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29 मई 2023 · MAY 29 , 2023

जनादेश’23/कर्नाटक: मुद्दों, गैर-मुद्दों का फलाफल

कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ी मोर्चाबंदी में जेडी (एस) की किंगमेकर बनने की जोर आजमाइश, भारी एंटी-इन्कंबेंसी से कांग्रेस को शह मगर भाजपा के आखिरी मौके पर भावनात्मक हल्ला बोल के सवाल भी
भाजपा का प्रचारः शिवमोगा की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री के साथ बीएस येदियुरप्पा

कलफ लगे कुर्ते और धोती में दिग्गज नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवेगौड़ा प्रवेश करते हैं तो कमरे में एक झटके में शांति पसर जाती है। कर्नाटक चुनाव के नतीजों के ऐलान के कुछ दिन बाद 18 मई को वे 90 बरस के हो जाएंगे। बेंगलूरू के उनके घर में हमारी बातचीत शुरू होती है। वे धीरे-धीरे बोलते हैं; कोई शोर करते सीलिंग फैन को बंद कर देता है। लेकिन यह बुजुर्ग योद्धा एक और चुनावी लड़ाई के उबड़-खाबड़ मैदान में मोर्चे पर डट हुआ है और उनकी हाजिरजबावी और आंखों में चमक बदस्तूर कायम है। वे मुस्कराते हुए कहते हैं, “मैं रोज दो-तीन रैलियों में ही जाता हूं। पार्टी में अब कई दिग्गज हैं, मैं तो एक छोटा सिपाही हूं।” फिर ठहरकर कहते हैं, “इस बार हम अपने दम पर सरकार बनाएंगे।”

उनके बगल में बैठे उनके बेटे तथा पूर्व मुख्यमंत्री एच.डी. कुमारस्वामी कहते हैं कि उनकी पार्टी जनता दल (सेकुलर) में हर बड़ा फैसला उनके पिता की सहमति के बिना नहीं किया जाता। उनका कहना है कि दूसरी पार्टियों में उम्मीदवार चयन को लेकर बवाल हुआ लेकिन जेडी (एस) के सदस्य लोगों से जुड़ने के लिए पिछले साल से 136 विधानसभा क्षेत्रों में दौरा कर रहे हैं। वे कहते हैं, “हमारी समस्या फंड की है। हमारे पास भाजपा या कांग्रेस जैसी पैसे की ताकत नहीं है। हमारे पास लोगों, खासकर किसान समुदाय का समर्थन है।”

कुछ लोगों का कहना है कि कर्नाटक सबसे भ्रष्ट राज्य है और चुनाव लड़ना सबसे खर्चीला है। अलबत्ता कुछ दूसरे तेलंगाना और आंध्र प्रदेश को इस खांचे में रखते हैं। हां, कई और इस मामले में महाराष्ट्र का नाम लेते हैं। कांग्रेस के कर्नाटक प्रदेश के अध्यक्ष तथा मुख्यमंत्री पद के दावेदार डी.के. शिवकुमार कहते हैं, “जाति, उम्मीदवार, पैसा-ये तीन कर्नाटक में चुनाव जीतने के लिए सबसे जरूरी हैं।” वे प्रचार में कड़ी मेहनत कर रहे हैं, काफी थके लगते हैं, और कई लोगों का कहना है कि उनकी आधी ऊर्जा अपने प्रतिद्वंद्वी पार्टी के दिग्गज नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को दूर रखने में खर्च होती है।

वे कहते हैं, “कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत-141 सीटें मिलेंगी। कौन मुख्यमंत्री बनेगा, यह विधायकों और आलाकमान (राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे) पर निर्भर करेगा। वफादारी से गद्दी मिलेगी।”

शिवकुमार कहते हैं कि उनका सिद्धरमैया से कामकाजी रिश्ता अच्छा है। दूसरे कांग्रेसी कहते हैं कि केंद्रीय नेतृत्व दोनों नेताओं के बीच सुलह कराने में कामयाब हो गया है और उनका भाग्य आखिरी नतीजों पर निर्भर करेगा। हम सिद्धरमैया के मिलनसार एमबीबीएस डॉक्टर बेटे यतींद्र से मिले, जो कुछ साल पहले राजनीति में सक्रिय हुए और 2018 में मैसूरू के नजदीक वरुणा विधानसभा सीट से चुनाव जीते। इस सीट पर इस बार उनके पिता लड़ रहे हैं। वे कहते हैं, “हर पार्टी में कुछ गुट होंगे। भाजपा तो आंतरिक कलह से बुरी तरह प्रभावित है और मुझे लगता है कि लिंगायत समुदाय इस बार उसका समर्थन नहीं कर रहा है। जहां तक मेरे पिता की बात है, वे बहुत ऊंचे कद के नेता हैं, चुनाव के बाद पार्टी के विधायक मुख्यमंत्री तय करेंगे।” अगर आखिरी मौके पर कोई बड़ा उथल-पुथल नहीं हुआ तो इस बार कर्नाटक में कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ी टक्कर है।

उम्मीद के मुताबिक, शिवकुमार और यतींद्र सिद्धरमैया दोनों की एक राय हैं कि भाजपा सत्ता में नहीं लौटेगी क्योंकि, बकौल उनके, लोग मौजूदा मुख्यमंत्री बासवराज बोम्मई के कुशासन और लस्त-पस्त कामकाज से नाराज हैं, उसे “40 परसेंट सरकारा” कहा जा रहा है। कांग्रेस के तीन बार के विधायक कृष्णा बायरे गौड़ा कहते हैं, “धूर्तों को निकाल बाहर करो जैसा नारा कर्नाटक में हमेशा चलता है। हमें बताया गया कि प्रधानमंत्री मोदी आखिरी दौर में रैलियां कर रहे हैं, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस बार वे कुछ कर पाएंगे।”

नए भगवानः बजरंग दल पर प्रतिबंध की बात के बाद चुनावी फिजां में हनुमान जी की एंट्री

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कांग्रेस और जेडी (एस) दोनों का कहना है कि भाजपा टिकट बंटवारे में गड़बड़ा गई और उसकी प्रदेश इकाई में विभिन्न गुटों के बीच भारी कलह है। वरिष्ठ लिंगायत नेता तथा पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार का अचानक पार्टी छोड़ देना पार्टी की दुर्दशा का एक लक्षण है। आरोप है कि शेट्टार और भाजपा महासचिव बी.एल. संतोष के साथ पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के बीच गहरे मतभेद हैं। भाजपा इस सब को बकवास बताती है। वरिष्ठ भाजपा नेता तथा सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री सी.एल. अश्वथ नारायण कहते हैं, “संतोष और शेट्टार दोनों मजबूत नेता हैं। संतोष संगठन के बड़े नेता हैं, उन्हें शेट्टार के जाने के लिए दोष देना बेवकूफी है।” बकौल नारायण, “शेट्टार पार्टी की बात सुनने को तैयार नहीं थे। वे चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन पार्टी नहीं चाहती थी। शेट्टार कोई बड़ा झटका नहीं दे पाएंगे और भाजपा को स्पष्ट बहुमत से बहुत ज्यादा मिलने जा रहा है।”

इन चुनावों में कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। फिलहाल भाषणों और रैलियों में सांप्रदायिक मुद्दों और नारों का जिक्र न्यूनतम है। हिजाब, (तटीय कर्नाटक के स्कूलों और कॉलेजों में हिजाब पहने लड़कियों की इजाजत नहीं है) अजान और टीपू सुल्तान (कि सुल्तान अंग्रेजों नहीं, दो वोक्कालिगा योद्धाओं के हाथों मारा गया) विवाद चर्चा से गायब हैं। विपक्ष ने कुछ दिनों तक नंदिनी बनाम अमूल विवाद का दोहन किया, मगर यह मसला भी पीछे चला गया। कुमारस्वामी कहते हैं, “इन चुनावों में कोई राष्ट्रीय मुद्दा काम नहीं करेगा, न हिंदुत्व, न अदाणी, न भारत जोड़ो।” जब पूछा गया कि कांग्रेस के केंद्रीय नेता क्यों प्रचार नहीं कर रहे हैं? तो शिवकुमार कहते हैं, “कर्नाटक जीतने के लिए हमें उत्तर भारत के चेहरों की जरूरत नहीं है।”

लोग भी अभी तक अपना मन नहीं बना पाए हैं। हम मैसूरू से चिक्कमगलूरू की ओर जा रहे थे, तो ऐसा लगा कि बहुत से लोगों का रुख जाति के आधार पर ही कायम है। हम वरुणा क्षेत्र के एक गांव में श्रुति शैवास से मिले, जो कृषि-उत्पादों की दुकान चलाती हैं। गांव साफ-सुथरा और समृद्ध दिखता है। सड़कें पक्की हैं और हर घर में नल जल का कनेक्शन है। श्रुति का कहना है कि वे भाजपा को वोट दे रही हैं क्योंकि यही इकलौती पार्टी है, जो राज्य में कुछ काम करती है। लेकिन बगल की गली में लोगों के एक समूह का कहना था कि वे कांग्रेस को वोट देंगे क्योंकि उनका मानना है कि सिद्धरमैया जीतते हैं तो क्षेत्र के विकास के लिए उनमें जज्बा ज्यादा है।

बेंगलूरू लौटते हैं। हमने कई विश्लेषकों और पत्रकारों से भी चुनावी मुद्दों पर बात की। उनका कहना था कि असली मुकाबला तो 13 मई को नतीजे आने के बाद शुरू होगा। अगर नतीजे त्रिशंकु विधानसभा ले आते हैं तो कुख्यात ऑपरेशन कमल अभी भी सबके दिमाग में ताजा है, जिसकी वजह से कांग्रेस और जेडीएस की सरकार गिर गई और भाजपा सत्ता में पहुंच गई। प्रधानमंत्री मोदी 29 अप्रैल से धुआंधार प्रचार पर उतर आए हैं। अनुमान तो यही है कि ये चुनाव कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़े मुकाबले वाले हैं।

...फिर आखिरी जांबाजी

मांड्या में प्रियंका गांधी का स्वागत

मांड्या में प्रियंका गांधी का स्वागत

प्रचार आखिरी हफ्ते या दस दिन में धुआंधार हो उठा। मुद्दों और गैर-मुद्दों की धूल- धक्कड़ घटाटोप उड़ने लगी। रैलियों और रोड शो का इस कदर रेला चलने लगा, जैसा शायद इसके पहले कहीं नहीं देखा गया। 29 अप्रैल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगभग हर दिन रैलियों और रोड शो का सिलसिला शुरू हुआ तो माहौल ऐसा तैयार हो गया कि कर्नाटक का चुनाव देश की राजनीति के लिए सबसे अहम हो गया। कांग्रेस ने भी अपना जैसे सब कुछ झोंक दिया। राहुल, प्रियंका गांधी की रैलियों और रोड शो की धूल जमीन ही नहीं आसमान में भी छाने लगी, आखिर में सोनिया गांधी की भी सभा हुई। ऐसे में मुद्दे ही नहीं, गैर-मुद्दों की बाजीगरी भी चोटी पर पहुंच गई। आइए इन पर एक नजर डालें:

. कांग्रेस ने मौजूदा राज्य सरकार के खिलाफ ‘40 परसेंट सरकार’ का नारा उछाला, तो शुरू में भाजपा लाभार्थियों पर जोर डालती दिखी।

. कांग्रेस ने 200 यूनिट बिजली मुफ्त के साथ भत्तों और मुफ्त सेवाओं की पांच गारंटियों का ऐलान किया तो भाजपा के घोषणा-पत्र मे कई सारी मुफ्त योजनाओं का ऐलान हुआ, साथ में समान नागरिक संहिता और एनआरसी लागू करने का भी वादा किया। 

. कांग्रेस के बोल तीखे हुए। पार्टी अध्यक्ष मल्लिाकर्जुन खड़गे ने भाजपा-आरएसएस को ‘जहरीला सांप’ और उनके बेटे ने प्रधानमंत्री को ‘नालायक’ कहा तो प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मान-सम्मान का मुद्दा बनाया और अपने ऊपर कांग्रेस की 91 गालियों की फेहरिस्त पेश कर दी।

. फिर कांग्रेस के घोषणा-पत्र में पीएफआइ के साथ बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात की गई तो भाजपा और मोदी ने उसे बजरंग बली का अपमान बता दिया और हर रैली में ‘बजरंग बली जय’ का नारा गूंजने लगा। रोड शो में बजरंग बली के भेषधारी चलने लगे। भाजपा ने टीपू सुल्तान का मुद्दा भी उठाया। यानी पहले दौर में जो सांप्रदायिक मुद्दे नदारद थे, आखिरी दौर में उन्हीं का जैसे घटाटोप हो गया।

. कांग्रेस ने इसकी काट के लिए स्थानीय और हिंदू अखबार में बड़े विज्ञापन दिए कि मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और दूसरे पदों के लिए रिश्वत का भाजपा सरकार का कथित रेट कार्ड जारी किया। कांग्रेस सांप्रदायिक मुद्दों से हटकर स्थानीय मुद्दों खासकर भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की कोशिश करती रही।

ये मुद्दे शायद समूचे देश के अगले चुनावों के अफसाने तय कर सकते हैं। बेशक, 2024 के अगले लोकसभा चुनाव में इसका असर दिख सकता है। शायद कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए यह चुनाव अपने-अपने अफसाने का टेस्टिंग ग्राउंड भी साबित हो सकता है। मसलन, लगता नहीं कि कांग्रेस ने भाजपा और आरएसएस तथा हिंदुत्व के कथित एजेंडे को चुनौती देने के मुद्दे बिना सोचे-समझे नहीं उठाया, न ही भाजपा ने आखिर अपने प्रिय एजेंडे पर जोर देने का अचानक कोई फैसला किया है। मोदी ने शायद अपनी लोकप्रियता को साबित करने के लिए भी रोड शो पर ज्यादा जोर दिया। तो, कर्नाटक चुनाव शायद बहुत कुछ तय करने वाला है। इससे अगली रणनीतियां निकल सकती हैं।

60,000 करोड़ रुपये

कर्नाटक चुनाव में खर्च होने का कुछ विश्लेषकों का अनुमान। यानी यह सबसे खर्चीला चुनाव साबित हो सकता है। एक आरटीआइ के जवाब में भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक इस बार इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री 2018 के कर्नाटक चुनाव से 9 गुना ज्यादा हुई

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