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चुनाव की बेला में युद्ध और राष्ट्रवाद का हल्ला क्यों

इस चुनाव के समय देश में ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि संशय होता है कि यह जन-प्रतिनिधि नहीं, योद्धा की तलाश का अभियान है, दरअसल जनता के सवालों से बचने का बहाना है युद्धोन्मादी-राष्ट्रवाद
इस चुनाव के समय देश में ऐसा वातावरण बना दिया गया है, मानो हम चुनाव के मुहाने पर नहीं बल्कि युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं

हमारे अपने देश के अच्छे समय में किसी दूसरे देश के बुरे समय के बारे में पढ़ी हुई किताब अन्ततः अपने देश के बुरे समय में ही समझ आती है। ऐसे समय में किसी दूसरे देश के लोगों का भोगा हुआ यथार्थ हमारा अपना यथार्थ बन जाता है। किसी अन्य की पीड़ा हमारी अपनी पीड़ा में रूपांतरित हो जाती है। ऐसे समय में किसी दूसरे देश की पृष्ठभूमि हमारी ही मातृभूमि बनकर खड़ी हो जाती है। प्रेमचंद के उपन्यास गोदान का किसान सारी दुनिया का किसान और गोर्की की मां सारी दुनिया के लोगों की मां बन जाती है।

लेव तोलस्तोय का युद्ध और शांति चार खंडों तथा लगभग डेढ़ हजार पृष्ठों में फैला उपन्यास है। इस उपन्यास के सृजन में उन्हें छह से अधिक वर्ष लगे। लेव तोलस्तोय ने यह स्पष्ट किया है कि युद्ध का सारे समाज, जीवन के सभी पक्षों, सभी वर्गों और श्रेणियों के लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है। इस महान उपन्यास के हिंदी अनुवादक डॉ. मदनलाल ‘मधु’ के अनुसार, इसमें जहां वीरता, आत्मरक्षा, देश रक्षा के लिए न्योछावर किए जाने वाले वीरों का गान है, वहीं युद्ध के भयानक परिणामों, व्यक्तियों और पूरे समाज के जीवन की नींव हिला देने वाले टकरावों के विरुद्ध शांति का प्रबल आह्‍वान भी है।

महात्मा गांधी की जीवनी लिखने वाले फ्रांस के लेखक रोमां रोलां कहते हैं, “इस उपन्यास का जीवन की भांति न तो आरंभ है और न अंत। यह तो शाश्वत गतिशीलता में स्वयं जीवन है।” उपन्यास की यही गतिशीलता अठारहवीं शताब्दी से बहती हुई, हमारी इक्कीसवीं शताब्दी में हमें भी युद्धों के विरुद्ध जागरूक और सजग कर रही है। लेव तोलस्तोय की 1960 में पचासवीं पुण्यतिथि पर जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि जीवन का सुख इसी में है कि लेव तोलस्तोय की भांति पृथ्वी पर लोगों की स्वतंत्रत्ता और सौभाग्य के लिए संघर्ष किया जाए। हमारे देश में लोगों की स्वतंत्रता और सौभाग्य के लिए संघर्ष करने का समय आ गया है। इस समय कुछ नेता युद्ध संबंधी गतिविधियों को अपनी सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि बता रहे हैं। देश में होने वाले संसदीय चुनावों की बेला में एक युद्धाकांक्षी राष्ट्रवाद का उन्माद फैलाया जा रहा है।

इस चुनाव के समय देश में ऐसा वातावरण बना दिया गया है कि संशय होता है कि हम चुनाव के मुहाने पर नहीं बल्कि युद्ध के मुहाने पर खड़े देश हैं। इस तरह युद्धोन्मादी राष्ट्रवाद के समय में यह संशय भी हो रहा है कि हम अपने जनप्रतिनि‌धि चुनने जा रहे हैं या अपने योद्धा। यह स्पष्ट है कि युद्धोन्मादी-राष्ट्रवाद का अर्थ नेताओं द्वारा अपनी जनता के प्रतिबद्धता के सवालों से बचना है।

ऐसे समय में लेव तोलस्तोय का उपन्यास युद्ध और शांति हमें एक प्रकाशस्तंभ के रूप में खड़ा नजर आता है। विश्व के कुछ अध्येताओं का मत है कि शांति के पर्यायवाची रूसी शब्द ‘मीर’ से तोलस्तोय का अभिप्राय शांति नहीं बल्कि लोग, जनता या पूरा समाज है। इस महान उपन्यास के विचारों की समकालीनता हमारे लिए बढ़ती ही जा रही है। इसलिए एक भारतीय की दृष्टि से युद्ध और शांति का भारतीय संदर्भों और परिवेश में पाठ जरूरी हो जाता है।

तोलस्तोय के अनुसार, राष्ट्र प्रमुखों के ऐतिहासिक तर्क-वितर्क के इतने लचीले धागे को जब और अधिक खींचना संभव नहीं रहता तो इतिहासकार अपने बचाव की ‘महानता’ संबंधी धारणा को आगे बढ़ा देते हैं। महानता तो मानो भले और बुरे को परखने की कसौटी ही समाप्त कर देती है। महान व्यक्ति तो कोई बुराई कर ही नहीं सकता। कोई भी अपराध ऐसा नहीं है जिसके लिए महान व्यक्ति को दोषी ठहराया जा सके। वे आगे लिखते हैं कि महानता और हास्यास्पदता में केवल एक ही कदम का फासला है। किसी के मन में यह विचार तक नहीं आया कि भलाई और बुराई की कसौटी पर खरी न उतरने वाली महानता को मान्यता देना अपनी तुच्छता और असीम छोटेपन को स्वीकार करना ही है। जहां सरलता, भलाई और सच्चाई नहीं है, वहां महानता नहीं हो सकती है।

हम अपने देश के कुछ नेताओं में प्रिंस वसीली की चारित्रिक विशेषताएं देख सकते हैं, क्योंकि वह बहुत सोच-समझकर अपनी भावी योजनाएं नहीं बनाता था। अपने फायदे के लिए दूसरों का बुरा करने की तो वह और भी कम सोचता था। वह तो सिर्फ ऊंची सोसायटी का आदमी था, जिसमें उसे कामयाबी हासिल हुई थी।

परिस्थितियों और लोगों की निकटता के अनुसार निरंतर उसकी योजनाएं और मंसूबे बनते रहते थे, जिनके संबंध में वह खुद भी अच्छी तरह से सोच-विचार नहीं करता था लेकिन वही उसके जीवन के दिलचस्प मौके होते थे। एक वक्त में उसकी एक ही योजना या मंसूबा नहीं, बल्कि दसियों योजनाएं और मंसूबे होते थे, जिनमें से कुछ सिरे चढ़ने और कुछ नष्ट किए जाने वाले होते थे।

हम सत्ता की बात बहुत अधिक करते हैं पर सत्ता क्या है? इसका उत्तर हमारे पास नहीं है। तोलस्तोय सत्ता की विस्तृत चर्चा करते हुए कहते हैं कि सत्ता जनसाधारण की प्रकट या मौन सहमति से उनके द्वारा चुने गए शासकों को सौंपी जाती है। वे आगे कहते हैं कि शासकों को किन्हीं स्पष्ट और निश्चित शर्तों पर जनसाधारण की इच्छा सौंपी जाती है और यह दर्शाकर कि सत्ता के सभी संकटों, टकरावों और उसके विनाश तक का कारण यह होता है कि शासक उन शर्तों का, जिन पर उन्हें सत्ता सौंपी गई थी, पालन नहीं करते। हम सत्ता के आदेशों की बात तो करते हैं पर अनुभव हमें दर्शाता है कि चाहे कोई भी घटना क्यों न घटी हो, वह सदा एक या कुछ लोगों की इच्छा के साथ जुड़ी रहती है जो यह आदेश देते हैं कि ऐसा किया जाए।

हमारे ‌जमाने में भावना रखने वाला कोई आदमी शांत कैसे रह सकता है? युद्ध का सबसे अधिक प्रभाव घर की महिलाओं के जीवन पर पड़ता है। पर, समझ में नहीं आता, बिलकुल समझ नहीं आता कि पुरुष जंग के बिना रह ही क्यों नहीं सकते? नारियां ऐसा कुछ नहीं चाहतीं, ऐसा कुछ चाहिए भी नहीं। ऐसा लगता है मानव जाति दिव्य उद्धारक के प्यार और दिल को लगने वाली ठेसों के लिए क्षमा के सिद्धांतों को भूल गई है और एक-दूसरे की हत्या की कला को ही अपना सबसे बड़ा गुण मानती है।

देश भर के गांव-गांव के युवा युद्ध के लिए जाते हैं। उन्हें विदा करते हुए उनके परिवार वालों का बुरा हाल रहता है। यहीं नहीं, जब राजकुमार अन्द्रेई भी युद्ध में शामिल होने जाते हैं तो राजकुमारी लीजा के चेहरे का रंग उड़ जाता है और वह बेहोश होकर गिर पड़ती है। ऐसे में सामान्यजनों के परिवारों की हालत कल्पना सहज ही की जा सकती है। आजकल नेता बात-बात पर किसी देश की सीमा रेखा को लांघने की बात करते हैं। उनके समर्थन में अपने घरों में सुरक्षित बैठे लोग भी नारे लगाते हैं। वे बार-बार उत्तेजना से भर, देशों की सेनाओं के मध्य स्थित सीमा रेखा को लांघने की बात करते हैं। वे ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि वे नहीं जानते कि इस रेखा के उस पार क्या है?

तोलस्तोय बताते हैं कि इस रेखा से, जीवितों को मृतकों से अलग करने वाली इस रेखा से एक कदम आगे बढ़ने पर अज्ञानता, पीड़ा और मृत्यु है। इस मैदान, इस पेड़ और धूप से चमचमाती छत के पीछे क्या है, कोई नहीं जानता और जानने की बड़ी इच्छा होती है। दो देशों के सैनिक आमने-सामने होते हैं। उनके बीच अस्पष्टता और भय की रेखा-मानो जीवितों को मृतकों से अलग करने वाली रेखा ही विद्यमान रहती है। सभी लोग इस रेखा को अनुभव करते रहे हैं और यह प्रश्न कि वे इस रेखा को लांघ सकेंगे या नहीं और कैसे लांघ पाएंगे, उन्हें विह्‍वल करता है।

इस सीमा रेखा को लांघने का अर्थ ही है मृत्यु से घिर जाना। युद्ध में जीत के बाद भी निरंतर आगे बढ़ने का मन होता है। ऐसे ही समय एक सैनिक चाहे वह कितना ही बड़ा अधिकारी हो, अपने अंतर्मन से बात करता है। उसका मन प्रश्न करता है, अगर ऐसा होने के पहले ही तुम दस बार घायल नहीं हो जाओगे, मारे नहीं जाओगे, या छले नहीं जाओगे तो उसके बाद क्या होगा?

इस प्रश्न के बाद वह अपने आप को जवाब देता है-मृत्यु, घाव, परिवार की क्षति मुझे किसी भी चीज का भय नहीं। अनेक व्यक्ति मुझे प्रिय हैं, अच्छे लगते हैं-पिता, बहन, पत्नी-ये मुझे सबसे अधिक प्यारे हैं-फिर भी यह इतना भयानक और अस्वाभाविक प्रतीत होने के बावजूद, मैं इन सभी को ख्याति के एक क्षण, लोगों के दिलों पर अपनी विजय, अपने प्रति लोगों के प्यार के लिए न्योछावर कर दूंगा, जिन्हें मैं जानता तक नहीं और जानूंगा भी नहीं, उन लोगों के प्यार के लिए।

किसी भी सैनिक को युद्ध के मैदान में प्रकृति के दृश्य भी भावुक बना देते हैं। आकाश में तैरते बादल सैनिकों के मन में युद्ध की व्यर्थता और शांति की महानता का बोध जगा देते हैं-कितने भिन्न ढंग से तैर रहे हैं इस ऊंचे और असीम आकाश में बादल। यह कैसे हुआ कि मैंने इस ऊंचे आकाश को पहले कभी नहीं देखा और कितना सौभाग्यशाली हूं मैं कि मैंने इसे देख लिया है। हां! इस ऊंचे आकाश के सिवा सब कुछ बेमानी है, सब धोखा है। इसके सिवा कुछ भी, कुछ भी तो नहीं। लेकिन वह भी नहीं, शांति और नीरवता के सिवा कुछ भी नहीं। शुक्र है भगवान का! युद्धरत सैनिकों को प्रकृति के दृश्यों को देखकर युद्ध बेमानी लगता है। ठीक इसी तरह हमारे समाज के वे लोग भी युद्धोन्मादी बन जाते हैं जिन्होंने कभी प्रकृति की लीला को नहीं देखा-समझा होता है। विश्व भर में एक-सी फैली प्रकृति के समान विश्व भर के लोगों के दुख-दर्द भी एक जैसे ही होते हैं। पूरे विश्व में युद्ध मानव के विवेक और मानवीय प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल घटना है।

तोलस्तोय के अनुसार, हर इनसान की जिंदगी के दो पहलू हैं-एक पहलू तो उसका व्यक्तिगत जीवन है जिसमें वह अपने रुचियों की अमूर्तता के अनुवाद में स्वतंत्र होता है। उसके जीवन का दूसरा पक्ष दलगत है जिसमें वह अनिवार्य रूप से उन नियमों का अनुकरण करता है जो उसके लिए पहले से निर्धारित कर दिए जाते हैं। इसी तरह हमारे देश में भी लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके व्यक्तिगत जीवन को कैसे दलगत जीवन में बदल दिया जा रहा है। चेतन रूप से मानव अपने लिए जीता है लेकिन अचेतन रूप से वह ऐतिहासिक यानी सामाजिक लक्ष्यों की प्राप्ति का साधन बनता है।

वर्तमान में हमारे देश का व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन और दलगत जीवन के इन अंतर्विरोधों का ही सामना कर रहा है। आम लोग अपने व्यक्तिगत जीवन को दलगत जीवन में ढाल लेते हैं। लोगों को आभास ही नहीं होता कि उनका व्यक्तिगत जीवन कब तिरोहित हो गया और वे कब ‌किसी दूसरे के द्वारा अपने हित में संचालित जीवन जीने लगे हैं। व्यक्तिगत जीवन के दलगत जीवन में बदल जाने से ही व्यक्ति भीड़ का हिस्सा बन जाता है। इसमें लोग एक-दूसरे के विरुद्ध अनगिनत अपराध करते हैं, क्योंकि वे दलगत जीवन जीने लगते हैं।

तोलस्तोय कहते हैं, ‘बादशाह’ गुलाम है इतिहास का। इतिहास-यानी मानव जाति का अचेतन, सार्विक, दलगत जीवन ‘बादशाह’ के जीवन के हर पल का अपने लक्ष्यों के साधन के रूप में उपयोग करता है। एक देश की सेना का दूसरे देश की सीमा में घुसना केवल इसलिए होता है कि बल के आधार पर शांति प्राप्त की जाए। प्रिंस अन्द्रेई युद्ध के मैदान में निरंतर युद्ध के औचित्य पर चिंतन करता है। युद्ध शिष्टता प्रदर्शन नहीं, बल्कि जीवन में सबसे घिनौनी चीज है, इसे समझना चाहिए और इसके साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। इस भयानक अनिवार्यता के प्रति कठोर और गंभीर रवैया अपनाना चाहिए। कुल मिलाकर यह कि हमें ढोंग को एक तरफ हटाकर युद्ध को युद्ध के रूप में स्वीकार करना चाहिए, खिलवाड़ के रूप में नहीं। अन्यथा युद्ध! -यह काहिल और चंचल प्रवृत्ति वाले लोगों का मनपसंद मनोरंजन बन जाता है। 

(लेखक सेवानिवृत्त प्रोफेसर और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)      

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