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20 मार्च 2023 · MAR 20 , 2023

आवरण कथा/मेडिकल घोटाला: चुनावी फिजा में व्यापम की वापसी

शिकायत के आठ साल बाद व्यापम घोटाले में हुई एक एफआइआर और गिरफ्तारियों के राजनीतिक आशय
फर्जीवाड़े का आरोपः मध्य प्रदेश का व्यापम कार्यालय

मध्य प्रदेश में हुए व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले को सामने आए दस साल पूरे हो रहे हैं लेकिन प्याज के छिलकों की तरह इसकी परतें आए दिन खुलती जा रही हैं। सीबीआइ जांच की फाइल बंद होने के बावजूद हाल ही में एसटीएफ द्वारा की गई तीन व्यक्तियों की गिरफ्तारी बताती है कि राज्य में चुनाव करीब हैं। वैसे तो नब्बे के दशक से ही राज्य की भर्तियों और प्रवेश परीक्षाओं में घोटाले की खबरें सामने आती रही थीं। लोक सेवाओं के लिए ली जाने वाली सरकारी परीक्षाओं में घोटाले के संबंध में सबसे पहली एफआइआर 2000 में छतरपुर जिले में और सात एफआइआर 2004 में खंडवा में दर्ज की गईं थीं। 2009 तक इन्हें स्वतंत्र और छिटपुट उद्घाटनों के रूप में ही लिया जाता रहा। तब इस बात की कल्पना नहीं की गई थी कि यह किसी संगठित गिरोह का काम हो सकता है, जिसे राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। 2009 में पहली बार मेडिकल की परीक्षाओं में कई शिकायतें आईं और राज्य सरकार ने इसकी जांच के लिए एक कमेटी गठित कर दी। कमेटी ने 2011 में अपनी रिपोर्ट जारी की जिसके बाद 100 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। हालांकि सजा किसी को भी नहीं हो सकी क्योंकि ज्यादातर आरोपी संदिग्ध परिस्थितियों में हिरासत में मारे गए या फिर जमानत पर बाहर आ गए।

व्यापम घोटाले का व्यापक आकार आज से दस साल पहले 2013 में इंदौर में पहली बार खुलकर सामने आया, जब शहर के अलग-अलग होटलों से 6 और 7 जुलाई की दरम्यानी रात 20 ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया, जो 7 जुलाई को होने वाले प्री-मेडिकल टेस्ट में अभ्यर्थियों की जगह परीक्षा देने के लिए आए थे। पकड़े गए लोगों से पूछताछ के आधार पर हफ्ते भर बाद गिरोह के सरगना जगदीश सागर की 13 जुलाई को मुंबई से गिरफ्तारी हुई और उसके पास से 317 अभ्यर्थियों के नाम वाली एक सूची बरामद हुई। इसके बाद 26 अगस्त 2013 को राज्य सरकार ने एक स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) गठित की। एसटीएफ की जांच में तमाम नेताओं, नौकरशाहों, व्यापम बोर्ड के अफसरों, गिरोहों, दलालों और अभ्यर्थियों और उनके माता-पिता को आरोपी बनाया गया।

जून 2015 आते-आते 2000 से ज्यादा लोगों को इस घोटाले में गिरफ्तार किया गया। इनमें राज्य के पूर्व शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा से लेकर सौ से ज्यादा नेता थे। जुलाई 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इस घोटाले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को सौंप दी। व्यापम को न सिर्फ मेडिकल बल्कि अन्य सरकारी परीक्षाओं का सबसे बड़ा घोटाला माना जाता है क्योंकि इसकी जांच के दौरान बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हुई। 2015 में एसटीएफ ने जबलपुर हाइकोर्ट को एक सूची सौंपी थी, जिसके मुताबिक 23 व्यक्तियों की अस्वाभाविक मौत हुई थी। एसटीएफ के मुताबिक इनमें से ज्यादातर मौतें एसटीएफ के पास जांच आने से पहले की थीं। जुलाई 2013 में मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक तब तक 40 से ज्यादा लोग इस घोटाले के चक्कर में मारे जा चुके थे। उच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआइटी) के मुताबिक 25 से 30 वर्ष की उम्र के बीच 32 ऐसे व्यक्ति 2012 के बाद से जांच के दौरान मृत पाए गए जो, ‘घोटालेबाज’ थे। एसटीएफ और एसआइटी की सूची मिलाकर ऐसे 37 व्यक्तियों के नाम सार्वजनिक हैं, जिनकी संदिग्ध  परिस्थितियों में मौत का दावा किया जाता रहा है।

इस मामले में 13 फरवरी 2017 को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। अपने 83 पन्ने के फैसले में अदालत ने 634 डॉक्टरों की डिग्री रद्द कर दी और अनैतिक व्यवहार और धोखाधड़ी के लिए छात्रों को ही दोषी ठहरा दिया।

जांच के दौरान राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर भी उंगली उठी थी। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने एसआइटी के समक्ष 15 पन्ने का एक हलफनामा देते हुए आरोप लगाया था कि जांचकर्ता मुख्यमंत्री को बचा रहे हैं। इससे पहले 2014 में गिरफ्तार किए गए एसटीएफ के एक आइटी कंसल्टेंट ने दावा किया था कि उसे मुख्यमंत्री चौहान की घोटाले में भूमिका को सामने लाने के बदले में प्रताड़ित किया जा रहा है। ये तमाम आरोप और दिग्विजय सिंह का हलफनामा उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति खानविलकर ने सिरे से खारिज कर दिए थे।

सीबीआइ ने भले ही अपनी जांच बंद कर दी लेकिन व्यापम की आग अब तक बुझी नहीं है। सीबीआइ ने 2015 से 2020 के बीच 155 मुकदमों के आधार पर 3500 से ज्यादा आरोपितों को अपनी चार्जशीट का हिस्सा बनाया था और मामले की फाइल बंद कर दी थी। एसटीएफ अब तक ऐसी शिकायतों की जांच कर रही है, जो सीबीआइ ने संज्ञान में नहीं ली थीं। इन्हीं में एक शिकायत पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह द्वारा 2014 में की गई थी, जिसमें कुछ भाजपा नेताओं को घोटाले का लाभार्थी बताया गया था। आश्चर्यजनक रूप से इस शिकायत को एफआइआर में तब्दील होने में आठ साल लग गए।

2022 के दिसंबर में 6 तारीख को एसटीएफ ने दिग्विजय की शिकायत के आधार पर आठ लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया जिसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी में खलबली मच गई। इतने दिन बाद आखिर ऐसा कैसे मुमकिन हो सका। इस मामले में एसटीएफ ने जनवरी 2023 के अंत में तीन व्यक्तियों को गिरफ्तार किया। यह व्यापम के तीन दशक पुराने सिलसिले में हुई ताजा गिरफ्तारी है। चूंकि एफआइआर में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं की ‘प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संलिप्तता’ का जिक्र है, इसलिए अटकलें लगाई जा रही हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सियासी वजहों से भाजपा के कुछ नेताओं को निपटाने की मंशा से दिग्विजय सिंह की शिकायत को झाड़-पोंछ कर बंद बक्से में से निकाल कर फिर जिंदा किया गया है। 

मंशा चाहे जो हो, लेकिन जब एक पूर्व मुख्यमंत्री की शिकायत आठ साल बाद एफआइआर में बदले, तो कल्पना ही की जा सकती है कि बीते दस वर्षों के दौरान उन लोगों का क्या हाल हुआ होगा जिन्होंने इस घोटाले को सामने लाने के लिए जान की बाजी लगाई। ऐसे साहसी लोगों में सबसे चर्चित नाम डॉ. आनंद राय, अजय दुबे और आशीष चतुर्वेदी के हैं, जो आज तक घोटाले को उजागर करने की सजा भोग रहे हैं। राय को नवंबर 2022 में गिरफ्तार किया गया था। दो महीने बाद राय को बड़ी मशक्कत के बाद सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली। पिछले दो साल में दो विभागीय जांच और चार एफआइआर से त्रस्त डॉ. राय दोबारा सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुंचे हैं। उन्होंने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है कि उन्हें केंद्रीय एजेंसियों द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाए क्योंकि उन्हें राज्य सरकार और प्रशासन से जान का खतरा है। इसी तरह आशीष चतुर्वेदी भी महीनों दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में जिंदगी और मौत के बीच झूलते रहे हैं। लेकिन इसी साल होने वाले विधानसभा चुनाव के मद्देनजर फिर मुद्दा गरम है।

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