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कौन किस पर भारी

सिंधिया को पश्चिमी यूपी की कमान, कमलनाथ-दिग्गी की राह आसान
शह या मातः (बाएं से) ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह

सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने राष्ट्रीय महासचिव बनाकर कमान तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सौंपी है। लेकिन, मायने सिंधिया के गृह प्रदेश मध्य प्रदेश में कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से जोड़कर निकाले जा रहे हैं। समर्थक इसे पार्टी में सिंधिया का बढ़ता प्रभाव बता रहे हैं। वहीं, लोकसभा चुनाव से दो महीने पहले सिंधिया को मिली इस जिम्मेदारी को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की जोड़ी की जीत के तौर पर भी देखा जा रहा। कहा जा रहा है कि इससे गृह प्रदेश की राजनीति में सिंधिया का दखल कम होगा और कमलनाथ-दिग्विजय की जोड़ी की राह आसान होगी।  

असल में, मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत के बाद सिंधिया ने पहले तो कमलनाथ के मुख्यमंत्री बनने की राह में रोड़े अटकाने की कोशिश की, फिर प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर नजरें गड़ाईं। विश्वस्त तुलसी सिलावट को उपमुख्यमंत्री बनवाने में नाकामयाब होने के बावजूद सिंधिया अपने सात समर्थकों को कमलनाथ कैबिनेट में जगह दिलाने में कामयाब रहे। इनमें डबरा की विधायक इमरती देवी भी हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी गणतंत्र दिवस पर पूरा भाषण नहीं पढ़ पाई थीं, जिसका वीडियो वायरल होने के बाद सरकार की काफी किरकिरी हुई।

मध्य प्रदेश की राजनीति में कमलनाथ और दिग्विजय बड़े भाई और छोटे भाई के रूप में जाने जाते हैं। चुनाव प्रबंधन से लेकर सरकार चलाने में दिग्विजय सिंह की भूमिका अहम है। इसका कारण यह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पहले कमलनाथ का मध्य प्रदेश की राजनीति से खास वास्ता नहीं था। सरकार चलाने के लिए वे दिग्विजय सिंह के अनुभव के आसरे हैं, जो दस साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लेकिन, सिंधिया के दबाव में उन्हें 28 विधायकों को कैबिनेट मंत्री बनाना पड़ा। राज्य में ऐसा पहली बार हुआ है कि जब कोई भी राज्यमंत्री नहीं है, जबकि अपने और दिग्विजय सिंह के कई समर्थकों को कमलनाथ अब तक कैबिनेट में नहीं ले पाए हैं। फिलहाल, कैबिनेट में चार जगहें खाली हैं, जिसके लिए रस्साकशी चल रही है।

कैबिनेट में जगह नहीं मिलने से शिवपुरी के विधायक के.पी. सिंह, सुमावली के विधायक एदल सिंह कंसाना, बदनावर के विधायक राज्‍यवर्धन सिंह, दत्तीगांव और अनूपपुर के विधायक बिसाहूलाल सिंह नाराज बताए जाते हैं। के.पी. सिंह और एदल सिंह कंसाना चार बार के विधायक और दिग्विजय सिंह के करीबी हैं। कंसाना ने आउटलुक को बताया, “वरिष्ठता के बावजूद मंत्री नहीं बनाए जाने को लेकर मैं पार्टी नेताओं से बात करूंगा।” के.पी. सिंह सिंधिया के संसदीय क्षेत्र से आते हैं। कैबिनेट गठन के वक्त सिंधिया ने साफ कह दिया था कि उनकी मर्जी के बगैर उनके लोकसभा क्षेत्र से आने वाले विधायक मंत्री न बनाए जाएं। दिग्विजय अपने बेटे जयवर्धन सिंह और भतीजे प्रियवत सिंह को मंत्री बनवाने में भले कामयाब रहे हों, लेकिन मौका नहीं मिलने से उनके भाई लक्ष्मण सिंह नाराज चल रहे हैं।

कमलनाथ की अल्पमत की सरकार को समर्थन दे रही बसपा विधायक रमाबाई और निर्दलीय भी खुश नहीं हैं। हालांकि, कमलनाथ ने अपने खास समर्थक निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल को खनिज जैसा मलाईदार विभाग दिया है। लेकिन, इससे बात बनती नहीं दिख रही। मध्य प्रदेश में लोकसभा की 29 सीटें हैं। ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत के लिए कमलनाथ-दिग्विजय की जोड़ी को फ्री हैंड देना राहुल गांधी की मजबूरी भी है। वैसे, ज्योतिरादित्य के करीबी और मध्य प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है, “राष्ट्रीय महासचिव बनने और पश्चिमी यूपी की कमान मिलने से पार्टी में सिंधिया का कद बढ़ा है।”

वैसे, इस फैसले से सिंधिया मजबूत हुए या कमलनाथ और दिग्विजय उन पर भारी पड़े हैं, यह तो लोकसभा चुनाव के बाद ही पता चलेगा। लेकिन, एक तथ्य यह भी है कि राजीव गांधी के करीबी होने के बावजूद ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया भी मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे। राजीव गांधी ने उनकी जगह मुख्यमंत्री पद के लिए अर्जुन सिंह और मोतीलाल वोरा को तरजीह दी थी। 1993 में भी मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के लिए दिग्विजय सिंह और माधव राव में होड़ लगी थी, लेकिन बाजी दिग्विजिय सिंह के नाम रही थी।

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