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किसकी किल्ली खोलेगी दिल्ली

इस चुनाव में तीनों बड़े दावेदारों की गहमागहमी ही बताती है कि बड़ी गद्दी के लिए महज सात सीटों वाली दिल्ली की अहमियत कितनी
कितने दूर, कितने पासः कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल

छोटी है, ‘आधी’ है मगर दिल्ली तो दिल्ली है। देश की बड़ी गद्दी के लिए इसकी महज सात सीटों की अहमियत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां से तमाम बड़े नेता चुनाव लड़ते रहे हैं और बड़े राज्यों की तुलना में केंद्र सरकार में इसका प्रतिनिधित्व भी अधिक रहता है। लेकिन दिल्ली का मिजाज भी बदलता रहता है। आखिर इसी दिल्ली ने 2014 के लोकसभा चुनाव में सातों सीटें मोदी की अगुआई वाली भाजपा को दीं, तो साल भर बाद विधानसभा चुनाव में सबसे पहले मोदी लहर को चुनौती दी। इसलिए, आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन को लेकर बात बनने और बिगड़ने की अटकलों के बीच बीते चुनाव के समीकरणों पर गौर करते हैं।

पिछले लोकसभा  चुनाव में भाजपा को 46.40, आप को 32.90 और कांग्रेस को 15.10 फीसदी वोट मिले थे। चांदनी चौक से भाजपा के डॉ. हर्षवर्धन चार लाख 37 हजार 938 वोट पाकर जीते थे। लेकिन, 2015 के विधानसभा चुनाव में आप ने इस क्षेत्र की सभी 10 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की। इसी तरह, लोकसभा चुनाव में पूर्वी दिल्ली में भाजपा के विजयी उम्मीदवार महेश गिरी को पांच लाख 72 हजार वोट मिले। लेकिन, विधानसभा चुनाव में इलाके की 10 में से केवल एक सीट भाजपा को मिली।

नई दिल्ली से 2014 में भाजपा की मीनाक्षी लेखी को चार लाख 53 हजार 350 वोट मिले थे। लेकिन,  विधानसभा चुनाव में क्षेत्र की सभी 10 सीटों पर आप ने कब्जा जमाया। उत्तर-पूर्वी दिल्ली से 2014 में मनोज तिवारी को पांच लाख 96 हजार 125 वोट लाकर जीते। विधानसभा चुनाव में इलाके की 10 सीटों में नौ पर आप काबिज हो गई। उत्तर-पश्चिम दिल्ली की सुरक्षित सीट से उदितराज छह लाख 29 हजार 860 वोट पाकर जीते। विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र की भी 10 में से नौ सीटें आप के खाते में गईं। दक्षिण दिल्ली से 2014 में भाजपा के रमेश बिधूड़ी को चार लाख 97 हजार 980 वोट मिले थे। साल भर बाद आप ने यहां की सभी 10 विधानसभा सीटें जीत ली। पश्चिम दिल्ली से लोकसभा में भाजपा के प्रवेश साहिब सिंह वर्मा जीते, लेकिन इलाके की सभी 10 विधानसभा सीटों पर साल भर बाद ही आप काबिज हो गई। अब मौजूदा समीकरणों पर नजर डालने से पहले उन मुद्दों की बात जो इस बार के चुनावी समर को प्रभावित करने का दमखम रखते हैं। सबसे पहले बात दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग की। भाजपा और कांग्रेस हर चुनाव से पहले इसका वादा करती रही है। आप भी दिल्ली में सरकार बनने के बाद से जोर-शोर से यह मांग उठा रही है।

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल लोगों को यह बतलाने का कोई मौका नहीं छोड़ते कि दिल्ली के विकास में सबसे बड़ी बाधा इसे पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होना है। दिल्ली सरकार के मंत्री और आप के प्रदेश संयोजक गोपाल राय ने आउटलुक से कहा, “हमारा मुख्य मुद्दा दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाना है। हमने बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल, डोर स्टेप डिलिवरी, सोशल सिक्योरिटी पेंशन, मिनिमम वेज जैसे काम किए, लेकिन पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने की वजह से इसमें भी केंद्र ने अड़ंगे लगाए।” भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी का कहना है कि पूर्ण राज्य को लेकर हमने समीक्षा की बात कही थी। समीक्षा हुई तभी तो मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया तो क्या उसके फैसले के खिलाफ कोई धरने पर बैठेगा। कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राजेश लिलोठिया आप पर इस मसले पर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाते हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, “विधानसभा चुनावों से पहले आप ने महिला सुरक्षा, फ्री वाई-फाई, सीसीटीवी, जनलोकपाल विधेयक जैसे वादे किए थे। इस पर लोग सवाल नहीं करें, इसलिए पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग उठाई जा रही। ”

सीलिंग भी बड़ा मुद्दा है। इसकी वजह से हजारों लोगों की दुकानों पर ताले लग चुके हैं। कांग्रेस से लेकर भाजपा और आप सीलिंग के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार बता रही हैं। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी कहते हैं, “हमने सीलिंग का विरोध किया। यहां तक कि जेल जाने को तैयार थे। लेकिन अरविंद केजरीवाल कहां थे? सीलिंग की साजिश ही केजरीवाल की थी।” इसके अलावा चुनाव के साथ ही गेस्ट टीचर्स को स्थायी करने का मुद्दा भी गरमा गया है। अपनी मांग को लेकर हाल ही में लगभग 21 हजार गेस्ट टीचर्स सड़कों पर भी उतरे थे।

निर्णायक वर्ग

मध्यम वर्गः पिछले दो विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर इस वर्ग ने निर्णायक भूमिका निभाई। कुछ वर्षों में आप की इन पर पकड़ कम हुई, लेकिन क्या इसका फायदा भाजपा या कांग्रेस को होगा, यह तो नतीजे ही तय करेंगे।

मुस्लिमः चांदनी चौक, पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिल्ली क्षेत्र में अधिकांश मुसलमान कांग्रेस का समर्थक रहा है, लेकिन पिछले कुछ चुनावों से इसका झुकाव आप की तरफ देखा गया है। इनका एकमुश्त वोट नतीजों को व्यापक तरीके से प्रभावित कर सकता है।

पूर्वांचलीः चांदनी चौक और नई दिल्ली को छोड़ दें, तो पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसा यह वोटबैंक लगभग सभी सीटों पर व्यापक रूप से प्रभावी है। इनका वोटिंग पैटर्न कम-से-कम दो सीटों उत्तर-पश्चिम और उत्तर-पूर्वी दिल्ली पर निर्णायक साबित हो सकता है।

जाहिर है, 2014 में तीन पार्टियों के अलग-अलग चुनाव लड़ने का फायदा भाजपा को मिला था। कांग्रेस और आप के साथ आने पर भाजपा की बढ़त कमजोर हो सकती है। इसको लेकर आप ने अपनी मंशा कभी छिपाई भी नहीं, क्योंकि उसे डर है कि त्रिकोणीय मुकाबला होने पर एंटी-भाजपा वोट दोनों के बीच बंट जाएंगे और इससे भाजपा फायदे में रहेगी। गोपाल राय का कहना है कि आप देशहित में गठबंधन चाहती है। राकांपा सुप्रीमो शरद पवार विपक्षी दलों को साथ लाने के लिए काफी सक्रिय हैं। उनकी पहल पर ही दिल्ली में गठबंधन की बात शुरू हुई।

दरअसल, आप और कांग्रेस दोनों का वोट बैंक लगभग एक जैसा ही है, जिनमें समाज के अन्य वर्गों के अलावा अल्पसंख्यक, अनधिकृत कॉलोनी और जेजे क्लस्टर वाले शामिल हैं। इसी वोटबैंक की वजह से आप 2015 विधानसभा में भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई। अब 2014 के लोकसभा चुनावों में आप और कांग्रेस को मिले वोट जोड़ दें तो यह 48 फीसदी हो जाता है जो भाजपा को उस समय मिले 46.40 फीसदी वोट से करीब डेढ़ फीसदी ज्यादा है।

2015 के विधानसभा चुनाव में आप को 54.3 फीसदी वोट मिले। भाजपा को 32.3 फीसदी यानी 2013 की तुलना में 0.8 फीसदी कम मिले, जबकि कांग्रेस को महज 9.7 फीसदी वोट मिले और उसके वोट प्रतिशत में 14.9 फीसदी की गिरावट आई, जिसका सीधा फायदा आप को हुआ। वहीं, 2017 के निगम चुनावों में भाजपा को 37 फीसदी, आप को 26 फीसदी और कांग्रेस को 21 फीसदी वोट मिले। 2015 के बाद यह पहली बार था जब आप के वोट शेयर में गिरावट और कांग्रेस के वोट में बढ़ोतरी हुई।

आप से गठबंधन के मसले पर दिल्ली कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राजेश लिलोठिया कहते हैं, “आप और केजरीवाल ने ही प्रचार किया कि हमलोग कांग्रेस से गठबंधन करना चाहते हैं। एक तरफ कहते हैं कि हमारे सर्वे बता रहे हैं कि हम सातों सीट जीत रहे हैं, तो फिर गठबंधन के लिए क्यों बात कर रहे हैं।” आप और कांग्रेस के बीच गठबंधन की चर्चा पर मनोज तिवारी तंज कसते हैं कि ये एक होकर लड़ें या अलग, भाजपा को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। वह कहते हैं, “यह बिलकुल हास्यास्पद है कि 70 में 67 सीट पाने वाला कैसे शून्य सीट पाने वाले के कदमों में लोट सकता है।”

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