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पुलिस सुधार/नजरियाः जनता की हो पुलिस

लोकतंत्र की रक्षा और देश में अमन-चैन के लिए पुलिस को नेताओं की सलामी से निजात दिलाना होगा
देश में पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है

पुलिस संबंधी समाचार जब-तब सुर्खियों में आते रहते हैं। दुर्भाग्य से जब पुलिस से कोई बड़ी गलती हो जाती है और उस पर संपादकीय लिखे जाते हैं, केवल तभी पुलिस सुधार की चर्चा होती है। घटना पर जब समय की धूल जम जाती है, तो लोग सुधार की बात भूल जाते हैं और काम पूर्ववत चलता रहता है।

पुलिसकर्मी हर वर्ष 22 सितंबर को ‘पुलिस सुधार दिवस’ मनाते हैं। इसी दिन 16 वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में पुलिस की कार्यप्रणाली में परिवर्तन के लिए कुछ निर्देश दिए थे। इस संबंध में एक जनहित याचिका 1996 में दायर की गई थी। दस वर्षों के संघर्ष के बाद 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिए थे, इस तरह कुल मिलाकर 26 वर्ष बीत चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद आशा जागी थी कि पुलिस अब जनता की मित्र के रूप में काम करेगी और देश के विधि और विधान को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए हर परिस्थिति में कानून का पालन करेगी। दुर्भाग्य है कि सभी पार्टियों के नेता और ब्यूरोक्रेसी पुलिस में सुधार नहीं चाहते। उन्हें ऐसा लगता है कि अगर पुलिस को स्वायत्तता मिल गई तो उनका पुलिस पर नियंत्रण समाप्त हो जाएगा और उसके द्वारा जो वे मनमाना कार्य समय-समय पर कराते हैं, वह नहीं हो पाएगा।

जमीनी हकीकत आज भी वही है, जो 16 साल पहले थी। कागज पर प्रदेशों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुपालन का स्वांग अवश्य रचा है, लेकिन जैसा कि जस्टिस टॉमस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, उन्हें पुलिस सुधार विषय पर राज्य सरकारों की उदासीनता से बड़ी निराशा हुई। राज्य सरकारें पुलिस पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती हैं। सवाल यह है कि क्या अब बुद्धिजीवी वर्ग हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाए और यह मान ले कि पुलिस में कोई परिवर्तन नहीं होगा और यह विभाग जैसा ब्रिटिश सरकार के जमाने में चलता था, वैसा ही चलता रहेगा?

पुलिस सुधार केवल पुलिस विभाग से संबंधित नहीं है, पुलिस की कार्यक्षमता अनेक क्षेत्रों को प्रभावित करती है। यहां मैं तीन ऐसे मुख्य बिंदुओं का उल्लेख करना चाहूंगा जिनके कारण पुलिस सुधार न केवल अपेक्षित बल्कि अनिवार्य है। देश में आंतरिक सुरक्षा की समस्या अत्यंत गंभीर है और यह बड़े खेद का विषय है कि ये समस्याएं कई दशकों से चली जा रही हैं। कश्मीर की समस्या करीब 30 वर्षों से हमारे लिए सिरदर्द बनी हुई है, माओवादियों का विद्रोह करीब 50 साल से चल रहा है और उत्तर-पूर्व में कई जनजातियां पिछले करीब 60 वर्षों से अलग-अलग क्षेत्रों में सशस्त्र विरोध कर रही हैं। ऐसा नहीं कि इन समस्याओं को सुलझाया नहीं जा सकता। दुर्भाग्य से, हमारे देश में आंतरिक सुरक्षा की समस्याओं से निपटने के लिए कोई दूरगामी नीति नहीं है। जो भी सरकार आती है वह अपनी समझ के अनुसार इन समस्याओं से निपटने की नीति बनाती है। फलस्वरूप कभी एक कदम आगे होता है तो कभी दो कदम पीछे और समस्या मूल रूप से बनी रहती है। इसके अलावा प्रदेशों में पुलिस की हालत खस्ता है, जनशक्ति की कमी है, गाड़ियों का अभाव है, संचार व्यवस्था आधुनिक नहीं है, खुफिया तंत्र कमजोर है और सबसे बड़ी बात लड़ने की इच्छाशक्ति नहीं है। प्रदेश पुलिस का सुधार हो जाए, उसे आवश्यक संसाधन उपलब्ध करा दिए जाएं, नेतृत्व प्रभावशाली हो और बल में लड़ने की इच्छाशक्ति जागृत हो जाए तो कोई कारण नहीं कि इन समस्याओं पर हम हावी न हो सकें।

स्वस्थ लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि पुलिस में सुधार हो। हमें इस बात का गर्व है कि भारत में दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी है। लोगों को आश्चर्य होता है कि हर चुनाव के बाद कैसे शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता का हस्तांतरण हो जाता है, लेकिन दुर्भाग्य से इस डेमोक्रेसी में दीमक लग रही है। एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार, पार्लियामेंट में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2004 में उनका प्रतिशत 24 था, जो 2009 में बढ़कर 30 हो गया, 2014 में 34 और 2019 के चुनाव में बढ़कर 43 प्रतिशत हो गया। यह बड़ी चिंता का विषय है। जिस पार्लियामेंट में इतने व्यक्ति आपराधिक पृष्ठभूमि के होंगे, उससे क्या आशा की जा सकती है, सोचने का विषय है। पुलिस के लिए यह परेशानी हो जाती है कि जिन लोगों को वह सलाखों के पीछे देखना चाहेगी, उन्हें उसे सेल्यूट करना पड़ता है। पुलिस को अगर बाहरी दबाव से मुक्त कर दिया जाए तो वह ऐसे तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई कर सकेगी और देश में लोकतंत्र शायद बच जाएगा।

ऐसे समय में जबकि अधिकतर देश महामारी और यूक्रेन युद्ध के कारण आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं, हमारा देश फिर भी तरक्की कर रहा है, लेकिन हम यह नजरअंदाज कर देते हैं कि अगर देश में शांति व्यवस्था अच्छी होती तो शायद हमारी प्रगति और तेजी से होती और हम आज सुपरपावर होते। एक अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक ‘इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स ऐंड पीस’ के अनुसार 2020 में  हमारी कुल जीडीपी के 7 प्रतिशत का नुकसान केवल इसलिए हुआ कि देश के अनेक क्षेत्रों में हिंसक घटनाएं होती रहती हैं जो अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। आर्थिक प्रगति तभी होती है जब देश में शांति व्यवस्था अच्छी हो और इसके लिए पुलिस का प्रोफेशनल होना आवश्यक है।

संक्षेप में, आंतरिक सुरक्षा संबंधी समस्याओं से प्रभावशाली ढंग से निपटने, देश में स्वस्थ लोकतंत्र बचाए रखने और आर्थिक प्रगति की तीव्रता बहाल करने के लिए पुलिस सुधार का कोई विकल्प नहीं है। भारत को महाशक्ति बनना है, तो देश में पुलिस व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है। वर्तमान में शासकों की पुलिस है, उसे जनता की पुलिस के रूप में परिवर्तित होना पड़ेगा।

(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस, असम पुलिस और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक थे। विचार निजी हैं)

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