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भगवा राष्ट्रवाद पर भरोसा

खराब रणनीति और कुशल नेतृत्व की कमी ने विपक्ष को दी करारी मात, अब विधानसभा चुनावों में मौका
जीत का जश्नः कार्यकर्ताओं के साथ मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी

राज्य में सूखा पड़ा है, हर जगह किसान नाराज हैं, नोटबंदी और जीएसटी से बिजनेस चौपट हो चुका है और युवाओं के पास नौकरी नहीं है, इसके बावजूद लोगों ने मोदी के नाम पर वोट दिया और कांग्रेस को अब तक की सबसे करारी हार मिली। समझ में नहीं आता है कि ऐसा कैसे हुआ? हम उनके तंत्र और पैसे के आगे टिक नहीं पाए।” महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के एक वरिष्ठ नेता के ये निराशा भरे शब्द पूरे चुनाव की कहानी बयां कर देते हैं। भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने 48 में से 41 सीटें जीत कर विपक्ष को पूरी तरह से हाशिए पर ला दिया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस केवल एक सीट पर सिमट गई। उसकी सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को चार सीटों पर जीत मिली। कांग्रेस के लिए उससे भी परेशान करने वाली बात यह है कि इस बार चुनावों में वह अकेली पार्टी है, जिसके वोट घट गए हैं। कांग्रेस को 2014 के मुकाबले 2019 में 30 लाख वोट कम मिले हैं, जबकि शिवसेना का वोट 25 फीसदी बढ़कर 1.25 करोड़, भाजपा का वोट करीब 14 फीसदी बढ़कर 1.5 करोड़ और राकांपा का वोट करीब चार फीसदी बढ़ कर 80 लाख पर पहुंच गया है। राज्य में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को जहां 50.9 फीसदी वोट मिले, वहीं कांग्रेस-राकांपा को 31.8 फीसदी वोट मिला है। इस प्रदर्शन पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने मीडिया से कहा, “हमने पूरे राज्य में मोदी जी के पक्ष में मूक लहर देखी थी। खास तौर से मध्यम वर्ग और गरीब तबका पूरी तरह से उनके साथ दिखा।” असल में भाजपा और शिवसेना फरवरी 2019 में कांग्रेस-राकांपा गठबंधन से उस समय ज्यादा मजबूत हो गए, जब उन्होंने दोबारा से एक होकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया था। पूरे साढ़े चार साल शिवसेना ने भाजपा से विपक्षी दल के रूप में व्यवहार किया। लगता था कि इस बार दोनों दल 2014 जैसे एक होकर चुनाव नहीं लड़ेंगे। कांग्रेस के एक पदाधिकारी का कहना है, “हमें ऐसा ही लगता था, लेकिन भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने शिवसेना के विरोध को दरकिनार कर गठबंधन कर लिया। कांग्रेस-राकांपा गठबंधन वंचित बहुजन अघाड़ी समाज को अपने साथ नहीं ले पाया, जिसकी हमें भारी कीमत चुनावों में चुकानी पड़ी है।”

दलित नेता प्रकाश अांबेडकर के नेतृत्व वाले वंचित बहुजन अघाड़ी समाज ने राज्य में कम से कम 10 सीटों पर कांग्रेस-राकांपा गठबंधन को नुकसान पहुंचाया है। नांदेड़, सोलापुर, सांगली, बुलढ़ाना, परभणी, गढ़चिरौली, हिंगोली, अकोला, चंद्रपुर, हातकणंगले ऐसी सीटें हैं, जहां वंचित बहुजन अघाड़ी समाज को 1.10 लाख से लेकर 2.97 लाख तक वोट मिले हैं। इन 10 सीटों में से छह सीटें ऐसी हैं जहां पर अगर कांग्रेस-राकांपा गठबंधन के साथ वंचित अघाड़ी समाज का वोट जुड़ जाता, तो वह आसानी से सीटें जीत सकती थी। गठबंधन नहीं होने पर समाज के  पदाधिकारी रवि शिंदे का कहना है, “हमने तो हमेशा से भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाए रखी है। इस बार चुनावों में हमें आठ फीसदी वोट मिले हैं। विधानसभा में इससे भी बेहतर प्रदर्शन करेंगे। जहां तक कांग्रेस की बात है तो उसमें कुछ ठीक नहीं था।”

हालांकि कांग्रेस पार्टी के राज्य प्रवक्ता सचिन सावंत इसको नकारते हुए कहते हैं, “शुरू से सबको पता है कि वंचित अघाड़ी समाज भाजपा की बी टीम है। आप चुनावों में उनके खर्च को देखिए, कहां से प्रकाश आंबेडकर तीन-तीन हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल कर रहे थे, उनके पास पैसा कहां से आया सबको पता है।” राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी का कहना है कि भाजपा ने राष्ट्रवाद, गरीबों-दलितों के लिए किए गए काम और इन सबसे ऊपर नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव बेहद सुनियोजित तरीके से लड़ा। पार्टी का बूथ मैनेजमेंट काफी बेहतर था। इसके अलावा शिवसेना के साथ आने से हिंदू मतों का विभाजन नहीं हुआ। इस वजह से गठबंधन ने पिछली बार जैसा ही प्रदर्शन किया है। गठबंधन को पिछली बार 42 सीटें मिली थीं। कांग्रेस-राकांपा गठबंधन के साथ इस बार चुनाव लड़े स्वा‌िभमानी पक्ष पार्टी के प्रमुख राजू शेट्टी का कहना है, “पता नहीं क्यों, पूरे चुनाव में कांग्रेस ने दमखम नहीं दिखाया, वहीं इस बार कांग्रेस और राकांपा की प्रमुख सपोर्ट कोऑपरेटिव सोसायटी उनके साथ नहीं थी, इसकी वजह से फंडिंग पर असर हुआ। राहुल गांधी की भी रैलियां काफी कम हुईं। यही नहीं, राज्य स्तर पर कांग्रेस के पास कोई मजबूत नेता नहीं था, जिसकी पूरे महाराष्ट्र में पकड़ हो। जहां तक किसानों की नाराजगी की बात है तो मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा हूं कि ऐसा कैसे हुआ? इतनी बड़ी जीत के बावजूद गांवों में इस बार 2014 जैसा जश्न नहीं दिख रहा है, यही समझ में आता है कि शायद लोग राष्ट्रवाद के जोश में वोट देकर आ गए लेकिन अब पछता रहे हैं।” असल में चुनावों के पहले से ही कांग्रेस पिछड़ती नजर आ रही थी, जहां भाजपा ने अपने पुराने साथी शिवसेना की नाराजगी दूर कर उसे अपने साथ दोबारा लिया, वहीं कांग्रेस के राज्य में तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष राधाकृष्ण पाटिल के पुत्र सुजाय पाटिल चुनावों के पहले भाजपा में शामिल हो गए। उन्होंने फिर अहमदनगर से जीत भी हासिल कर ली। पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष अशोक चह्वाण की नाराजगी भी एक ऑडियो टेप में सामने आई, जिसमें वे प्रत्याशियों के चयन में अनदेखी पर इस्तीफे की बात कह रहे थे।

साफ है कि राज्य स्तर पर नेताओं में सब कुछ सही नहीं चल रहा था। मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष पद को लेकर भी मिलिंद देवड़ा और संजय निरुपम की लड़ाई सार्वजनिक हुई। आपसी लड़ाई का असर यह हुआ कि जहां अशोक चह्वाण नांदेड़ से 40 हजार वोटों से, वहीं मिलिंद देवड़ा मुंबई (दक्षिण) और संजय निरुपम मुंबई (उत्तर-पश्चिमी) से हार गए। मुंबई (उत्तर) से बॉलीवुड अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर पूरे राज्य में सबसे ज्यादा चुनावी अंतर से हारने वाली प्रत्याशी रहीं। उन्हें भाजपा के गोपाल शेट्टी ने 4.46 लाख से ज्यादा वोटों से हराया। इस मामले में राकांपा नेता शरद पवार के लिए राहत भरी बात यह हुई कि उनकी बेटी सुप्रिया सुले बारामती से 69,719 वोटों से जीत गईं। लेकिन शरद पवार के भतीजे अजीत पवार के पुत्र पार्थ पवार मावल लोकसभा क्षेत्र से 1.57 लाख वोटों से हार गए। इस अप्रत्याशित हार के बाद राकांपा अध्यक्ष शरद पवार ने ईवीएम की प्रमाणिकता पर भी सवा उठाया है।

 भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, “नरेंद्र मोदी की रैलियों का अगर आप विश्लेषण करें, तो उन्होंने बड़ी चालाकी से शरद पवार पर वंशवाद का हमला किया। वे सभी रैलियों में राहुल से ज्यादा पवार पर हमले करते थे।” राज्य में भाजपा के लिए केवल चंद्रपुर ऐसी सीट रही जहां से उसके वरिष्ठ नेता और केंद्र में राज्यमंत्री हंसराज अहीर चुनाव हार गए। संयोग से चंद्रपुर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का गृहनगर भी है।

चुनावों में भाजपा को 23 तो शिवसेना को 18 सीटें मिली हैं जबकि कांग्रेस एक और राकांपा चार सीटों पर सिमट गई है। एआइएमआइएम के इम्तियाज अली ने औरंगाबाद से जीत कर इतिहास भी बनाया है। वे राज्य के पहले मुस्लिम गैर-कांग्रेसी सांसद होंगे। विपक्ष के पास अब विधानसभा चुनावों में साख वापस लौटाने का मौका है। राज्य में अभी भी सूखा, किसानों की समस्याओं से लेकर बेरोजगारी जैसे मुद्दे हैं, देखना यह है कि विपक्ष गलतियों से सबक लेकर नई रणनीति पर काम करता है या लोकसभा चुनावों की तरह एक बार फिर भाजपा -शिवसेना के सामने समर्पण कर देता है।

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