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सत्ता, साहस और चीख

सत्ता का चरित्र हमेशा एक जैसा रहता है, उसका हुलिया, रंग-रूप और चाल-ढाल भले ही कुछ बदल जाए
विमर्श

कुलदीप कुमार

 

“कविता न होगी साहस न होगा

एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी

और चीख न होगी”

नौ दिसंबर को हिंदी के अप्रतिम कवि रघुवीर सहाय का जन्मदिन था। कवि मित्र असद जैदी ने उनकी ये पंक्तियां याद दिला दीं। इन्हीं के साथ उनकी प्रसिद्ध कविता ‘लोग भूल गए हैं’ की ये पंक्तियां भी याद आ गईं।

“आज के समाज का मानस यही है तुम कहते हो इस कविता में

बगैर यह जाने कि तुम कितना इस समाज को जानते हो

कितना कम जानते हो तुम उस डर के कारण को

आज की संस्कृति का जो मूल स्रोत है”

वर्ष 2019 समाप्त होने को है और चारों ओर चीखें ही चीखें हैं, डर ही डर है, ताकत ही ताकत है। लेकिन संतोष की बात यह है कि साहस भी है। यह साहस उन युवा प्रदर्शनकारियों की आंखों में और आसमान की तरफ उठी मुट्ठियों में नजर आ रहा है जो अन्याय के विरोध में सड़कों पर पुलिस के डंडे खा रहे हैं। जब तक यह साहस बचा है, तब तक लोग भूल नहीं सकेंगे कि वे एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं, भले ही वर्तमान सत्ता उनकी नागरिकता को धर्म के आधार पर परिभाषित करने में जी-जान से जुटी हो। उनकी यह चेतना ही दूसरों को भी साहस प्रदान करेगी।

सत्ता का चरित्र हमेशा एक जैसा रहता है। उसका हुलिया, रंग-रूप और चाल-ढाल भले ही कुछ बदल जाए। पिछले दशकों में शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में सरकारी खर्च लगातार कम किया गया और इन क्षेत्रों में निजी उद्योग को लगातार बढ़ावा दिया गया। यह काम कमोबेश सभी सरकारों ने किया, भले ही उनका सार्वजनिक वादा और दावा गरीबों का हितसाधन रहा हो। आज सरकारी स्कूल और अस्पताल में लोग मजबूरी में ही जाते हैं। जो खर्च कर सकते हैं, वे निजी स्कूलों और अस्पतालों की राह लेते हैं और गरीब सिर्फ ठंडी सांस भरकर खुद को किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं। हालांकि, महात्मा गांधी ने बुनियादी शिक्षा पर जोर दिया था, लेकिन कांग्रेस ने भी उच्च शिक्षा पर ही ध्यान दिया। निजी विश्वविद्यालयों और अस्पतालों का बोलबाला कांग्रेस के राज में ही शुरू हुआ।

वर्तमान सत्ताधारियों ने तो एक सुचिंतित नीति के तहत पूरे देश में बुद्धिविरोधी और ज्ञानविरोधी माहौल बनाने का अभियान छेड़ा हुआ है। केंद्र सरकार और राज्य सरकारों में आसीन उनके प्रतिनिधि और हिंदुत्व के अलमबरदार नियमित रूप से इस आशय के बयान देते रहते हैं कि गाय के गोबर से रेडियोधर्मिता का असर नहीं होता और परमाणु हमले की सूरत में वह बचा लेगा, गाय जब सांस लेती है तो उसके भीतर ऑक्सीजन ही जाती है और वही बाहर आती है, गाय के गोबर में सोना होता है और प्राचीन काल में भारत के पास ऐसा उन्नत विज्ञान और तकनीक थी कि वह एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जा सकने वाले अंतरिक्षयान बनाता था। इतिहास के पुनर्लेखन का कार्यक्रम इस हद तक विवेकहीनता का शिकार हो चुका है कि जो घटना कई सौ साल पहले घट चुकी है, उसे भी स्वाभिमान के नाम पर बदला जा रहा है। हल्दीघाटी में मुगल सम्राट अकबर की सेना को नहीं, महाराणा प्रताप को जीतते दिखाया जाना और ताजमहल को बार-बार हिंदू मंदिर बताना इसी अभियान का अंग है।

धर्म के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप का विभाजन हुआ, यह तो सही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि जहां पाकिस्तान की आधारशिला इस्लाम पर रखी गई और स्वभाव से सेकुलर माने जाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना ने अंत तक वहां इस्लामी कानून और जीवनमूल्यों को लागू करने की बात कही, वहीं भारत को धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक संविधान के तहत ऐसा देश बनाने का संकल्प लिया गया जहां सभी धर्मों, समुदायों, भाषाभाषियों और संस्कृतियों को समान अधिकार प्राप्त हो और खुल कर फलने-फूलने का अवसर मिले। लेकिन इसी संविधान की शपथ लेकर सत्ता संभालने वाले इस संकल्प को भूलकर आज भारतीय नागरिकता को धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं और वह सफल होती भी दीख रही है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के अन्य श्रेष्ठ संस्थानों पर हो रहा हमला इसी बुद्धिविरोधी, ज्ञानविरोधी और विवेकविरोधी अभियान का अंग है। वह उस अभियान का अंग भी है जिसके तहत इन संस्थानों का निजीकरण किया जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे नवरत्नों में गिनी जाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का किया जा रहा है। युवा छात्र-छात्राएं सस्ती शिक्षा के अधिकार और शिक्षा के धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक चरित्र की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। युवाओं में इस वजह से भी भारी रोष है, क्योंकि चारों तरफ से लगातार महिलाओं के साथ बलात्कार और अन्य तरह के उत्पीड़न की खबरें आ रही हैं। समाज के धनी और वर्चस्वशाली लोगों के पक्ष में सत्ता-प्रतिष्ठान भी खड़ा नजर आता है। देश का युवा गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी और सांप्रदायिकता से आजादी चाहता है। उसका नारा है, “आजादी।” ऐसे में रघुवीर सहाय की कविता “आजादी” का स्मरण हो आना स्वाभाविक ही है।

“आज वही कफन ढके चेहरे हैं एक साथ रहने के

बचे-खुचे कुछ प्रमाण और इन्हें जो याद रख नहीं सकते हैं

वे ही समाज पर राज कर रहे हैं

चेहरे के बिना लोग

कल किसी और बड़े देश के गुलाम हो जाएंगे

हम अपने देश के उजाड़ों में खोजते रहेंगे अपना चेहरा

आजादी!”

 

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं, राजनीति और कला-संस्कृति पर लिखते हैं)

 

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