाजपाः 22 बड़े सेक्टरों में रोजगार के नए अवसर पैदा करने में मदद, पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए नई स्कीम

कांग्रेसः सार्वजनिक क्षेत्र में 34 लाख नौकरियों का वादा, मार्च 2020 से पहले चार लाख भर्तियां केंद्रीय सरकार में, 10 लाख युवाओं को ग्राम पंचायत में रोजगार

राजदः खाली पड़े सरकारी पदों को भरा जाएगा, निजी क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण का भी वादा, प्रमोशन में आरक्षण के लिए कदम उठाए जाएंगे

सपाः स्टार्टअप योजना लागू करेगी, चौकीदारों और पीआरडी जवानों का मानदेय बढ़ेगा

टीडीपीः युवाओं के लिए 15 लाख नौकरियों का सृजन

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