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गांव से आए साहब

यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में बढ़ रहा ग्रामीण परिवेश से आए लोगों का दबदबा
मराठवाड़ा से निकले सबसे कम उम्र के आइएएस शेख अंसार अहमद

महाराष्ट्र काडर के 1983 बैच के आइएएस अधिकारी उपमन्यु चटर्जी संभवतः 80 और 90 के दशक के सर्वोत्कृष्ट सिविल सेवा अधिकारी का प्रतिमान हैं। उन जैसे कई अधिकारी 21वीं सदी में भी देखने को मिले। उपमन्यु चटर्जी ने 'द कॉलेज' (दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज के एल्युमनी इसे इसी नाम से बुलाते हैं) में पढ़ाई की थी। इस कॉलेज के अनेक छात्रों ने सिविल सेवा में जगह बनाई और संस्थान को उत्कृष्ट दर्जा दिलाया। उपमन्यु चटर्जी ने अपने उपन्यास इंग्लिश, अगस्त में प्रचलित मानसिकता को दर्शाया है। उपन्यास का मुख्य पात्र अगस्त्य सेन है। आइएएस की परीक्षा पास करने के बाद उसकी पोस्टिंग छोटे शहर में हो जाती है। यह शहर ‘देश के पिछड़े इलाके में एक छोटे से बिंदु’ की तरह है। नायक खुद को इस शहर से नहीं जोड़ पाता। शहर की रीति-नीति भी उसे मुश्किल से समझ में आती है।

देश के पिछड़े इलाकों के इन्हीं छोटे बिंदुओं से अब न सिर्फ आइएएस अधिकारी निकल रहे हैं, बल्कि सिविल सेवा परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल कर रहे हैं। मराठवाड़ा क्षेत्र के जालना जिले का शेदगांव ऐसा ही एक छोटा सा बिंदु है, जहां से अब तक का सबसे कम उम्र का आइएएस अधिकारी शेख अंसार अहमद निकला है। अहमद के पिता ऑटो रिक्शा चलाते थे और मां खेत में मजदूरी करती थीं। अहमद ने 2015 में सिर्फ 21 साल की उम्र में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा पास की थी।

अहमद अपने गृह शहर जैसी ही छोटी जगह, पश्चिम बंगाल के कूचबिहार जिले के दिनहाटा में सब डिविजनल अफसर (एसडीओ) पद पर तैनात हैं। वे बड़े आराम से स्थानीय लोगों के साथ बांग्ला में बातें करते हैं। उन्हें अक्सर इस इलाके में पैदल जाते और लोगों को मास्क पहनने का महत्व बताते हुए देखा जा सकता है। दिनहाटा से फोन पर उन्होंने आउटलुक से कहा, “बांग्ला सीखना मेरे लिए मुश्किल नहीं था। यह एक तरह से मराठी और हिंदी का मिश्रण है। मैं लोगों से कहता हूं कि वे अपनी भाषा में ही मुझसे बात करें और मैं उनकी बातें ध्यान से सुनता हूं।”

अहमद अतीत और अब तक आई मुश्किलों का जिक्र करने और खुद को शोषित दिखाने से झिझकते हैं। सच तो यह है कि उनकी पृष्ठभूमि तीन तरह से कमजोर थी। उन्होंने कहा, “एक तो मैं मुसलमान हूं। दूसरे, महाराष्ट्र के एक गरीब जिले से आता हूं और तीसरी बात, मेरा परिवार आर्थिक रूप से काफी पिछड़ा रहा है। आप जितनी तरह की परेशानियां सोच सकते हैं वह सब मैंने झेली हैं, लेकिन कभी भी सिविल सेवा में आने के लक्ष्य से डिगा नहीं।” अहमद दसवीं कक्षा में थे जब उन्होंने अफसर बनने का सपना देखा था। दरअसल उस समय उनके सबसे प्रिय शिक्षक ने राज्य की सिविल सेवा परीक्षा पास की थी और उनका नाम स्थानीय अखबार में छपा था। अहमद बताते हैं कि उन्हें स्कूल जाना अच्छा लगता था क्योंकि अपने इर्द-गिर्द फैली नकारात्मकता से बचने का यही एकमात्र रास्ता उन्हें सूझता था।

अहमद के पिता ने सिर्फ पहली कक्षा तक पढ़ाई की थी, इसलिए जब अहमद ने चौथी कक्षा पास कर ली तो उनके पिता को लगा कि बहुत पढ़ाई कर ली। बेटे का नाम स्कूल से कटवाने वाले ही थे कि एक शिक्षक ने यह कहकर उन्हें मनाया की अहमद पढ़ने में काफी तेज है और इसका भविष्य उज्जवल हो सकता है। इसके बाद परिवार ने हमेशा अहमद का साथ दिया। आइएएस अफसरों का एक और हब माने जाने वाले पुणे के फर्गुसन कॉलेज में बेटे को पढ़ाने के लिए परिवार ने अपना छोटा सा घर भी बेच दिया। रोजाना आठ से नौ घंटे पढ़ाई करने वाले अहमद ने पहले प्रयास में ही आइएएस की परीक्षा पास कर ली थी।

इस वर्ष भी हरियाणा के सोनीपत जिले के छोटे से गांव तेवड़ी के किसान परिवार के प्रदीप सिंह मलिक ने यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के आठ लाख अभ्यर्थियों में पहला स्थान हासिल किया। तीसरा स्थान हासिल करने वाली प्रतिभा वर्मा के माता-पिता उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में स्कूल टीचर हैं। 71वां रैंक हासिल करने वाली यशस्विनी बी. कर्नाटक के चिकमगलूर के निकट बनूर गांव की रहने वाली हैं और उन्होंने सातवीं कक्षा तक कन्नड़ मीडियम स्कूल में ही पढ़ाई की थी। दरअसल, दिल खुश कर देने वाली ऐसी प्रतिभाओं की गूंज समूचे देश के पिछड़े इलाकों में सुनाई दे रही है।

प्रतिष्ठित सिविल सेवा प्रशिक्षण संस्थान लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डायरेक्टर संजीव चोपड़ा पिछड़े इलाकों से आने वाले इन अभ्यर्थियों को जीटी रोड से जोड़ते हुए कहते हैं कि ये अभ्यर्थी इस रोड से दूर रहने वाले हैं। आउटलुक से बातचीत में उन्होंने कहा, “बाजार उन लोगों की सुनता है जो जीटी रोड के इर्द-गिर्द रहते हैं। सरकार इस देश में सबसे बड़ी नियोक्ता है। पिछड़े इलाकों से निकलने वाले अभ्यर्थियों का सिविल सेवा परीक्षा में पास होना सकारात्मक ट्रेंड है। ये अभ्यर्थी दून स्कूल या वेल्हम से नहीं पढ़े हैं।” चोपड़ा मानते हैं कि विविधता का यह ट्रेंड नौकरशाही को ज्यादा समावेशी, उद्योगी और खुला बनाएगा।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ विशिष्ट और प्रतिष्ठित स्कूल सिविल सेवा के नक्शे से बाहर हो रहे हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और कलकत्ता विश्वविद्यालय जैसे उच्च शिक्षण संस्थानों का प्रतिनिधित्व भी सिविल सेवा में काफी कम हुआ है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश की नौकरशाही वास्तविक अर्थों में ‘सबका प्रतिनिधित्व’ वाली बन रही है। दिल्ली की पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्र गांव के सरकारी स्कूलों और जिला कॉलेज से निकले छात्रों के सिविल सेवा परीक्षा पास करने का तहे दिल से स्वागत करती हैं। वे कहती हैं, “देश के इतिहास में यह एक महान क्षण है और इसका जश्न मनाया जाना चाहिए। विविध पृष्ठभूमि और जगहों से लोगों के आने के कारण लोक सेवा वास्तविक अर्थों में ‘लोक’ बन रही है।”

यूपीएससी के पूर्व चेयरमैन दीपक गुप्ता इस बात से सहमति जताते हुए कहते हैं, “ग्रामीण इलाकों, छोटे शहरों और संस्थानों से निकले अभ्यर्थियों का आइएएस की परीक्षा पास करने का ट्रेंड धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पहले आरोप लगता था कि प्रतिष्ठित वर्ग के लोग ही इस सेवा में जा सकते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं कह सकते।” हालांकि दीपक गुप्ता खुद सेंट स्टीफंस से निकले हैं और 1973 बैच के आइएएस अधिकारी रहे हैं। उनका मानना है कि सभी सिविल सेवाओं में आइएएस अब भी एलीट स्थान रखता है। वे कहते हैं, “आइएएस में कुछ तो बात है तभी तो हर साल 10 लाख से ज्यादा लोग सिविल सेवा की परीक्षा देते हैं और उनमें से कई अन्य सेवाओं के लिए क्वालीफाई होने के बाद भी आइएएस बनने के लिए बार-बार परीक्षा देते हैं।”

कर्नाटक की यशस्विनी बी. ने पिछले साल पहले प्रयास में ही यूपीएससी की परीक्षा पास कर ली थी। लेकिन उन्हें 293वां रैंक मिला और वे आइएएस नहीं बन पाईं। इसलिए दोबारा परीक्षा दी और इस बार उनका रैंक 71 रहा और वे आइएएस बनने में कामयाब हुईं। इस बार शीर्ष स्थान हासिल करने वाले प्रदीप कुमार का भी यह चौथा प्रयास था। पहले दो प्रयासों में वे विफल रहे और तीसरे प्रयास में उन्हें 260वां रैंक मिला। आइएएस बनने की चाह में उन्होंने 2019 में फिर परीक्षा दी और शीर्ष स्थान हासिल किया।

दरअसल सरकार के कामकाज के ढांचे में अब भी आइएएस का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है। गुप्ता के अनुसार आइएएस एक प्रतिष्ठित सेवा है जो लोगों को तरह-तरह के काम के अनुभव का मौका देती है, भले ही उसे किसी एक में विशेषज्ञता हासिल न हो। करिअर की शुरुआत से ही नेतृत्व की जगह मिल जाती है। राज्य और केंद्र में शीर्षस्थ पद पर पहुंचने की संभावना रहती है। लोक सेवा को अंजाम देने, फील्ड में लंबे समय तक काम करके वास्तविक बदलाव लाने और बाद में राष्ट्रीय योजनाओं से जुड़ी नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने का अवसर हासिल होता है।

गुप्ता के अनुसार एक समय था जब भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) को भी आइएएस के बराबर अधिकार संपन्न माना जाता था, लेकिन बहुत से अभ्यर्थी अब आइपीएस बनने से संतुष्ट नहीं हैं। वे कहते हैं, “आप अनेक आइपीएस प्रोबेशनरी अफसरों को छुट्टी लेकर आइएएस की तैयारी करते देख सकते हैं।”

आइएएस बनने की चाहत तो स्पष्ट है ही, कुछ राज्य ऐसे भी हैं जहां से दूसरे राज्यों की तुलना में ज्यादा आइएएस निकलते हैं। 2019 के आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन पुराने ट्रेंड से पता चलता है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र और बिहार ने देश को सबसे ज्यादा आइएएस दिए हैं। 2017-18 में दिल्ली इस मामले में शीर्ष राज्यों में शुमार थी और राजधानी से 17 अभ्यर्थी आइएएस चुने गए थे। यह संख्या बिहार (12) तमिलनाडु (8) और कर्नाटक (6) जैसे बड़े राज्यों की तुलना में अधिक थी।

शैलजा चंद्र इसकी वजह बताती हैं, “ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि कुछ उत्तरी राज्यों में अभी तक सामंती संस्कृति है। गांव या छोटे शहर में अब भी अधिकार का मतलब कलेक्टर होता है, जिसे सभी सलाम बजाते हैं। जाहिर है, आइएएस बनना उनके लिए बिरादरी में सबसे ऊंचा स्थान हासिल करने जैसा है। एक और कारण यह है कि इन राज्यों में दक्षिणी राज्यों जितने दूसरे मौके कम हैं। दक्षिणी राज्यों में लोगों का झुकाव आइटी की नौकरियों के प्रति ज्यादा है।” गुप्ता इसमें एक और नजरिया जोड़ते हैं। वे कहते हैं, जरूरी नहीं कि ग्रामीण और खेती वाली पृष्ठभूमि से आने वाले सब गरीब ही हों। गांव से आने वाले अनेक अभ्यर्थियों के पास काफी जमीन होती है। उनके लिए आइएएस बनना प्रतिष्ठा, अधिकार और गौरव की बात है।

पिछड़े इलाकों में रहने वालों का सिविल सेवा परीक्षा पास करना निश्चित ही स्वागत योग्य ट्रेंड है, लेकिन सिस्टम के लिहाज से देखें तो कुछ समस्याएं अब भी बरकरार हैं। यूपीएससी के इंटरव्यू पैनल में पांच साल रहने वाले एक रिटायर्ड नौकरशाह बताते हैं कि अंग्रेजी नहीं बोलने वाले अभ्यर्थियों के प्रति एक स्वाभाविक पूर्वग्रह है। उन्होंने राजस्थान के जैसलमेर जिले की सीमा पर स्थित एक गांव की महिला का उदाहरण दिया। उन्होंने बताया, “महिला के माता-पिता भीख मांग कर गुजारा करते थे। उन्होंने बेटी को स्थानीय सरकारी स्कूल में पढ़ाया था। वह पढ़ने-लिखने में अच्छी थी इसलिए एक शिक्षक ने जवाहर नवोदय विद्यालय में दाखिले के लिए उसकी सिफारिश की। इंटरव्यू के दौरान हमने देखा कि वह महिला काफी तेज थी। अपनी जानकारी और आत्मविश्वास से उसने हम सबको शर्मिंदा कर दिया। लेकिन वह धाराप्रवाह अंग्रेजी नहीं बोल सकती थी। मैं उसे आइएएस बनाने के पक्ष में था और पूरे नंबर भी दिए, लेकिन इंटरव्यू पैनल के चेयरमैन, जो एक आइएफएस अधिकारी थे, उन्हें उस महिला में ‘अफसर मटेरियल’ नहीं मिला। मैंने उस महिला के पक्ष में तर्क दिया क्योंकि मेरा मानना था कि वे एक बेहतरीन अधिकारी साबित होंगी, लेकिन चेयरमैन ने मुझसे कहा कि चिंता मत कीजिए, वह संभवतः राजस्व सेवा की अधिकारी बन जाएं।”

उक्त अधिकारी के अनुसार उस महिला के इंटरव्यू के नतीजे क्या रहे, यह नहीं मालूम। सिविल सेवा परीक्षा के कुल 2025 अंकों में 275 अंक इंटरव्यू के होते हैं। उनका मानना है कि इंटरव्यू का पूरा अनुभव किसी को भी भयभीत कर सकता है, खासकर उन्हें जो छोटे गांवों से आते हैं। धौलपुर हाउस (यूपीएससी बिल्डिंग) की भव्यता और वहां मौजूद वर्दीधारी गार्ड किसी को भी आतंकित कर सकते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कई बार नरेंद्र मोदी सरकार से सिविल सर्विस एप्टिट्यूड टेस्ट (सीएसएटी) खत्म करने और इंटरव्यू की जगह साइकोलॉजिकल टेस्ट शुरू करने का आग्रह किया है। संघ का मानना है कि एप्टिट्यूड टेस्ट उनके लिए नुकसानदायक है, जो हिंदी में परीक्षा देते हैं। अभ्यर्थियों की समझ-बूझ, बातचीत और फैसले लेने की क्षमता जांचने के लिए 2011 में एप्टिट्यूड टेस्ट की शुरुआत की गई थी।

आरएसएस से जुड़े शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास में प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के राष्ट्रीय संयोजक देवेंद्र सिंह कहते हैं, “यूपीएससी की परीक्षा में हर पृष्ठभूमि के अभ्यर्थियों को बिना किसी भेदभाव के समान अवसर मिलना चाहिए।” सिंह के अनुसार सिविल सर्विस एप्टिट्यूड टेस्ट में पास होने वाले 90 फीसदी अभ्यर्थी अंग्रेजी मीडियम वाले होते हैं और यह भेदभाव है।

हालांकि कार्मिक मंत्रालय का दावा है कि किसी भी अभ्यर्थी को एप्टिट्यूड टेस्ट में सिर्फ 33 फीसदी अंक लाने की जरूरत है। यह अगले स्तर, यानी इंटरव्यू के लिए एक तरह से क्वालीफाइंग परीक्षा है। 2019 के आंकड़ों के अनुसार लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकादमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन में फाउंडेशन कोर्स की पढ़ाई करने वाले 326 सिविल सेवा अधिकारियों में से सिर्फ आठ ने हिंदी में परीक्षा दी थी और 315 ने अंग्रेजी का विकल्प चुना था। 2018 में भी अकादमी में आने वाले 370 प्रशिक्षुओं में से भी केवल आठ ने हिंदी में और 357 ने अंग्रेजी में परीक्षा दी थी।

सिविल सेवा में मुसलमानों के कम प्रतिनिधित्व का मुद्दा भी अक्सर उठाया जाता रहा है। इस महीने उत्तीर्ण होने वाले 869 अभ्यर्थियों में सिर्फ 42 मुसलमान हैं। यानी इनकी संख्या महज पांच फीसदी है। शीर्ष 100 में सिर्फ केरल की साफना नजरुद्दीन ने जगह बनाई है। उन्हें 45वां स्थान मिला है। गौरतलब है कि देश की आबादी में मुसलमानों के हिस्सेदारी 15 फीसदी है। लेकिन कार्मिक मंत्रालय के एक अधिकारी के अनुसार देश के सभी वंचित वर्गों को समान प्रतिनिधित्व दे पाना मुश्किल है। उन्होंने कहा, “अनुसूचित जाति-जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, आर्थिक पिछड़ा वर्ग और विकलांगों के लिए पहले ही सीटें आरक्षित हैं। उन्हें उम्र और कितनी बार परीक्षा दे सकते हैं, दोनों में ढील मिलती है। अपनी तरफ से हम सिविल सेवा को यथासंभव समावेशी बनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन सीटें धर्म के आधार पर आरक्षित नहीं की जा सकती हैं।”

नौकरशाही में सुधारों की बात कहने वाले लोकनीति विशेषज्ञ राजेंद्र प्रताप गुप्ता कहते हैं, “आप चाहे सेंट स्टीफंस से आए हों या मुंगेर जिले के किसी दूरदराज गांव से। कुछ वर्षों के बाद इस सबका कोई मतलब नहीं रह जाता है। जब आप से दोगुनी उम्र का कोई कनिष्ठ अधिकारी आपको सर या मैडम कहता है, तो आप अनजाने में उस सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं। अथॉरिटी और हैर्राकी में यह संस्कृति काफी गहराई तक रची-बसी है। मुझे नहीं लगता कि किसी पिछड़े इलाके से सिविल सेवा में आने वाला कोई व्यक्ति नौकरशाही नाम के असंवेदनशील सिस्टम को बदलेगा।”

बहरहाल, मोदी सरकार अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वालों की सीधी भर्ती (लैटरल एंट्री) के जरिए बदलाव लाने का प्रयास कर रही है, लेकिन गुप्ता के अनुसार जब तक खराब काम के आधार पर निकालने (लैटरल एक्जिट) का प्रावधान नहीं होगा, तब तक नहीं बदलेगा। अब देखना है, नई रवायत क्या गुल खिलाती है।

मुकुंद कुमार, मधुबनी (बिहार)

यूपीएससी 54 रैंक

मुकुंद कुमार

उत्तराखंड के मसूरी स्थित लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के थीम सॉग “रहो धर्म में धीर, रहो कर्म में वीर उन्नत शिर, डरो ना” को अपना मूल मंत्र बनाकर बिहार के मधुबनी में रहने वाले 23 वर्षीय मुकुंद कुमार ने संघ लोकसेवा आयोग 2019 की परीक्षा में पहले ही प्रयास में 54वां रैंक हासिल की है। उनके पिता मनोज कुमार को 1990 में जूलॉजी से एमएससी करने के बावजूद अच्छी नौकरी नहीं मिली थी। तब उन्होंने खेती शुरू कर दी। मुकुंद चार भाई-बहनों में सबसे छोटे हैं। असम के गोलपारा स्थित सैनिक स्कूल से छठी से बारहवीं तक पढ़ाई करने के बाद उन्होंने 2015 में दिल्ली विश्वविद्याल में अंग्रेजी विषय के साथ स्नातक में दाखिला लिया। वे बताते हैं, बचपन में जब मैं अपने पापा के साथ कहीं जाता था, तो पूछता था, पापा डीएम या ऑफिसर कैसे बनते हैं? मां कहती थीं कि सरकारी नौकरी करना क्योंकि घर की माली हालत अच्छी नहीं थी, लेकिन पापा ने कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी। तैयारी के दौरान कभी-कभी लगता था, मुझसे नहीं हो पाएगा। मैंने तैयारी 2016 में ही शुरू कर दी थी। जब मैंने बारहवीं पास की तो इंडियन नेवी की मेडिकल परीक्षा में आंख में कुछ दिक्कत होने की वजह से रिजेक्ट कर दिया गया। मैं टूट गया। तब उसी विभाग के एक सैन्य अधिकारी ने मुझे प्रेरित किया कि मैं सिविल सेवा की तैयारी करूं। कह सकते हैं कि पापा के पास नौकरी नहीं थी, इसलिए भी नौकरी को लेकर मेरे भीतर एक ललक थी। मुझे शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने की तमन्ना है। इसलिए मैंने कैडर में पहला स्थान बिहार को दिया है।

 

यशस्विनी बी, कर्नाटक

ऑल इंडिया रैंक 71

यशस्विनी बी

 

अपने दोस्तों से बातचीत के दौरान यशस्विनी को सिविल सेवा परीक्षा देने का विचार आया। वह यह परीक्षा दे या न दें इस बारे में निर्णय लेने में उन्हें दो साल लग गए। इसके बाद उन्होंने माता-पिता को अपने निर्णय के बारे में बताया। यशस्विनी बेंगलूरू में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। वह चिकमगलूर के पास एक गांव बानूर से आती हैं, जहां से उन्होंने कन्नड़ माध्यम से 7वीं तक की स्कूली पढ़ाई की है। उनके पिता स्कूल में हेडमास्टर हैं। वे कहती हैं, “शुरुआत में मेरे माता-पिता भी सोचते थे कि यह बहुत ऊंची महत्वाकांक्षा है।” 2017 में इंजीनियरिंग कॉलेज से स्नातक होने के बाद, यशस्विनी ने यूपीएससी की तैयारी के लिए एक साल का समय लिया और अपने पहले ही प्रयास में 293 रैंक हासिल कर ली। वह कहती हैं, “मुझे वह सर्विस नहीं मिली जो मैं चाहती थी, तो मैंने सोचा कि मुझे एक बार और कोशिश करनी चाहिए।” इस साल यशस्विनी ने 71 रैंक हासिल की है। यशस्विनी कहती है, “सिविल सेवा अकेला ऐसा मंच है जो आपको कुछ करने का मौका देता है।”

 

अभिषेक सराफ, भोपाल, मध्य प्रदेश

ऑल इंडिया रैंक 8

अभिषेक सराफ 

कानपुर आइआइटी से 2013 में बी.टेक करने वाले अभिषेक सराफ को आखिर तीसरे प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में आठवां रैंक मिला तो उनके ही नहीं, उनकी मां के सपने भी साकार हुए। नतीजा सुनकर मां अपने आंसू नहीं रोक पाईं। दो भाइयों में छोटे अभिषेक दस महिने के थे तभी उनके पिता गुजर गए। गृहिणी मां को अपने भाई का सहारा मिला। घर के दो हिस्सों को किराए पर उठा दिया गया। अभिषेक कहते हैं, मां की ही मेहनत का नतीजा है कि मैं यह मुकाम छू पाया। उनके बड़े भाई हरियाणा के गुड़गांव में गूगल में काम करते हैं। 

वे बताते हैं, इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज क्लियर करने के बाद ट्रेनिंग के लिए बड़ौदा गए तो वहां कई लोगों से मिले और सिविल सर्विस में जाने की प्रेरणा मिली। वे कहते हैं कि दुनिया में जो महत्वपूर्ण हो रहा है, उस पर नजर रखना उनकी आदत है। उसके बारे में पढ़ना और डॉक्यूमेंट्री देखने का भी उन्हें  शौक है। इस परीक्षा के लिए उन्होंने कोई कोचिंग नहीं ली। वह मानते हैं कि कोचिंग से बहुत फायदा नहीं होता। इसके बजाय ऑनलाइन कोर्स और गाइडेंस बेहतर तरीके से उपलब्ध है। उन्हें उनके दोस्त शुभांशु जैन से मदद मिली, जो आइपीएस हैं। उन्होंने ही अभिषेक को सही तरीके से उत्तर लिखने, तैयारी करने में बहुत मदद की।

 

एच.जी. दर्शन कुमार, कर्नाटक

ऑल इंडिया रैंक 594

दर्शन कुमार

 

सिविल सेवा प्रवेश परीक्षा की अनिश्चितता देखते हुए 2015 में एच जी दर्शन कुमार के लिए इन्फोसिस की अच्छी खासी नौकरी छोड़ने का फैसला करना आसान नहीं था। वे कंपनी में छह साल से काम कर रहे थे, जिसमें दो साल वे सिएटल में भी रह चुके थे। वे कहते हैं, “इस नौकरी ने उनके परिवार को बहुत अधिक वित्तीय स्थिरता दी थी।” हरलाकट्टे में कुमार के चार एकड़ खेत हैं। यह कर्नाटक के अर्सिकेरे तालुक का एक गांव है, जहां हमेशा बारिश होती रहती है और इसलिए यहां खेती बहुत व्यावहारिक नहीं है। कुमार उस समय याद करते हैं कि कैसे उनके पिता एच.सी. गंगाधरप्पा बेंगलूरू में सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करते थे और उनके भाई वहां टैक्सी चलाते थे।

अब 31 साल के कुमार ने संघ लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठित परीक्षा में 594 रैंक हासिल की है। उन्हें यह सफलता चौथे प्रयास में मिली है। पहले दो प्रयास उन्होंने अंग्रेजी में दिए उसके बाद कन्नड़ में। आउटलुक से उन्होंने कहा, “मैंने सोचा मैं खुद को कन्नड़ में बेहतर तरीके से अभिव्यक्त कर सकता हूं, तो क्यों न इसी भाषा में कोशिश करूं। पहले भी कुछ लोगों ने इस भाषा में कोशिश की और सफल हुए।” कुमार अपनी सफलता का श्रेय साथियों के एक छोटे समूह को देते हैं, जो एक साथ मिल कर पढ़ते थे। इस साल कन्नड़ में परीक्षा देने वाले दर्जन भर उम्मदवारों में से सफल होने वाले वे इकलौते सफल उम्मीदवार हैं। वह कहते हैं, कन्नड़ या किसी दूसरी दक्षिण भारतीय भाषा का चुनाव अपने आप में एक चुनौती है। वह कहते हैं, “पहले अंग्रेजी में पढ़ना पड़ता है फिर इसका अनुवाद करना होता है।” इसके अलावा मार्गदर्शन भी आसानी से उपलब्ध नहीं है। कुमार के स्टडी ग्रुप ने यूट्यूब और टेलीग्राम पर एक चैनल बनाया है, जिसमें जरूरी नोट्स और टिप्स हैं, ताकि अभ्यर्थियों की सहायता हो सके। वह बताते हैं कि इस चैनल के 9,000 सबस्क्राइबर हैं।

 

आयुषी जैन, सिरौंज, मध्य प्रदेश

ऑल इंडिया रैंक 41

आयुषी जैन

विदिशा के पास छोटे कस्बे सिरौंज में किराने की दुकान चलाने वाले पिता और गृहिणी मां की तीन संतान में सबसे बड़ी आयुषी जैन तीसरी कोशिश में सिविल सेवा परीक्षा में 41वां रैंक हासिल करना परिवार के लिए मानो चांद पाने जैसा है। आयुषी ने भोपाल के एलएनसीटी कॉलेज से बी.टेक करने के बाद दो साल डेटा एनालिस्ट के तौर पर एक कंपनी में नौकरी की। बकौल आयुषी, वहां मैं सीएसआर एक्टिविटी में भाग लेती तो हमेशा महसूस करती थी कि नौकरी के रोजमर्रा काम की अपेक्षा मुझे सीएसआर एक्टिविट ज्यादा संतुष्टि देती है। तब मुझे लगा कि समाज को कुछ देने का सबसे अच्छा साधन है कि मैं ऐसे क्षेत्र में जाऊं जहां समाज के लिए कुछ कर सकूं। उस वक्त मैंने तय किया कि सिविल सेवा परीक्षा पास करने की कोशिश करना चाहिए।

मध्यमवर्गीय परिवार की आयुषी की बारहवीं तक की पढ़ाई सिरौंज में ही हुई है। आयुषी कहती हैं कि तो दुनिया ऑनलाइन जुड़ गई है, इसलिए छोटी जगह से होने का फर्क मिट-सा गया है। अब मैं चाहती हूं कि एक महिला होने के नाते, महिला शिक्षा और स्वास्थ मेरी सूची में सबसे ऊपर रहे। हालांकि यह देखना होगा कि मुझे क्या काम मिलता है। मैं आम आदमी की पहुंच में आने वाला सिस्टम बनाना चाहती हूं। लोगों के अंदर से यह भावना खत्म करना है कि काम के लिए भटकना पड़ता है। मेरा फोकस सिस्टम की ज्यादा से ज्यादा चीजों के डिजिटाइजेशन पर होगा।

 

दीपक कुमार, कैमूर, बिहार

रैंक-769

दीपक कुमार

ग्रामीण परिवार से ताल्लुक रखने वाले दीपक कुमार ने अपने दूसरे प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में सफलता हासिल की है। दीपक बिहार के कैमूर जिले के रहने वाले हैं। उनके पिता किसान हैं। वे कहते हैं “छठवीं कक्षा से आइएएस बनने का सपना देखा रहा था, वह इतनी जल्दी पूरा हो जाएगा, इसकी उम्मीद नहीं थी।” दीपक की पूरी शिक्षा सामान्य स्कूल और कॉलेज से हुई है। मगध विश्वविद्यालय से स्नातक दीपक ने हिंदी माध्यम से परीक्षा में सफलता हासिल की है। माध्यम कितनी बड़ी चुनौती है, इस पर वे कहते हैं “मुझे ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई, थोड़ी बहुत कंटेट जुटाने में परेशानी होती है लेकिन वह भी मिल जाता है। तैयारी के लिए दिल्ली में आकर दृष्टि से कोचिंग की, वहां मुझे काफी मदद मिली। इसके अलावा आलोक भैया और मेरे साथी हर्ष मालवीय के सहयोग को भी मैं कभी नहीं भूल सकता, जो हर वक्त मेरे साथ खड़े रहे।”  परीक्षा के लिए दीपक ने इतिहास को वैकल्पिक विषय चुना था। वह कहते हैं “मुझे कभी भी यह नहीं लगा कि मेरा चयन नहीं होगा। जहां तक पढ़ने की बात है तो कोचिंग की छह घंटे और फिर घर पर दो घंटे मैं पढ़ाई करता था। इसके बाद जब कोचिंग की कक्षाएं बंद हो गईं तो छह घंटे की नियमित पढ़ाई करता था।” जो छात्र-छात्राएं सिविल सेवा में चयनित होना चाहते हैं, उनसे मेरा यही कहना है कि खुद पर भरोसा रखिए, क्योंकि चयन इंसानों का ही होता है।

प्रोफाइल: नीरज कुमार झा, आकांक्षा पारे काशिव, प्रशांत श्रीवास्तव, अजय सुकुमारन

संकल्प का बढ़ता दायरा

खुद को लो प्रोफाइल रखने वाले इस संस्थान ने कभी खुद की उपलब्धियों का विज्ञापन नहीं किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ा यह संस्थान, लगभग तीन दशकों से आइएएस के उम्मीदवारों को प्रशिक्षण और मार्गदर्शन दे रहा है। दिल्ली के पहाड़गंज में एक गुमनाम सी जगह उदासीन आश्रम में संकल्प नाम से चलने वाले इस केंद्र के इंटरव्यू गाइडेंस प्रोग्राम (आइजीपी) की पिछले कुछ सालों में बहुत मांग रही है। यह प्रोग्राम दूसरे कोचिंग संस्थानों से न सिर्फ किफायती है बल्कि इसके परिणाम भी प्रभावी साबित हुए हैं।

इस संस्थान का प्रमुख केंद्र और तीन शाखाएं भले दिल्ली में हैं, लेकिन संस्थान छोटे शहरों से आने वाले अभ्यर्थियों की आकांक्षाओं को भी पूरा करता है। हालांकि यहां प्रीलिम्स और मुख्य परीक्षाओं के लिए भी कोचिंग दी जाती है, लेकिन यह संस्थान मुख्य रूप से साक्षात्कार की तैयारी के लिए जाना जाता है।

आइएएस परीक्षा प्रक्रिया के महत्वपूर्ण अंतिम चरण के लिए औसतन 60 फीसदी उम्मीदवारों ने इस केंद्र से कोचिंग ली है। संकल्प के ऑर्गेनाइजिंग सेक्रेटरी कन्हैया लाल कहते हैं, “स‌िविल सेवा के कुल 829 पद में से इस साल 480 अभ्यर्थी संकल्प के इंटरव्यू प्रोग्राम के पासआउट हैं। अखिल भारतीय स्तर पर शीर्ष 10 उम्मीदवारों में, दूसरी, तीसरी, छठी, नवीं और दसवी रैंक वालों ने यहीं कोचिंग ली थी।” वह बताते हैं, कि शीर्ष 30 में से 19 और शीर्ष 100 में से 66 लोगों ने उनके यहां से ही साक्षत्कार की तैयारी के लिए कोचिंग ली थी। पिछले साल यह 61.3 फीसदी था और 2018 में सफलता का प्रतिशत 65.5 फीसदी था।

हालांकि यूपीएससी परीक्षाओं की मार्किंग व्यवस्था में, कुल 2025 अंकों में से साक्षात्कार के केवल 275 अंक हैं (1750 अंतिम परीक्षा में सभी प्रश्नपत्रों के लिए हैं) फिर भी ये रैंकिंग पर असर डालते हैं। साक्षात्कार मुख्य रूप से उम्मीदवार के व्यक्तित्व, तनाव झेलने की स्थिति और कठिन परिस्थितियों को संभालने की उसकी क्षमता का मूल्यांकन करता है।

2016 के बाद से ही हर साल परिणामों की घोषणा के बाद आयोजित एक समारोह में आरएसएस के जॉइंट जनरल सेक्रेटरी कृष्ण गोपाल सफल उम्मीदवारों को संबोधित करते हैं। 2016 बैच में ही पहले और दूसरे नंबर पर आने वाली टीना डाबी और आमिर अतहर भी इस समारोह में शामिल थे। लाल तुरंत जोड़ते हैं, “वे शिक्षाविद के रूप में आते हैं, आरएसएस पदाधिकारी के रूप में नहीं।” उनका कहना है कि कई सेवानिवृत्त नौकरशाह संस्थान से जुड़े हैं और उम्मीदवारों को प्रशिक्षित करने वाली पैनल का हिस्सा हैं। कई सेवानिवृत्त नौकरशाहों के अलावा, संस्थान के मेंटर के रूप में कृष्ण गोपाल, आरएसएस से जुड़े नेता मदन दास देवी, उद्योगपति जे.पी. अग्रवाल और पूर्व राज्यपाल जगमोहन और विजय कपूर भी सूची में है।

लाल संकल्प-आरएसएस संबंध को कम कर जरूर बता सकते हैं लेकिन इसके इतिहास से मुंह नहीं मोड़ सकते। संकल्प की स्थापना 1986 में हुई थी। इसके संस्थापक सदस्यों में आरएसएस नेता संतोष तनेजा और मिजोरम के पूर्व राज्यपाल ए.आर. कोहली थे। संघ के एक पदाधिकारी का कहना है, “सामाजिक रूप से अधिक प्रतिबद्ध और राष्ट्रीयता से प्रेरित व्यक्तियों को नौकरशाही में लाने और इसका स्वरूप बदलने के उद्देश्य से संकल्प की स्थापना की गई थी।”

हर राज्य और काडर में ऐसे लोग हैं, जो अपनी सफलता का श्रेय संकल्प को देते हैं। आरएसएस को उम्मीद है कि अगले 10 वर्षों में उनके पास ऐसी नौकरशाही होगी, जो सच्चे भारतीय मूल्यों और लोकाचार के साथ राष्ट्र निर्माण में योगदान देगी। लाल कहते हैं, सिविल सर्विस में जाने के इच्छुक ऐसे लोग जो वंचित और आर्थिक रूप से कमजोर हैं उनकी मदद के लिए संकल्प ने लंबा रास्ता तय किया है। इस संस्था की फीस सबसे कम है। यहां तक कि संस्था एक स्कॉलरशिप भी देती है, जिसमें ट्रेनिंग निशुल्क होती है। वह कहते हैं, “राष्ट्र की विकासात्मक प्रक्रिया में लाखों भारतीयों की भागीदारी सुनिश्चित करने का यह एकमात्र तरीका है। अब समय आ गया है कि सिविल सेवाओं को कुलीन वर्ग या केवल जेएनयू के लोगों तक सीमित न किया जाए।”

 

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