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आवरण कथा/नजरिया/बेलगाम धोखाधड़ी

2014-19 के बीच 38 लोग फ्रॉड करके देश छोड़ गए, इससे कई सवाल खड़े होते हैं
भारत का बैंकिंग क्षेत्र पिछले कुछ वर्षों से लगातार जांच और शक के दायरे में है

भारत का बैंकिंग क्षेत्र पिछले कुछ वर्षों से लगातार जांच और शक के दायरे में है। डूबते कर्ज, बढ़ता एनपीए, हेराफेरी और बहुत कुछ इस कहानी में शामिल है। पिछले 7 वर्षों में 4.98 लाख करोड़ रुपये के बैंकिंग फ्रॉड हुए हैं। इस फ्रॉड में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक सबसे आगे हैं, जो नए बैंकरप्सी कानून के तहत हेयर कट तय करने में सबसे आगे दिखाई दे रहे हैं। इस बैंकरप्सी कानून के तहत बैंकों का 95 फीसदी तक हेयरकट का फैसला निश्चित तौर पर ईमानदार आय करदाता और सभी अप्रत्यक्ष करदाता के साथ मजाक है। क्योंकि सरकार अकेले पेट्रोल-डीजल से ही वित्त वर्ष 2020-21 में उत्पाद शुल्क के रूप में आम आदमी से 3.89 लाख करोड़ रुपये वसूल चुकी है।

अकेले 2020-21 में बैंकों ने 1.53 लाख करोड़ रुपये के डूबे कर्ज राइटऑफ कर दिए हैं। यह 2018-19 को छोड़कर बैंकों की तरफ से बीते एक दशक में सबसे ज्यादा राइटऑफ है। उस साल बैंकों ने 2.54 लाख करोड़ रुपये का राइटऑफ किया था।

इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि शीर्ष 12 राष्ट्रीयकृत बैंकों ने 8 साल में 6.32 लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ कर दिए। लेकिन बड़े डिफॉल्टरों से वे केवल सात फीसदी कर्ज वसूल पाए। दिसंबर 2020 तक के आंकड़ों के अनुसार भारतीय बैंक अब भी 7.4 लाख करोड़ रुपये के डूबत कर्ज पर बैठे हैं। अगर बैंकों की कर्ज वसूली का रिकॉर्ड देखा जाय तो यह बहुत मामूली और धीमी है। इनमें से कुछ मामलों में नीरव मोदी, मेहुल चोकसी और विजय माल्या की कहानियां दोहराई जाएंगी। सीबीआइ के अनुसार 2014 से 2019 के बीच पांच साल में 38 लोग धोखाधड़ी कर देश छोड़कर भाग गए।

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भारत की विकास गाथा में सबसे बड़े कर्ज देने वाले और भागीदार हैं। समस्या सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के नियमन पर स्पष्टता की कमी से उत्पन्न होती है। दूसरी बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के जोखिम प्रबंधन में अंकुश और संतुलन की व्यवस्था कमजोर है। तीसरा, बैंक डूबे कर्ज का पता लगाने के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कम करते हैं। चौथा, कुछ मामलों में कर्ज देने के लिए नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती हैं जिनसे कर्ज के डूबने का जोखिम बढ़ जाता है।

बैंकों के लिए अपने क्रेडिट, बाजार और परिचालन जोखिमों के बेहतर प्रबंधन के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल एक अहम जरिया बन सकती है। नीरव मोदी का घोटाला परिचालन जोखिमों के इर्द-गिर्द अधिक था, जिसे कम खतरनाक माना जाता है। परिचालन जोखिम सबसे ज्यादा शाखा के स्तर पर होता है। ऐसे में उस स्तर पर किए गए फ्रॉड उच्चतम स्तर पर तब तक नजर नहीं आते, जब तक स्थिति बहुत बिगड़ नहीं जाती है।

ऐसा नहीं कि जो कर्ज एनपीए में बदल जाते हैं, वे सभी संदिग्ध प्रकृति के होते हैं। लेकिन जब 2014-19 के बीच 38 लोग फ्रॉड कर कर देश छोड़कर भाग जाते हैं तो सवाल उठना लाजिमी है। सबसे बुनियादी बात यह है कि बैंक धोखाधड़ी इतनी तेजी से क्यों बढ़ रही है? 2014-21 के बीच बैंक धोखाधड़ी के मामले 57 फीसदी सालाना की दर से बढ़े हैं। इसके साथ उनकी वसूली से जुड़ा जोखिम भी बढ़ा है। आंकड़ों के हिसाब से देखें तो मोदी सरकार बैंक धोखाधड़ी पर लगाम लगाने में नाकाम रही है।

अगर राजनीतिक नेतृत्व दुनिया में कहीं भी भगोड़ों का पीछा करने की कोशिश करता है, तो उससे बैंकों को क्या फायदा होता है? क्या बैंक पूरी तरह या काफी हद तक राशि वसूल पाते हैं? बैंकिंग में कर्ज वसूली में ही सबसे कम सुधार किया गया है। वसूली उम्मीद से भी कम हो रही है। जनहित के मामलों में भी ईडी कुल 22,000 करोड़ रुपये के कर्ज में से केवल 40 फीसदी वसूल पाई है। ऐसे में देश छोड़कर भागे बाकी लोगों का क्या हुआ? उनसे शायद ही कोई वसूली हो पाई है। सरकार ने कुछ भगोड़ों का पीछा करने के अलावा न तो दूसरों से वसूली पर काम किया है और न ही यह सुनिश्चित करने के प्रयास किए हैं कि ऐसे मामले फिर न हों।

आरबीआइ के माध्यम से सरकार को क्रेडिट, बाजार और परिचालन जोखिमों पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए। बैंक धोखाधड़ी का समय रहते पता लगाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करना चाहिए। पहले से दिए गए कर्ज का मूल्यांकन, परिचालन जोखिमों की जांच करने का एक तरीका हो सकता है। किसी भी जोखिम को तुरंत चिह्नित किया जाना चाहिए और सभी एजेंसियों को तालमेल बिठाकर काम करना चाहिए। जब तक सरकार कुछ कठोर बदलाव लाने के लिए नहीं जागेगी, तब तक ये केवल सिफारिशें ही रहेंगी।

अगर इस तरह के फ्रॉड को बढ़ावा देने वाला कोई गठजोड़ है, तो राजनीतिक लिप्तता के बावजूद तुरंत उस पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। सभी विशेषज्ञों ने भारतीय बैंकों के जोखिम ढांचे में बदलाव का आह्वान किया है, लेकिन 2018 के बाद से सरकार या आरबीआइ की तरफ से इस दिशा में कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया। सरकारी बैंकों को नियमित करने के लिए आरबीआइ को वास्तविक अर्थों में अधिक नियंत्रण दिया जाना चाहिए, जिससे वह बैंकों से संबंधित फैसले बिना किसी दबाव के ले सके और उनमें किए जाने वाले सुधार के कदमों का नेतृत्व कर सके। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक धोखाधड़ी के मामले सामने आते रहेंगे और कर्ज डूबते रहेंगे।

(लेखक फाइनेंस के प्रोफेसर और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं)

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