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“न सितारे गर्दिश में होंगे, न कंटेंट”

स्त्री-केंद्रित सिनेमा में विद्या बालन ने अपनी खास पहचान बनाई है
शकुंतला देवी की भूमिका विद्या बालन ने निभाई है

स्त्री-केंद्रित सिनेमा में विद्या बालन ने अपनी खास पहचान बनाई है। 2011 में उनकी हिट फिल्म द डर्टी पिक्चर के बाद उनके खाते में कई व्यावसायिक सफलताएं हैं। नो वन किल्ड जेसिका (2011), कहानी (2012) से लेकर तुम्हारी सुलु (2017) और मिशन मंगल (2019) तक उन्होंने कई चर्चित फिल्में की हैं। 41 वर्षीय बालन अब दुनिया भर में मानव कंप्यूटर नाम से चर्चित शकुंतला देवी (1929-2013) की बॉयोपिक में मुख्य किरदार निभा रही हैं। यह फिल्म 31 जुलाई को अमेजन प्राइम वीडियो पर रिलीज होगी। राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता इस अभिनेत्री ने गिरिधर झा से अपनी नई फिल्म, करिअर, बॉलीवुड में मेहनताने में महिला अभिनेत्रियों के साथ भेदभाव जैसे तमाम मुद्दों पर खुलकर बात की। कुछ अंश:

 

आप शकुंतला देवी की इसी नाम से आ रही बॉयोपिक में किरदार निभा रही हैं, अपने स्कूल के दिनों में आप गणित की कैसी छात्रा रही हैं?

स्कूल के दिनों में मुझे गणित हल करने में मजा आता था। दसवीं के बाद मैंने गणित नहीं लिया, मैं आर्ट्स की छात्रा थी। उसके बाद गणित की आदत छूट गई। मुझे खुशी है कि शकुंतला देवी के बहाने मैंने नंबर्स (संख्याओं) से नाता फिर खोज लिया है। 

आप जिस इंडस्ट्री में हैं, उसमें नंबर वैसे भी महत्वपूर्ण हैं...

(हंसते हुए) जिंदगी में भी। आपको नहीं लगता कि जिंदगी में भी संख्याएं महत्वपूर्ण होती हैं, हर चीज में गणित है।

ऐसी महिला का किरदार निभाना कैसा रहा, जिसे अपने जीवनकाल में ही मानव कंप्यूटरकी उपाधि मिल गई थी?

यह बहुत ही रोमांचक पर चुनौतीपूर्ण था। दुनिया बेशक शकुंतला देवी को मानव कंप्यूटर के रूप में जानती है, लेकिन फिल्म में उन्हें न केवल गणितीय प्रतिभा के रूप में, बल्कि एक महिला, मां और एक व्यक्ति के रूप में उनके जीवन को दिखाने की कोशिश की गई है। यही सबसे रोमांचकारी था। गणित वाला हिस्सा कठिन था पर मैंने इसका भी आनंद उठाया।

स्क्रिप्ट पढ़ते वक्त आपको शकुंतला देवी के व्यक्तित्व के कई अज्ञात पहलुओं के बारे में पता चला होगा। सबसे खास बात क्या थी, जिसने आपको इस बायोपिक के लिए प्रेरित किया?

वे जीवन का हर पल पूरी तरह से जीती थीं। खुद को कभी महिला के रूप में परिभाषित नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने खुद को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करना चुना, जिसे नंबर्स का दुर्लभ उपहार मिला था। उन्होंने लड़की या महिला होने की सामाजिक सीमाओं को कभी, किसी तरह से बाधा नहीं बनने दिया। उन्होंने जीवन को ऐसे जिया जैसे हर पल आखिरी पल था। उन्होंने वह सब किया जो करना चाहती थीं। वे गणितीय प्रतिभा या मानव कंप्यूटर थीं, जिसकी वजह से उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। उन्होंने दुनिया भर में यात्राएं कीं और 1970 के दशक में समलैंगिकता पर तब किताब लिखी, जब लोग समलैंगिकता शब्द तक बोलने से डरते थे। उन्होंने पहेलियों और पाक कला पर भी किताब लिखी। वह राजनीतिज्ञ और ज्योतिषी भी थीं। उन्हें खाना बनाना और खाना, दोनों बेहद पसंद था। वे ड्रिंक का आनंद लेती थीं और कपड़ों की शौकीन थीं। जब मैंने यह सब सुना, तो कहा वाह! आम तौर पर जब हम गणित के बारे में बात करते हैं, तो दिमाग में ऐसे व्यक्ति की छवि आती है जो शायद थोड़े बोरिंग होते होंगे। ज्यादातर लोगों का गणित से ऐसा ही नाता रहा है लेकिन उन्होंने इसे बदल दिया। यही मेरे लिए सबसे रोमांचक था। उनकी कहानी दर्शक उनकी बेटी के नजरिए से देखेंगे, जिसके साथ उनका रिश्ता आसान नहीं था।

कामकाजी महिलाओं को वास्तविक जीवन में दोहरी भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं। एक महिला और अभिनेत्री के रूप में क्या आप शकुंतला देवी के जीवन से खुद को जोड़ पाती हैं?

बिलकुल। अपना जीवन मैं अपनी शर्तों पर जीने की कोशिश करती हूं, मेरा पालन-पोषण इसी ढंग से हुआ। इसलिए मैं शकुंतला देवी के साथ खुद को जोड़ सकती हूं और उनसे प्रेरणा पाती हूं। मुझे लगता है कि यदि वह पचास, साठ और सत्तर के दशक में ऐसा जीवन जीती थीं, जैसा वह चाहती थीं तो आज जब स्थितियां इतनी बदल गई हैं, हमारे पास कोई कारण नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए न लड़ें या अपने सपनों को हासिल न करें। इसलिए निश्चित रूप से मैं खुद को उनसे जोड़ पाती हूं। मुझे लगता है, अधिकांश महिलाएं उनसे काफी हद तक खुद को जोड़ पाएंगी। सबसे महत्वपूर्ण है, उनसे प्रेरित होंगी।

क्या आप काल्पनिक चरित्रों की तुलना में वास्तविक जीवन वाले व्यक्ति पर आधारित बायोपिक के लिए अलग तैयारी करती हैं?

निश्चित रूप से। काल्पनिक चरित्र के साथ आप अपनी कल्पना का उपयोग करते हैं। बायोपिक के लिए आपके पास संदर्भ के लिए वास्तविक जीवन है। आप उस व्यक्ति की नकल भी नहीं कर सकते क्योंकि आप कभी वह व्यक्ति नहीं हो सकते। मैंने शकुंतला देवी की कुछ भंगिमाओं को अपनाने का प्रयास किया, लेकिन सिर्फ भाव पकड़ने के लिए। उम्मीद है ऐसा करने में मैं सक्षम हुई हूं।

आपको द डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों के साथ व्यावसायिक रूप से सफल महिला-केंद्रित सिनेमा युग की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है। आप इसका आकलन कैसे करती हैं?

इस श्रेय के लिए मैं बहुत आभारी हूं, लेकिन मुझे लगता है, हम इस बदलाव के लिए तैयार थे। हम महिलाओं की कहानियां कहने और स्क्रीन पर महिलाओं की कहानियां देखने के लिए भी तैयार थे। सबसे अच्छी बात यह है कि हम व्यक्ति के तौर पर देखे गए, सिर्फ महिला के तौर पर नहीं। हम सिर्फ अपने लिंग से परिभाषित नहीं हैं। शकुंतला देवी के मामले में भी यही है। उन्होंने खुद को पहले एक व्यक्ति के रूप में देखा, महिला के रूप में नहीं। इसलिए फिल्मों में यह बदलाव वाकई दिल से है।

बॉलीवुड वर्षों से पुरुष प्रधान रहा है। अतीत में कई महान अभिनेत्रियों को हीरो जैसा मेहनताना पाने का हक नहीं मिला। क्या आपको लगता है कि अब फिल्म उद्योग बदल गया है?

मेरा अनुभव अलग रहा है, क्योंकि लगभग 12 बरस से मैं महिला केंद्रित फिल्में कर रही हूं। मैं अपनी फिल्मों में केंद्रीय भूमिका निभाती हूं, इसलिए मुझे नहीं पता कि टिपिकल हीरो वाली फिल्मों में समान भुगतान के बारे में दूसरे अभिनेताओं को कैसा लगता है। हालांकि मुझे पता है कि जहां तक हमारी फीस का संबंध है, अभी हमें लंबा रास्ता तय करना है। यहां तक कि मेरी तरह की फिल्मों में, यदि आप उस बजट के अनुपात की तुलना करें, जो एक पुरुष अभिनेता को मिलता है, तो इसका अंतर पता चलेगा। इसके बावजूद, मैं यह ध्यान देना पसंद करती हूं कि हमने लंबा सफर तय किया है।

फिल्म उद्योग में महिलाओं की संख्या में भी बदलाव दिखता है। अब हम कई बार 50 फीसदी से ज्यादा महिला कर्मी को किसी फिल्म के सेट पर काम करते हुए देखते हैं...

बिलकुल। मुझे बहुत गर्व महसूस होता है कि शकुंतला देवी की, निर्देशक-लेखक एक महिला (अनु मेनन) हैं। निर्माताओं में से एक, छायाकार, कला निर्देशक, कॉस्ट्यूम डिजाइनर और फिल्म एडिटर सभी महिलाएं हैं। हम महिलाओं की भारी उपस्थिति वाली टीम में थे और हमने एक-दूसरे का सर्वश्रेष्ठ लाने में मदद की।

टीवी धारावाहिक हम पांच (1995) से लेकर पहली फिल्म परिणीता (2005) के बीच आपके अनुभव क्या रहे?

जब मैंने हम पांच किया था तो मैं सेंट जेवियर कॉलेज में फर्स्ट इयर में थी। जेवियर में ही पढ़ते मैंने विज्ञापन फिल्में कीं। उस वक्त मेरा फोकस इस पर नहीं था। मैंने अभिनय पर फोकस करना शुरू किया तो मुझे कई दिक्कतों का सामना करना पड़ा। मुझे दक्षिण में भी कई बार अस्वीकृत किया गया। लेकिन मुझे लगता है, यह ठीक है। शायद यही कारण है कि आज मैं चीजों की इतनी अहमियत समझती हूं।

आपने हाल ही में एक लघु फिल्म नटखट के साथ निर्माता के रूप में शुरुआत की। फिल्म उद्योग में आपके कद को देखते हुए, आप बड़े बजट वाली फिल्म आसानी से बना सकती थीं।

दरअसल मैं निर्माता बनने के बारे में नहीं सोच रही थी। नटखट (2020) को प्रोड्यूस कर रहे रॉनी स्क्रूवाला ने मुझे यह ऑफर दिया। जब वह विषय लेकर मेरे पास आए, तो मुझे यह पसंद आया। इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मेरे पारिश्रमिक का भुगतान करने के बजाय वो मेरा नाम प्रोड्यूसर क्रेडिट में डाल सकते हैं। उन्होंने कहा, “हम आपकी फीस नहीं दे सकते लेकिन उस पैसे का इस्तेमाल फिल्म बनाने में कर सकते हैं। निर्माता के रूप में नाम होने से फायदा मिलेगा।” मैंने भी कह दिया, ठीक है।

फिल्मों को सीधे डिजिटल प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीमिंग करने से क्या स्टार सिस्टम खत्म हो जाएगा और असली स्टार के रूप में एक बार फिर हमेशा के लिए कंटेंट स्थापित हो जाएगा?

हम ऐसे समय में हैं जब कंटेंट ही किंग है। लेकिन मुझे विश्वास है कि सितारें चमकते रहेंगे। दर्शक जिनकी शख्सियत और काम को पसंद करेंगे, वे सितारे बन ही जाएंगे। मुझे नहीं लगता कि यह दोनों में से किसी एक को चुनने का मामला है। संभव है, दोनों एक-दूसरे से जुड़े रहेंगे।

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