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विश्वसनीय संस्थाओं में विश्वास का संकट

दिल्ली में न्याय-व्यवस्था के दोनों स्तंभ आपस में टकरा गए
पुलिस और वकील में विवाद

कुछ वाक्य ऐसे होते हैं जो हम जैसे सामान्य लोग जीवन में कभी नहीं बोल सकते, मसलन “यह खेल शुरू तुमने किया था लेकिन इसे खत्म मैं करूंगा।” या “बेटी, तू पैदा होते ही मर क्यों नहीं गई।” या “यह बहुत पुरानी कहानी है बाबूजी, आप जान कर क्या करेंगे।” इसी तरह का एक वाक्य है, “मेरा इस देश की न्याय व्यवस्था पर पूरा विश्वास है।” यह वाक्य वही आदमी बोल सकता है जिसने कोई बहुत बड़ा घपला किया हो और जो बहुत महंगा वकील कर सकता हो। न्याय व्यवस्था में विश्वास आपकी वकील की फीस के अनुपात में बढ़ता जाता है। जितना महंगा वकील, उतना ज्यादा विश्वास। कभी आपने नहीं सुना होगा कि किसी छुटभैये चोर या कच्ची दारू पीकर दंगा करने वाले ने टीवी के सामने ऐसा कोई वाक्य बोला होगा। हम जैसे कानून से डरने वाले मध्यमवर्गीय लोग तो खैर कभी ऐसा सोच भी नहीं सकते।

लेकिन अच्छी बात यह है कि अदालतों में उन लोगों के साथ न्याय होता ही होगा, तभी वे ऐसा विश्वास के साथ बोल सकते हैं। देश की दूसरी संस्थाओं के बारे में ऐसा कहना भी मुश्किल है। कितना ही अमीर मरीज हो, आत्मविश्वास के साथ वह नहीं बोल सकता कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर उसे भरोसा है कि वह अस्पताल से स्वस्थ हो कर ही निकलेगा। क्या कभी आपने टीवी पर ऐसा कहते किसी आदमी को सुना है? अमीर से अमीर आदमी अपने बेटे या बेटी के कॉलेज में एडमिशन के वक्त ऐसा सार्वजनिक बयान नहीं देता कि मुझे इस देश की शिक्षा व्यवस्था पर पूरा भरोसा है कि मेरा बेटा या बेटी यहां से ज्ञानी हो कर ही निकलेगा या निकलेगी। वकील जो विश्वास पैदा कर सकते हैं वह डॉक्टर या शिक्षक कभी नहीं पैदा कर सकते। कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो, ऐसे कई उदाहरण हैं कि वह महंगे से महंगे अस्पताल से जान गंवा कर ही लौटा, लेकिन ऐसा कोई उदाहरण शायद ही मिले कि कोई अमीर आदमी, जिसका वकील भी अमीर हो, वह अदालत से छूट नहीं पाया हो।

इसी विश्वास का दूसरा पहलू न्याय-व्यवस्था को लागू करने वाली सुरक्षा एजेंसियां यानी पुलिस और सीबीआइ वगैरह हैं। अमीर और रसूखदार लोगों का इन एजेंसियों पर भी पूरा भरोसा होता है। इसीलिए हम टीवी पर ऐसे बयान भी अक्सर देखते हैं कि “मुझे विश्वास है कि पुलिस जल्दी ही इस मामले की तह तक जांच करके अपराधियों को पकड़ लेगी,” या “सुरक्षा एजेंसियां मुस्तैदी से अपना काम कर रही हैं, हमें उन पर भरोसा करना चाहिए।” आम गरीब या मध्यमवर्गीय नागरिक तो टीवी पर किसी भी किस्म का बयान नहीं देते, इसलिए उनकी राय का कोई खास महत्व नहीं है। अगर इतने बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोग इन संस्थाओं में विश्वास जताते हैं तो हमें उन पर विश्वास करना चाहिए। पुलिस या सीबीआइ भी उनके विश्वास को बनाए रखती है और आरोपियों को, चाहे वे निर्दोष ही क्यों न हों, जिंदा या मुर्दा पकड़कर ले आती है।

ऐसी परिस्थिति में पिछले दिनों हुई कुछ घटनाएं बड़ी चिंताजनक हैं जब दिल्ली में न्याय-व्यवस्था के ये दोनों स्तंभ आपस में टकरा गए। इन विश्वसनीय संस्थाओं में आपसी विश्वास का न होना ठीक नहीं है। इन्हें आपस में विश्वास बनाए रखना चाहिए ताकि बड़े लोगों का इन पर विश्वास बना रहे।

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