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छत्तीसगढ़: सुलगते सवालों की आंच

भूपेश सरकार के ढाई साल पूरे, लेकिन ‘सिलगेर’ गोलीकांड ने पुराने जख्मों को हरा करने के अलावा सरकार के ढीले रवैए को भी किया उजागर
सिलगेर में सीआरपीएफ कैंप के विरोध में प्रदर्शन करते स्थानीय

गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ का कांग्रेसी नारा वाकई लुभावना था। खासकर आदिवासी क्षेत्रों में जल, जंगल, जमीन के साथ नक्सल समस्या से मुक्ति के लिए बातचीत की राह खोलने का वादा भी लोगों को इस कदर भाया था कि आदिवासी मतदाताओं ने इलाके की 12 में से 11 विधानसभा सीटें सौंप दीं। लेकिन ढाई बरस पूरे कर चुकी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सरकार के सामने ‘सिलगेर गोलीकांड’ मुंह बाए खड़ा है तो ‘झीरमघाटी हमले की जांच’, ‘पेसा कानून’ जैसे पुराने मुद्दे फिर सड़कों पर हलचल पैदा कर रहे हैं। भूपेश बघेल ने 2018 में मुख्यमंत्री बनने के फौरन बाद कहा था, ‘‘नक्सल समस्या से बंदूक के बल पर नहीं निपटा जा सकता। ठोस समाधान तक पहुंचने के लिए प्रभावित लोगों, खासकर आदिवासियों से बातचीत करनी चाहिए।’’  लेकिन 17 मई को सुकमा जिले के सिलगेर में हुई घटना सरकार की अलग ही छवि पेश कर रही है। उस दिन सुकमा जिले के सिलगेर सीआरपीएफ कैंप का विरोध कर रहे करीब 3,000 लोगों पर पुलिस के गोली चलाने से तीन लोग मारे गए और इस दौरान मची भगदड़ में घायल हुई एक गर्भवती महिला ने बाद में अपने घर पर दम तोड़ा। बीस से ज्यादा लोग घायल हुए थे। पुलिस का कहना है कि मारे गए लोग नक्सली थे, जबकि ग्रामीण, मानवाधिकार कार्यकर्ता और आदिवासी संगठन उन्हें आम नागरिक बता रहे हैं।

दरअसल, यह टकराव गत 12 मई को सीआरपीएफ की 153वीं बटालियन के कैंप स्थापित किए जाने के बाद शुरू हुआ है। ग्रामीणों का कहना है कि उनकी सहमति के बगैर ऐसे कैंप स्थापित किए जा रहे हैं। ग्रामीणों का आरोप है कि सुरक्षाबल के जवान जंगल में वनोपज बटोरने के लिए आने-जाने वाले लोगों से पूछताछ करते हैं, उन्हें रोकते-टोकते हैं और परेशान करते हैं। हालांकि सीआरपीएफ और पुलिस का कहना है कि वह केवल माओवादियों को खदेड़ने के लिए कैंप लगा रही है। घटना के लगभग एक महीने बाद मुख्यमंत्री ने अब अपनी चुप्पी तोड़ी है। उन्होंने कहा, ‘‘राज्य सरकार भी यह चाहती है कि तथ्य सामने आए और जो भी तथ्य सामने आएंगे, उन पर कार्रवाई में कोई कोताही नहीं होगी।’’

इस घटना के बाद राज्य की कांग्रेस सरकार इसलिए भी सवालों के घेरे में हैं क्योंकि इससे पहले प्रदेश की भाजपा सरकार के दौरान वह कथित फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्या का मामला उठाती रही थी।

बस्तर अंचल में सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील बेला भाटिया आउटलुक से कहती हैं, ‘‘कांग्रेस ने सत्ता में आते ही बस्तर के लोहंडीगुड़ा में टाटा स्टील प्लांट के लिए करीब 10 साल पहले किसानों से ली गई जमीनें उन्हें वापस दिलाने का फैसला किया। इससे लगने लगा था कि सरकार अपना चुनावी वादा पूरा कर रही है। लेकिन उसके बाद लगातार फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं जारी हैं। पेसा कानून, राजनीतिक वार्ता जैसे मसलों पर बात करने के लिए भी सरकार राजी नहीं है। अब लगता है कि कुछ भी नहीं बदला।’’ बेला भाटिया बस इतना फर्क देखती हैं कि पहले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कठोरतापूर्वक रोका-टोका जाता था, अब वही काम चालाकी से किया जाता है।

पूर्व विधायक और आदिवासी महासभा के महासचिव मनीष कुंजाम ने भी आउटलुक से कहा, ‘‘सरकार अपने वादे के उलट काम कर रही है। पेसा कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने से भी पीछे हट गई है। लगातार नए कैम्प खोले जाने लगे हैं। नक्सल मामलों पर भाजपा जिस लीक पर चल रही थी, ठीक उसी नक्शेकदम पर भूपेश सरकार भी चल रही है।’’ कांग्रेस सरकार इसका खंडन करती है। सरकार का कहना है कि वह आदिवासियों का विकास चाहती है और नक्सल समस्या को भी हमेशा के लिए समाप्त करने पर जोर दे रही है। पार्टी प्रवक्ता शैलेश नितिन त्रिवेदी कहते हैं, ‘‘भाजपा की सरकार आदिवासियों को दुश्मन समझती थी। रमन सरकार उद्योगपतियों के हितों को बढ़ाने में लगी थी। मौजूदा कांग्रेस सरकार के लिए आदिवासियों और बस्तर का सुख और शांति ज्यादा महत्वपूर्ण है।’’

सुकमा में आदिवासियों पर फायरिंग के बाद तनाव 

राज्य सरकार भले ही यह दावा करती रही है कि राज्य में अब नक्सली बैकफुट पर हैं, मगर वारदात की शक्ल में सच्चाई कुछ और नजर आती है। इसी साल 3 अप्रैल को बीजापुर के तर्रेम थाना क्षेत्र में सुरक्षा बल और नक्सलियों की मुठभेड़ में 24 जवान शहीद हो गए थे। लोकसभा में पेश आंकड़ों के अनुसार साल 2019 में छत्तीसगढ़ में नक्सल हिंसा की कुल 263 वारदात दर्ज की गईं। इनमें सुरक्षा बल के 22 और 55 आम नागरिक मारे गए, जबकि 79 नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया गया है। वहीं साल 2020 में छत्तीसगढ़ में 315 नक्सली घटनाएं दर्ज हुईं। इनमें 36 जवान शहीद हुए। 75 आम नागरिक मारे गए और 44 नक्सलियों के मारे जाने का दावा भी किया गया है। बस्तर संभाग में 4 मार्च 2021 से 3 अप्रैल तक यानी लगभग एक महीने के भीतर नक्सलियों ने 31 हत्याओं को अंजाम दिया है।

हालांकि राज्य सरकार के प्रवक्ता और कृषि मंत्री रवींद्र चौबे ने आउटलुक से कहा, ‘‘डॉ. रमन सिंह के समय नक्सलियों की समानांतर सरकार चला करती थी लेकिन अब नक्सली बीजापुर, सिलगेर, नारायणपुर, ओरछा के किनारे में सिमट गए हैं। समस्या बढ़ी नहीं है।’’

राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह मानते हैं कि कांग्रेस चुनाव भले जीत गई है लेकिन वह लोगों का भरोसा नहीं जीत पाई है। पूर्व मुख्यमंत्री ने आउटलुक से कहा, ‘‘हमने कार्ययोजना बनाकर नक्सलियों को काफी पीछे खदेड़ा था। हम लोगों ने भी 25-30 कैम्प खोले थे, नए थाने और चौकी बनाए थे लेकिन वहां कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। इन्होंने नया कैम्प खोल दिया तो 10 हजार आदिवासी विरोध में बैठ गए।’’ पूर्व मुख्यमंत्री ने पूछा, ‘‘क्या आप आदिवासियों को विश्वास में लेकर काम नहीं कर सकते?’’

असल में, कैंप के खिलाफ ग्रामीणों की नाराजगी की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले बीते साल दिसंबर में राज्य के कांकेर जिले में भी ग्रामीणों का आक्रोश देखने को मिला था। वहां कोयलीबेड़ा ब्लॉक के करकाघाट और तुमराघाट में खुले बीएसएफ कैंप का भारी विरोध हुआ था। ग्रामीणों का आरोप था कि बीएसएफ का कैंप आदिवासी धर्मस्थल पर लगाया गया है। यह पांचवीं अनुसूची का उल्लंघन है। वहीं सरकार का मानना है कि कैंप स्थापित कर वह नक्सली प्रभुत्व वाले इलाकों पर कथित ‘माओवादियों की समानांतर सरकार’ के बरक्स अपना प्रभाव स्थापित कर रही है। पुलिस के मुताबिक, पिछले दो साल में पूरे बस्तर में 29 नए सीआरपीएफ कैंप लगाए गए जिनमें से अधिकतर दक्षिण बस्तर में हैं जहां माओवादियों के गढ़ हैं।

 

झीरम पर झोलझाल

जब भी नक्सल मामले की चर्चा होती है तब कांग्रेस खुद को सबसे ज्यादा पीडि़त बताने से पीछे नहीं हटती। दरअसल, बस्तर की झीरम घाटी में 25 मई 2013 को माओवादियों के हमले में राज्य में कांग्रेस पार्टी की पहली पंक्ति के अधिकांश बड़े नेता सहित 29 लोग मारे गए थे। कांग्रेस पार्टी तब से घटना की जांच की मांग करती रही है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मंत्रिपरिषद की पहली बैठक में ही झीरम घाटी कांड की एसआइटी जांच का फैसला किया था लेकिन ढाई साल बाद भी जांच उलझी हुई है। रवींद्र चौबे सारा ठीकरा केंद्र पर फोड़ते हैं। उनका कहना है कि झीरम घाटी की जांच पर केंद्र क्यों आपत्ति करता है, यह समझ से परे है। हम तो सीबीआइ जांच की भी मांग कर चुके हैं लेकिन एनआइए की जांच भी अधूरी है।

वार्ता में क्या है रोड़ा

बेला भाटिया और मनीष कुंजाम जैसे कई सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ता वार्ता के जरिए नक्सल समस्या के समाधान पर जोर देते हैं। माओवादियों की ओर से भी समय-समय पर वार्ता की पेशकश की जाती रही है। राज्य सरकार भी वार्ता के ही जरिए समाधान तलाशने की बात करती है, लेकिन इसके बावजूद अब तक कोई राजनीतिक वार्ता सरकार और माओवादियों के बीच नहीं हो सकी है। दरअसल, सरकार चाहती है कि माओवादी पहले हथियार डालें, उसके बाद ही उनसे कोई बातचीत मुमकिन हो पाएगी। आखिर सरकार क्यों शर्तों के साथ ही वार्ता की पक्षधर है? इस प्रश्न पर छत्तीसगढ़ के पूर्व पुलिस महानिदेशक और साहित्यकार विश्वरंजन कहते हैं कि संविधान को नहीं मानने वालों से आप कैसे बात करेंगे?

सरकार नक्सलियों से बातचीत करेगी या नहीं, इस पर किंतु-परंतु हो सकता है, लेकिन आदिवासियों को विश्वास में लेने और उनके जल-जंगल-जमीन से जुड़े मुद्दे हल करने में क्यों दिक्कत आ रही है? ढाई साल में भूपेश सरकार कोई ठोस नीति नहीं ला पाई है। अगर सरकार सक्रिय नहीं होती है तो चुनावों में उसे इसका दंश भी झेलना पड़ सकता है।

बघेल सरकार पर आरोप हैं कि प्रदेश में फर्जी मुठभेड़ की घटनाएं जारी हैं। पेसा कानून, राजनीतिक वार्ता जैसे मसलों पर बात करने के लिए भी सरकार राजी नहीं

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