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मैदानी दांव से दुविधा

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद का चुनाव मैदानी-पहाड़ी विवाद में उलझा
पसोपेशः मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत और (नीचे) प्रदेश अध्यक्ष अजय भट्ट

उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नए अध्यक्ष का चुनाव शीघ्र होना है। इस चुनाव में पार्टी के सामने जातिगत और क्षेत्रीय संतुलन को साधने की एक बड़ी चुनौती है। हालांकि पहली बार मैदानी क्षेत्र के नेताओं की दावेदारी ने भाजपा नेतृत्व को पसोपेश में डाल दिया है। यह मांग इतनी जोरदार है कि अगर पार्टी ने परंपरागत संतुलन पर जोर नहीं दिया, तो प्रदेश अध्यक्ष का पद राज्य के किसी मैदानी नेता के हिस्से में जा सकता है।

दरअसल, राज्य के गठन के बाद से ही राज्य में दोनों प्रमुख सियासी दलों भाजपा और कांग्रेस के सामने कुमाऊं और गढ़वाल के बीच जातिगत और क्षेत्रीय संतुलन साधने की चुनौती रही है। सीधा-सा फॉर्मूला रहा है कि मुख्यमंत्री अगर गढ़वाल का ब्राह्मण है तो प्रदेश अध्यक्ष कुमाऊं का ठाकुर होगा। इसी तरह अगर विपक्ष का प्रदेश अध्यक्ष गढ़वाल का ठाकुर है तो नेता प्रतिपक्ष कुमाऊं का ब्राह्मण होगा। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दल अब तक इसी तरह संतुलन साधते रहे हैं। अहम बात यह भी रही है कि दोनों ही दलों ने अब तक पर्वतीय नेताओं को ही तरजीह दी है।

मौजूदा समय में हालात कुछ अलग-से बनते दिख रहे हैं। इस समय सत्ता पक्ष की ओर से मुख्यमंत्री का पद गढ़वाल के ठाकुर त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास और प्रदेश अध्यक्ष पद कुमाऊं के ब्राह्मण अजय भट्ट के पास है। दोनों ही पर्वतीय मूल के हैं। अब तक की परंपरा के अनुसार भाजपा को प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए कुमाऊं का ब्राह्मण चाहिए। इस बार भाजपा के लिए नए सिरे से संतुलन साधने की चुनौती है।

पहली चुनौती तो यही है कि इस समय भाजपा के पास कुमाऊं में प्रदेश अध्यक्ष के कद का कोई ब्राह्मण नेता (पर्वतीय मूल का) नहीं है। इसी का नतीजा है कि 15 दिसंबर तक होने वाले नए प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव को टाल दिया गया। अब कहा जा रहा है कि 15 जनवरी के बाद अध्यक्ष का चुनाव होगा।

इस बार खास बात यह है कि मैदानी क्षेत्र के नेताओं ने भी प्रदेश अध्यक्ष पद पर अपनी दावेदारी ठोंक दी है। प्रदेश अध्यक्ष पद की दावेदारी कर रहे मैदानी क्षेत्र के नेताओं का तर्क है कि हरिद्वार और ऊधमसिंह नगर की, मैदानी क्षेत्र की दोनों लोकसभा सीटें पर्वतीय मूल के नेताओं को दे दी गई हैं। राज्यसभा की सभी सीटें भी पर्वतीय लोगों के पास हैं। मुख्यमंत्री भी पर्वतीय हैं। कैबिनेट में महज अरविंद पांडेय (कुमाऊं) और मदन कौशिक (गढ़वाल) ही मैदानी मूल के हैं। सरकार की ओर से दिए जाने वाले ओहदों पर भी अधिकांश पर्वतीय क्षेत्र के नेता ही काबिज हैं। ये हालात उस वक्त हैं जबकि मैदानी क्षेत्र की जनसंख्या भी पर्वतीय क्षेत्र की तुलना में बहुत ज्यादा है और भाजपा के विधायकों की संख्या भी मैदानी क्षेत्र में अधिक है। साथ ही 2026 में प्रस्तावित नए परिसीमन में मैदानी क्षेत्र में विधानसभा सीटों की संख्या पांच तक और बढ़ सकती है। ये सीटें पर्वतीय क्षेत्रों से ही कम होंगी।

सूत्रों का कहना है कि भाजपा का थिंक टैंक इस मुद्दे पर शिद्दत से मंथन कर रहा है कि इन नए हालात में अध्यक्ष का पद फिर से पर्वतीय समाज को जाता है, तो क्या मैदानी क्षेत्र के लोग खुद को उपेक्षित-सा महसूस नहीं करेंगे। बताया जा रहा है कि मैदानी मूल के एक नेता ने तो संघ के वरिष्ठ पदाधिकारियों के सामने इस मुद्दे पर बेहद मुखर अंदाज में मैदानी क्षेत्र से ही प्रदेश अध्यक्ष बनाने की पुरजोर पैरवी भी की है। संघ पदाधिकारियों को बताया गया है कि मैदानी मूल के लोग किस तरह से खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं और इस बार प्रदेश अध्यक्ष पद पर मैदान का ही दावा बनता है।

हालांकि अभी तो यही दिखता है कि इस मुद्दे पर भाजपा और संघ दोनों में दुविधा है। फिलहाल अध्यक्ष पद की दौड़ में कैबिनेट मंत्री मदन कौशिक और अरविंद पांडेय, पूर्व प्रदेश प्रवक्ता विश्वास डाबर, पूर्व सांसद बलराज पासी और विधायक राजेश शुक्ला शामिल बताए जा रहे हैं। इनमें से पांडेय, पासी और शुक्ला कुमाऊं मंडल से हैं, जबकि कौशिक और डाबर गढ़वाल मंडल के मैदानी क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं।

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इस समय मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष दोनों पर्वतीय मूल के हैं। अब मैदानी नेता दावा ठोंक रहे हैं

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