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छंटी लालों की लाली

शुरुआत से ही चुनिंदा परिवारों के इर्द-गिर्द सिमटी रही प्रदेश की राजनीति में वारिसों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई से स्‍थापित कुनबे हुए फीके, पर सियासत में परिवारों का असर खत्म होने के आसार नहीं
विरासत की जंगः पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के परिवार में भी फिर कलह

यह पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल की राजनीतिक विरासत का उत्तराधिकारी बनने को लेकर उनके परिवार में मची कलह का ही असर है कि हालिया जींद विधानसभा उपचुनाव में इनेलो का उम्मीदवार जमानत भी नहीं बचा पाया। इनेलो से टूटकर बनी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के टिकट पर चुनाव लड़ रहे, उनकी चौथी पीढ़ी के दिग्विजय चौटाला भले कांग्रेस के हैवीवेट कैंडिडेट रणदीप सुरजेवाला को पछाड़ने में सफल रहे, लेकिन भाजपा उम्मीदवार को जीत   हासिल करने से नहीं रोक पाए। ऐसा पारिवारिक कलह के कारण देवीलाल के परंपरागत समर्थकों के बीच बंटवारे की वजह से हुआ। लेकिन, जेजेपी के मजबूती से उभरने की वजह से प्रदेश में नए राजनीतिक समीकरण बने हैं। लिहाजा, आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस, भाजपा, इनेलो सहित सभी दलों को नए सिरे से रणनीति बनानी होगी।

शुरुआत से ही हरियाणा की राजनीति चार-पांच परिवारों के इर्द-गिर्द सिमटी रही है। ज्यादातर समय सत्ता पक्ष और विपक्ष की कमान इन्हीं सियासी परिवारों के हाथों में रही है। ‘लाल तिकड़ी’ (देवीलाल, बंसीलाल और भजनलाल) तो करीब साढ़े तीन दशक तक राज्य में राजनीति का पर्याय बने रहे। 2005 के विधानसभा चुनावों में 67 सीटों पर जीत हासिल करने के बाद जब कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद के लिए भजनलाल की जगह सांसद एवं संविधान सभा के सदस्य रहे चौधरी रणबीर सिंह के बेटे भूपेंद्र सिंह हुड्डा को वरीयता दी तो इस तिकड़ी के दौर का अंत हुआ। हालांकि, 52 साल में 10 मुख्यमंत्री देखने वाले हरियाणा को गैर राजनीतिक परिवार से आने वाला पहला मुख्यमंत्री अक्टूबर 2014 में मनोहर लाल खट्टर के तौर पर मिला, जब भाजपा अपने दम पर सत्ता में आई।

इन सबके बावजूद राज्य की राजनीति में सियासी परिवारों का दखल कम होता नहीं दिख रहा है। यह सही है कि इनका प्रभाव सीमित हुआ है और कुछ वारिस अपनी राजनीतिक जमीन बचाए रखने की चुनौती से भी जूझ रहे हैं। पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीति शास्‍त्र विभाग के अध्यक्ष रहे मोहम्मद खालिद का मानना है कि हरियाणा की राजनीति में सियासी परिवारों का रसूख कमजोर करना आसान नहीं है। उन्होंने आउटलुक को बताया, “इन परिवारों के साथ उनकी जातिगत वफादारियां हैं। इसके कारण राज्य की राजनीति इनके इर्द-गिर्द घूमती रहती है।” यही कारण है कि हालिया जींद विधानसभा उपचुनाव में अपने भाई दिग्विजय चौटाला की हार के बावजूद जेजेपी के सांसद दुष्यंत चौटाला दावा कर रहे हैं, “देवीलाल की सियासी विरासत को आगे बढ़ाने का काम जेजेपी ही कर रही है। जींद उपचुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया है कि मौजूदा सरकार को आगामी चुनावों में कड़ी चुनौती देने में जेजेपी ही सक्षम है।”

जिस तरह देवीलाल की चौथी पीढ़ी ने जेजेपी का गठन किया है, उसी तरह पूर्व में अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए ‘लाल तिकड़ी’ भी खुद की पार्टी बनाने से पीछे नहीं हटी थी। इनके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री राव बीरेंद्र सिंह ने भी अपनी पार्टी बनाई थी। भजनलाल को छोड़कर बाकी नेता सहयोगी पार्टी के दम पर राज्य में सरकार बनाने में भी कामयाब रहे। लेकिन, कांग्रेस और जनता पार्टी से अलग होकर बने ऐसे ज्यादातर दल का आखिर में मूल पार्टी में ही विलय भी हो गया। राव बीरेंद्र सिंह ने विशाल हरियाणा पार्टी, बंसीलाल ने हरियाणा विकास पार्टी (हविपा) और पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने भी हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) बनाई थी। बंसीलाल के निधन के साथ ही हविपा खत्म हो गई, जबकि भजनलाल की मौत के बाद उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई ने पहले भाजपा से गठबंधन किया और बाद में राजनीतिक अस्तित्व बचाने को कांग्रेस में अपनी पार्टी का विलय करने को मजबूर हो गए। अब आपसी कलह से पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल की इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) में टूट ने सूबे के बड़े सियासी परिवारों के उत्थान और पतन की गाथा को केंद्र में ला दिया है।

‘लाल तिकड़ी’ में सबसे पहले 21 मई 1968 को बंसीलाल मुख्यमंत्री बने थे। वे लगातार सात साल तक इस पद पर बने रहे। उनके दौर में ही हरियाणा को ‘आया राम, गया राम’ वाली राजनीतिक पहचान से छुटकारा मिला था। उनके पूर्ववर्ती राव बीरेंद्र सिंह के जमाने में दल-बदल चरम पर होने के कारण हरियाणा की ऐसी राजनीतिक छवि बनी थी। बाद में बंसीलाल 1985 में कांग्रेस और 1996 में खुद की हविपा की तरफ से मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। जुलाई 1987 में पहली बार सीएम बने देवीलाल दो बार और उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला चार बार सीएम बनने में कामयाब रहे। भजनलाल ने पहली बार सत्ता का स्वाद 1979 में देवीलाल के खिलाफ असंतोष को हवा देकर चखा। चंद महीनों बाद अपने समर्थकों के साथ वे कांग्रेस में चले गए, करीब छह साल तक इस पद पर रहे। 1991 में भजनलाल तीसरी बार इस कुर्सी तक पहुंचे और पांच साल पद पर बने रहे। 2005 में जब कांग्रेस ने उनकी जगह हुड्डा को तरजीह दी तो खुद की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस बनाई। हालांकि उनके बड़े बेटे चंद्रमोहन कांग्रेस की सरकार में उप-मुख्यमंत्री बने रहे और उनकी पार्टी भी कोई कमाल नहीं दिखा पाई।   

पारिवारिक वर्चस्व और उतार-चढ़ाव

जनता पार्टी, भारतीय लोकदल में रहते कांग्रेस विरोधी राजनीति की हरियाणा में धुरी बने देवीलाल के बेटे ओमप्रकाश चौटाला ने 1998 में इनेलो का गठन किया। देवीलाल के जीवित रहते ही उनके चार बेटों प्रताप चौटाला, ओमप्रकाश चौटाला, रणजीत सिंह और जगदीश चौटाला में राजनीतिक उत्तराधिकार को लेकर लड़ाई शुरू हो गई थी। बाजी ओमप्रकाश चौटाला के हाथ लगी। वे चार बार सीएम बने। तीन बार तो इस कुर्सी तक वे 1989-1991 के बीच पहुंचे। इसमें से एक बार छह और एक दफे 16 दिनों तक ही सीएम की कुर्सी पर रह सके। बार-बार सीएम बनने और हटने को लेकर भी वे काफी चर्चा में रहे। हालांकि चौथी बार 1999 में सीएम बनने पर वे अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल रहे। उनके भाई प्रताप चौटाला एक बार विधायक बने और रणजीत सिंह कांग्रेस की राजनीति करते हुए सांसद बने। जगदीश चौटाला कुछ खास नहीं कर पाए। इनके बच्चों के बीच वर्चस्व की लड़ाई अब भी कायम है। अब ओमप्रकाश चौटाला के बेटों अजय और अभय के बीच चल रही है। ओमप्रकाश चौटाला के राजनीति में सक्रिय रहते उनके दोनों बेटे अजय चौटाला और अभय चौटाला विरासत को लेकर कभी सीधे तौर पर आमने-सामने नहीं हुए। लेकिन, अजय चौटाला के सांसद बेटे दुष्यंत चौटाला और उनके भाई अभय चौटाला के बीच वर्चस्व की लड़ाई से पार्टी दो फाड़ हो चुकी है। चाचा-भतीजे की इस लड़ाई में ओमप्रकाश चौटाला छोटे बेटे अभय चौटाला और पोते करण तथा अर्जुन के साथ हैं। वहीं, अजय अपने बेटों दुष्यंत और दिग्विजय के साथ खड़े हैं।

बंसीलाल का परिवार   

पूर्व मुख्यमंत्री बंसीलाल भी हरियाणा की राजनीति में बड़े नाम रहे हैं। वे तीन बार सीएम और रक्षा मंत्री रहे। उनकी राजनीतिक हैसियत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1975 में इंदिरा गांधी के कैबिनेट में शामिल होने के लिए जब उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया, तो कुर्सी अपने विश्वस्त बनारसी दास गुप्ता को सौंप दी और राज्य की राजनीति पर पकड़ बनाए रखी। लेकिन दबंग बंसीलाल के वारिस राजनीति में वैसा दबदबा कायम नहीं कर पाए। उनके बेटे रणबीर महेंद्रा और सुरेंद्र सिंह ने अलग-अलग राजनीति की। दिवंगत सुरेंद्र सिंह की पत्नी किरण चौधरी विधायक दल की नेता होने के कारण कांग्रेस की राजनीति में अच्छा-खासा दखल रखती हैं। किरण चौधरी की बेटी श्रुति चौधरी भिवानी-महेंद्रगढ़ से सांसद रह चुकी हैं। रणबीर महेंद्रा सक्रिय राजनीति से बाहर हो चुके हैं। कांग्रेस से विधायक रह चुके बंसीलाल के दामाद सोमवीर सिंह भी अपनी अलग राजनीतिक पहचान बनाने में लगे हैं। पर बंसीलाल जैसा असर अब तक कोई नहीं छोड़ पाया है।

कांग्रेस में भजनलाल के अपने

पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल का परिवार भी कई बार राजनीतिक कलह देख चुका है। भजनलाल के निधन के बाद उनके बेटे कुलदीप बिश्नोई ने हरियाणा जनहित कांग्रेस (हजकां) बनाई। लेकिन, उनके बड़े भाई चंद्रमोहन हुड्डा सरकार के पहले कार्यकाल में उप मुख्यमंत्री रहे। हजकां के कांग्रेस में विलय के बाद चंद्रमोहन और कुलदीप अब इकट्ठे राजनीति कर रहे हैं। दोनों अपनी अगली पीढ़ी को सियासी मैदान में आगे बढ़ाने में जुटे हैं। कुलदीप बिश्नोई की पत्नी रेणुका बिश्नोई भी विधायक के तौर पर राजनीति में पैठ बना चुकी हैं। विरासत में मिली सियासत के सवाल पर कुलदीप बिश्नोई ने आउटलुक को बताया, “आदमपुर और हिसार मेरे पिता भजनलाल और मां जसमा देवी के िलए केवल चुनावी हलके नहीं थे। वहां के लोग हमारे परिवार के सदस्यों की तरह हैं।” उन्होंने बताया कि इलाके की जनता से उनके पिता के जो रिश्ते थे उसे केंद्र में रखकर वे राजनीति कर रहे हैं।

सियासी पिच पर हुड्डा फैमिली 

दस साल तक मुख्यमंत्री रहे हुड्डा ने ‘लाल तिकड़ी’ की तर्ज पर ही राजनीतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक बढ़ाया है। विदेश से नौकरी छुड़वाकर बेटे दीपेंद्र हुड्डा को सांसद बनवाया। सियासी पारिवारिक पृष्ठभूमि के सवाल पर सांसद दीपेंद्र हुड्डा ने आउटलुक को बताया, “पहली बार चुनाव लड़ते वक्त इसका फायदा मिल सकता है। लेकिन, सियासत में बने रहने के लिए जनता से व्यक्तिगत जुड़ाव और काम की अहमियत अधिक है।”  

अहिरवाल सियासत के अगुआ

पारिवारिक सियासत को आगे बढ़ाने में पूर्व मुख्यमंत्री राव बीरेंद्र सिंह के परिजन भी सक्रिय है। अहिरवाल की सियासत में पूर्व मुख्यमंत्री राव बीरेंद्र सिंह की विरासत को चार दशक तक कांग्रेस में रहकर आगे बढ़ाने वाले उनके तीन बेटों में सबसे बड़े केंद्रीय मंत्री राव इंद्रजीत ने 2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा। राव इंद्रजीत के छोटे भाई यादवेंद्र और अजीत अभी भी कांग्रेस में हैं। भाजपा में शामिल होने से पहले राव इंद्रजीत सिंह ने अपनी सियासत को आगे बढ़ाने के लिए गठित की गई क्षेत्रीय पार्टी के मुखिया के तौर पर बेटी आरती राव को आगे किया था। आगामी चुनावों में इस पार्टी के फिर से सक्रिय होने की चर्चा है।

सर छोटू राम की विरासत

सर छोटू राम जैसे कद्दावर जाट नेता के नाती केंद्रीय मंत्री चौधरी बीरेंद्र सिंह अस्सी के दशक में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे। उस समय हुड्डा रोहतक जिला कांग्रेस के अध्यक्ष थे। लगभग चार दशक तक कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय रहे बीरेंद्र सिंह अपनी अनदेखी से आहत होकर 2014 में भाजपा में शामिल हो गए और पहली बार केंद्रीय मंत्री बने। उनकी पत्नी स्नेहलता भी 2014 में भाजपा के टिकट पर पहली बार विधायक बनीं। अब चर्चा है कि बीरेंद्र सिंह के आइएएस बेटे बिजेंद्र सिंह भाजपा के टिकट पर हिसार से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं।

इनके अलावा, बंसीलाल की हविपा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे स्टील उद्योगपति ओम प्रकाश जिंदल की पत्नी सावित्री जिंदल हुड्डा सरकार में कैबिनेट मंत्री रहीं। उनके बेटे नवीन जिंदल कुरुक्षेत्र से कांग्रेस सांसद रहे हैं। 2014 में कांग्रेस के हरमोहिंदर सिंह चट्ठा के बेटे मंदीप सिंह, राव धर्मपाल के बेटे विरेंदर सिंह, बलबीर पाल शाह के भाई विरेंदर पाल शाह, फूल चंद मौलाना के बेटे वरुण चौधरी और केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज की बहन वंदना शर्मा ने चुनाव लड़ा था।

हरियाणा की राजनीति में ‘लाल तिकड़ी’ का दौर भले खत्म हो गया हो लेकिन राज्य की सियासत में परिवारों का दखल अब भी बना हुआ है। इन परिवारों में उत्तराधिकार को लेकर न तो खटपट नई है और न ही इसके कारण नए समीकरणों का बनना। यही कारण है कि आगामी चुनावों में भी ज्यादातर टिकट पारिवारिक सियासी पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर बंटने की ही संभावना है, जो बताती है कि हरियाणा की राजनीति में वंशवाद की जड़ें कितने गहरे तक धंसी हैं। 

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