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30 नवंबर 2020 · NOV 30 , 2020

अमेरिकी चुनाव/नजरिया : क्या होगी बाइडन की कश्मीर नीति?

उन्होंने कश्मीरियों की दुर्दशा की बात नहीं उठाई तो इससे उनकी विदेश नीति की असंगति उजागर होगी
न्यूयॉर्क में ट्रंप टॉवर के सामने अमेरिकी झंडा लहाराता बाइडन समर्थक

चुनाव प्रचार के दौरान जो बाइडन ने अपनी विदेश नीति के बारे में एक बात स्पष्ट कर दी थी कि वे लोकतंत्र और मानवाधिकार को मजबूत करने के लिए कड़ी लड़ाई लड़ेंगे। उन्होंने यह बात ऐसे समय कही जब इन दोनों पर लगातार हमले हो रहे हैं। बाइडन के कथन का मतलब यह है कि कश्मीर को लेकर भारत सरकार की नीति पर बाइडन प्रशासन की बारीक नजर रहेगी।

हालांकि राजनीतिक कारणों से बाइडन के नेतृत्व में वाइट हाउस अपनी आलोचना पर अंकुश रखेगा। इससे अमेरिका और भारत के आपसी संबंध तो मजबूत होंगे, लेकिन बाइडन की विदेश नीति के एक प्रमुख स्तंभ की विश्वसनीयता कम होने का जोखिम भी रहेगा।

भारत, कश्मीर में अपने करीबी मित्रों समेत किसी का भी हस्तक्षेप नहीं चाहता है। लेकिन बाइडन ने इसके संकेत अपने चुनाव अभियान के दौरान ही दे दिए थे। वॉशिंगटन स्थित थिंक टैंक हडसन इंस्टीट्यूट के एक कार्यक्रम में बाइडन के विदेश नीति सलाहकार एंटनी ब्लिंकेन ने कश्मीर में भारत सरकार के कुछ फैसलों पर गंभीर चिंता जताई थी। बाइडन प्रशासन में ब्लिंकेन को वरिष्ठ पद मिल सकता है। उन्होंने खासकर कश्मीर में लोगों के आने-जाने और बोलने पर पाबंदी लगाने पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था, “किसी भी सहयोगी के साथ बातचीत का रास्ता हमेशा बेहतर होता है। जिन विषयों पर मतभेद हैं, उन पर सीधे और स्पष्ट रूप से बात कर सकते हैं।”

इस वर्ष जून में ‘मुस्लिम अमेरिकी समुदायों के लिए जो बाइडन का एजेंडा’ शीर्षक से एक दस्तावेज भी जारी किया गया था। उसमें कहा गया था कि भारत सरकार को कश्मीरियों के अधिकार बहाल करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने चाहिए। दस्तावेज के अनुसार असंतोष पर प्रतिबंध- जैसे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर रोक या इंटरनेट की स्पीड कम करने या इंटरनेट बंद करने- से लोकतंत्र कमजोर होता है।

लेकिन कश्मीर पर बाइडन प्रशासन के फोकस के बारे में ज्यादा बातें नहीं की जानी चाहिए। उम्मीद है कि इस विषय पर बातचीत सीमित और पर्दे के पीछे होगी। किसी भी सार्वजनिक आलोचना से चतुराई से निपटा जाएगा। ठीक उसी तरह, जैसे बराक ओबामा ने 2015 में भारत में अपने भाषण में धार्मिक आजादी की बात कही थी।

हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कश्मीर के बारे में बाइडन (और करीब एक साल से दूसरे डेमोक्रेट नेताओं) की नकारात्मक टिप्पणी अनुच्छेद 370 बेमानी करने के बाद वहां बेहद कठोर कदम उठाए जाने के खिलाफ रही है। कुछ अपवादों को छोड़कर डेमोक्रेट नेताओं ने न तो अनुच्छेद 370 को बेमानी करने के फैसले की कभी आलोचना की, न ही कश्मीर की भौगोलिक स्थिति को लेकर। आगे भी हमें बाइडन प्रशासन से ऐसी ही उम्मीद करनी चाहिए- कश्मीर में मानवाधिकारों की स्थिति पर सीमित आलोचना, और उसके अलावा कुछ नहीं।

इसका कारण भी सरल है। अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट, दोनों पार्टियां इस बात पर एक मत हैं कि भारत-अमेरिका की साझेदारी रणनीतिक रूप से जरूरी है। कश्मीर मुद्दा बार-बार उठाकर या इस पर ज्यादा गंभीरता दिखाकर बाइडन इस संबंध में दरार नहीं डालना चाहेंगे। वे लंबे समय से भारत के मित्र रहे हैं और अमेरिका-भारत साझीदारी के बड़े समर्थक भी हैं। अमेरिकी नीति निर्माता दक्षिण एशिया में भारत को अपना सबसे महत्वपूर्ण साझीदार मानते हैं, बाइडन इस संबंध को जोखिम में नहीं डालना चाहेंगे।

आश्चर्य की बात नहीं कि नवनिर्वाचित उपराष्ट्रपति कमला हैरिस भारतीय लोकतंत्र की खामियों पर बात करने के बजाए उसे मजबूत करने पर जोर देती हैं। बाइडन ने खुद कहा था, “हमें उत्तर अमेरिका और यूरोप से बाहर अपने डेमोक्रेटिक दोस्तों के साथ संबंधों को मजबूत बनाने की जरूरत है। एशिया में भारत से लेकर इंडोनेशिया तक साझीदारी मजबूत करनी है ताकि इन देशों के साथ साझा मूल्यों को आगे बढ़ाया जा सके।” बाइडन यह भी कहा कि एशियाई क्षेत्र अमेरिका का भविष्य निर्धारित करेगा।

अगर बाइडन मानवाधिकार के मामले में भारत पर सख्ती नहीं करते हैं तो यह उनके अपने ही विदेश नीति एजेंडा का मखौल उड़ाना होगा। डोनाल्ड ट्रंप जैसे नेता विदेश नीति का इस्तेमाल नैतिक दबाव बनाने के लिए नहीं करते हैं। उनके लिए कश्मीर में मानवाधिकारों के मामले में भारत को ‘पास’ कर देना समझ में आता है। उनकी विदेश नीति हमेशा ऐसी ही रही। ऐसा सिर्फ ट्रंप की वजह से नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय संबंध नैतिक नहीं, बल्कि सीधे-सीधे हितों के आधार पर चलते हैं। वहां नाराजगी सिलेक्टिव होती है। अमेरिका अपने मित्र देशों के हाथों परेशान होने वाले कश्मीरियों और फिलस्तीनियों की तुलना में अपने शत्रु देश के हाथों दमित होने वाले उइगुर के मामले में ज्यादा मुखर होता है।

लेकिन अगर आप ऐसे राष्ट्रपति हैं जो अपनी विदेश नीति में लोकतंत्र और मानवाधिकार की बातों को केंद्र में रखते हैं, फिर भी कश्मीरियों की दुर्दशा के मामले में अपनी टिप्पणी पर अंकुश लगाते हैं, तो इससे आप की विदेश नीति की असंगति उजागर होती है। यह उस राष्ट्रपति के लिए ठीक नहीं जो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का भरोसा और विश्वास दोबारा जीतना चाहता हो। ट्रंप के शासनकाल के दौरान अमेरिका ने इन दोनों को खो दिया।

(लेखक वॉशिंगटन स्थित वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स में एशिया प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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