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इतिहास की प्रतिध्वनियां

चुनाव में युद्ध को लेकर हिटलर और मुसोलिनी के संवाद की प्रतिध्वनि हमारे देश में क्यों सुनाई दे रही हैं?
फासीवादी फलसफाः मुसोलिनी और हिटलर जैसी आवाजों का खतरा हमेशा बना रहा है

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शुरुआती अधिकारियों में से एक जॉर्ज लिंडसे जॉनस्टोन ने 1901 में ब्रिटिश संसद में एक सारगर्भित टिप्पणी में कहा था कि ब्रिटेन का भारतीय साम्राज्य ‘विचार का साम्राज्य’ है जिसकी नींव ‘अपनी ताकत को पहचानने में देसी लोगों की अनिच्छा’ पर पड़ी है।    

महात्मा गांधी को भुलाए रखना वास्तव में अपनी ताकत को भुलाए रखना है। नेल्सन मंडेला ने गांधी को ‘देसी बुद्धि, आत्मा और उद्योग के पुनर्जागरण का जनक’ कहा है। मंडेला सारी दुनिया के संदर्भ में कहते हैं, “जब औपनिवेशिक मनुष्य ने सोचना छोड़ दिया था और उसके समर्थ होने का एहसास लुप्त हो चुका था, गांधी ने उसे सोचना सिखाया और उसके सामर्थ्य के एहसास को पुनर्जीवित किया।”

आज हम अपने देश में मार्क्स के इन शब्दों को साक्षात होते देख रहे हैं कि “भौतिक उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग का नियंत्रण होता है, उसी समय उसका बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी अधिकार होता है।” विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2018 में केवल 121 भारतीयों के पास जितनी संपत्ति थी, वह हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 22 प्रतिशत के बराबर है। इसमें भी 4.2 करोड़ डॉलर की संपत्ति अर्थात इसका 10 प्रतिशत हिस्सा केवल मुकेश अंबानी के पास है।

हमारे देश के स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट दुनिया के प्रमुख देशों के बजट आंकड़ों से बहुत कम हैं। औद्योगिक और कृषि विकास दर अपने न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। विश्व बैंक के दक्षिण एशिया क्षेत्र के प्रमुख अर्थशास्‍त्री मार्टिन समा ने कहा है कि 2025 तक भारत में हर महीने 18 लाख युवा काम करने की उम्र में पहुंचेंगे। विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में हर महीने 13 लाख युवा कामकाज करने की उम्र मे प्रवेश करते हैं।

देश की वर्तमान स्थिति पर लार्ड कीन्ज की यह उक्ति बेहद सटीक हो गई है, “अभी आने वाले कम-से-कम सौ साल तक हमें अपने आपको और प्रत्येक को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है; क्योंकि जो गलत है वह उपयोगी है, जो उचित है, वह नहीं। अभी हमें कुछ अरसे तक लोभ, सूदखोरी और एहतियात की पूजा करनी होगी।”

आजकल हमारे देश में प्राचीन सभ्यता के चिन्हों के उभार का चलन चल रहा है। ऐसे समय में हमारी प्राचीन लोकोक्तियों में भी कुछ समकालीनता मिल ही जाती है -

कलसा पानी गरम हो, चिड़िया नहावे धूल।

चींटी ले अंडा चढ़ी, तो बरखा भरपूर।।

भविष्य में क्या होने वाला है, उसके प्रतीक चिन्हों को खोजती यह साधारण-सी कहावत अपने आप में देश के समकालीन सामाजिक-राजनैतिक संदर्भों में बहुत असाधारण हो गई है।

माना जाता है कि लफ्फाजी एक निम्नतम कोटि की कला है लेकिन आजकल तो देश के बड़े-बडे़ नेता भी लफ्फाजी की धूल में नहा रहे हैं। विश्व राजनीति में फासीवाद ने लफ्फाजी को वैज्ञानिक रूप दिया था। इस कला के सबसे बड़े कलाकार गोयबल्स थे। उनकी गोयबल्सी-कला पूरी दुनिया में फैल गई है। भारत में भी इस कला का दर्शन पिछले कुछ वर्षों में केंद्रीय स्थान प्राप्त कर चुका है। इस कला को अपनाकर गरीब और असहाय लोगों की अल्पज्ञता और अज्ञानता का फायदा करोड़पतियों के लाभ में किया गया था।

मुसोलिनी के 1919-22 तक के कार्यक्रम में राजतंत्र और अभिजात वर्ग को समाप्त करना, उद्योगों का नियंत्रण मजदूरों के हाथों में सौंपना, किसानों में अभिजात वर्ग की जमीनों का बंटवारा, गिरजाघरों की संपत्ति की जब्ती, पूंजी पर अनिवार्य शुल्क और लिमिटेड कंपनियों और बैंकों का विघटन आदि लोकप्रिय वादों को शामिल किया गया था। लेकिन मुसोलिनी देश की सत्ता प्राप्त हो जाने के बाद अपने वादे ही नहीं भूला, बल्कि उसने वादों के एकदम उलट रास्ता अपनाया था। वह इटली में जब तक सत्ता में रहा तब तक न राजतंत्र खत्म हुआ और न ही देश का पूंजीवादी वर्ग। इसके बावजूद वह सिद्ध करता था कि देश में जो कुछ सर्वोत्तम है, वह उसका साक्षात अवतार है।

तानाशाह हिटलर सर्वाधिक हमारे देश में प्रसिद्ध है। एक अध्ययन के अनुसार हिटलर की आत्मकथा माइन काम्फ (मेरा संघर्ष) भारतीय भाषाओं में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों में एक है। मेरा संघर्ष का एक वाक्य ही लाखों वाक्यों के बराबर है, “अनंत युद्ध से मानव जाति महान बनी है, अनंत शांति से मानव जाति नष्ट हो जाएगी।” तोलस्तोय के महान उपन्यास युद्ध और शांति के बाद युद्ध के बारे में हिटलर के संवाद की प्रतिध्वनि हमारे देश में क्यों सुनाई दे रही है?

मुसोलिनी ने भी 1932 में अपने एक लेख में कहा है, “एकमात्र युद्ध ही मानव शक्तियों को चरम सीमा पर ले जाता है और उन राष्ट्रों पर श्रेष्ठत्व की मुहर लगा देता है, जिनमें इसे अपनाने का साहस होता है।” क्या युद्ध भी ‘अपनाने’ वाली शय है?

विश्व के विभिन्न देशों का इतिहास बताता है कि इन देशों में पूंजीपति वर्ग फासीवादी शक्तियों की रक्षा करता रहा है। अर्नेस्ट हेनरी ने 1934 में प्रकाशित अपनी पुस्तक यूरोप पर हिटलर में बताया है कि किस तरह यूरोप के इस्पात उद्योग के बादशाह कहलाने वाले थाइसेन कारखानों के डायरेक्टरों ने हिटलर की मदद की थी। थाइसेन ने चुनावों के समय लाखों रुपये से हिटलर के ‘समाजवादी’ चुनाव कोष में रकम दी थी। इस रकम को इकट्ठा करने के लिए कोयले के दाम बढ़ा दिए गए थे, जिससे आम लोगों को बहुत कठिनाई हुई थी। उस समय तक शायद हिटलर को हमारे चुनावी बांड का आइडिया नहीं सूझा होगा।

फासीवादी तानाशाही को बनाए रखने के लिए चेकोस्लोवाकिया के स्कोडा नामक हथियारों के उद्योगपतियों ने भी हिटलर की मदद की थी। स्कोडा उद्योग समूह की कारें आजकल भारत में भी दौड़ रही हैं। ब्रिटेन के करोड़पति राय मेयर का अखबार डेलीमेल फासीवाद का मुखपत्र बन गया था। उस समय फासीवादी शक्तियों को बनाए रखने में फोर्ड, क्रूगर, क्रुप और डेटरडिंग आदि औद्योगिक घरानों का बड़ा हाथ रहा है।

फासीवाद अपने ऊपर ‘लोककल्याण’ का साइनबोर्ड लगाकर मध्यवर्ग को अपने झंडे के नीचे इकट्ठा करने में सफल रहा है। हिटलर के शासनकाल में जर्मनी में करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ी थी। कहा जाता है कि जर्मनी में वित्तीय-पूंजी की पूर्ण तानाशाही थी। इसके मद्देनजर हमारे देश की नोटबंदी और जीएसटी की अव्यवस्थाओं का स्मरण होता है। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के अनुसार, “फासीवाद वित्तीय पंूजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, सबसे ज्यादा अंतरराष्ट्रीय और सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकवादी तानाशाही है।” क्या इसके दर्शन भारत में नहीं हो रहे?

फासीवादी दर्शन का एक मुख्य तत्व वैज्ञानिक अनुसंधानों को नकारना और धर्म तथा आध्यात्मिकता की चर्चा करना है। वह आध्यात्मिकता एक विशेष धर्म और जाति की पवित्रता और उसके धार्मिक आराध्यों की बात करता हुआ एक बहुमत वाले जनसमुदाय के लोगों को अपने पक्ष में गोलबंद करता है।

इसी का परिणाम है कि आजकल बहुमत की जगह बहुसंख्यक वर्ग की बात होने लगी है। बहुसंख्यक वर्ग को बहुमत कहने से अल्पसंख्यक वर्ग के संकट बढ़ जाते हैं। इस तरह के विभाजन से देश में कानून के राज के खत्म हो जाने की संभावना बढ़ सकती है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार, भारत में राजनैतिक बहुमत नहीं है। भारत में बहुमत पैदा होता है, इसका निर्माण नहीं किया जाता। सांप्रदायिक-बहुमत और राजनैतिक-बहुमत में यही अंतर है।

नओमी क्लेन कनाडा की पत्रकार लेखिका और फिल्मकार कंपनियों के भूमंडलीकरण और विनाशक पूंजीवाद की कटु आलोचक हैं। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक सदमे का सिद्धांत (द शॉक डॉक्ट्रिन) में स्पष्ट किया है कि कैसे पूंजीवादी व्यवस्थाएं आतंकवाद और आर्थिक नीतियों के सदमे से व्यक्ति और समाज को दुविधाग्रस्त बना देती हैं।

नओमी क्लेन के अनुसार, जिस प्रकार आतंकवादी सरकारों से अपनी बात मनवाते हैं, वहीं सरकारी-आर्थिक-नीतियों से भयभीत समाज से घातक-पूंजीवाद भी अपनी नई आर्थिक योजनाएं स्वीकृत कराता है। इसी प्रकार बीसवीं सदी के युगांतरकारी अर्थशास्‍त्री फ्रीडमैन ने मुक्त-बाजार के सिद्धांत पर आधारित कॉरपोरेट लोकतंत्र की रूपरेखा रखी थी। फ्रीडमैन सलाह देते हैं कि सदमे में पड़े समाज में कष्टकारी लेकिन कंपनियों के लिए लाभकारी नीतियों को लागू कर देना चाहिए।

देश के आकाश में अगर चीलें उड़ रही हों तो सवाल यह नहीं कि किस रंग की चीलें उड़ रही हैं। सवाल यह है कि उनकी दिशा क्या है? कुछ ऐसे सवाल होते हैं जो चुनावों के साथ खत्म नहीं हो पाते हैं। निरंतर जागरूक रहने और जागरूक करने का समय है यह।

 (लेखक शासकीय महात्मा गांधी स्मृति स्नातकोत्तर महाविद्यालय, इटारसी से सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं)

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