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आदिवासी राजनीति: जंगल पर नई दावेदारी

हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे गवाह ‌हैं कि आदिवासी समाज का भाजपा से मोहभंग हुआ, लेकिन असली सवाल यही कि क्या जल, जंगल, जमीन के मुद्दे हल होंगे
आदिवासी मुखियाः (बाएं से दाएं) हेमंत सोरेन, बाबूलाल मरांडी, नंद कुमार साय, रामविचार नेताम, कांतिलाल भूरिया, जोएल उरांव और अर्जुन मुंडा

2003 के चुनाव में भाजपा आदिवासी सीटों के भरोसे ही वहां सरकार बना पाई थी। मध्य प्रदेश की 47 आदिवासी सीटों में से अब 31 पर कांग्रेस का कब्जा है। वहां हाल में झाबुआ के उप-चुनाव में कांग्रेस भाजपा को पटखनी देकर अपनी सरकार पक्की करती नजर आई। ओडिशा की 33 आदिवासी सीटों में से 18 पर बीजद और 10 पर भाजपा के विधायक हैं। हाल में महाराष्ट्र में विधानसभा की कुल 288 सीटों में आदिवासियों के लिए आरक्षित 25 सीटों में भी भाजपा के खाते में ज्यादा नहीं आईं। तो क्या यह बदलाव किसी बड़े राजनीति के परिवर्तन का संकेत दे रहा है? क्या यह अरसे से अति-वामपंथी हिंसा से ग्रस्त आदिवासी पट्टी मुख्यधारा की राजनीति से अपनी आवाज बुलंद करने की कोशिश कर रही है? ये सवाल आज कई वजहों से मौजूं हैं। इसकी झलक आदिवासी राजनीति के इतिहास पर नजर डालने से स्पष्ट हो जाती है।

धुर झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और महाराष्ट्र तक फैली आदिवासी पट्टी अरसे से अपने अकूत संसाधनों का दोहन देखती रही है और पिछड़ापन तथा कुपोषण से बुरी तरह ग्रस्त रही है। आदिवासी अपनी परंपरा और संस्कृति की रक्षा के साथ विकास के नाम पर अपने रहवास की अकूत जल, जंगल, जमीन की संपदा की रक्षा के लिए लड़ते भी रहे हैं। अंग्रेजी राज में कई विद्रोहों की गवाह रही है यह आदिवासी पट्टी। सो, आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में आदिवासियों का झुकाव स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस की तरफ रहा। फिर, कुछ आदिवसी इलाकों में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों का भी वर्चस्व रहा। कुछ इलाके अति-वामपंथ से भी प्रभावित रहे और 1990 तथा 2000 के बाद के दशकों में माओवादी असर इतना व्यापक हुआ कि पिछले कुछ दशकों से अति-वामपंथी रुझान की वजह से इसे रेड कॉरीडोर कहा जाने लगा था। लेकिन, पिछले डेढ़ दशक से कम से कम वोट के मामले में भाजपा की ओर आदिवासी रुझान मुड़ा तो कई राज्यों में पार्टी को सत्ता भी मिली। यह रुझान अब फिर बदलता दिखता है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और अब झारखंड के नतीजे बताते हैं कि आदिवासी भाजपा से मुंह फेरने लगे हैं। ये चारों ऐसे राज्य हैं जहां नक्सलवाद के पैर जमे हुए हैं और आदिवासी इलाकों में अधिकारों के लिए समय-समय पर आवाजें भी उठती रहती हैं।

गैर-आदिवासी अगुआः झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास, छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी, रमन सिंह और मौजूदा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल

छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के राज्य उपाध्यक्ष शैलेश टोप्पो आउटलुक से कहते हैं, “आदिवासी न किसी दल के समर्थक हैं, और न ही विरोधी। पर सरकार किसी भी राष्ट्रीय पार्टी की हो, काम करने का तरीका एक जैसा ही होता है। यही वजह है कि आदिवासी क्षेत्रीय दलों पर भरोसा करने लगे हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) को आदिवासी इलाकों में अधिक सीटें मिलीं। झामुमो के नेतृत्व वाली सरकार ने पत्थलगड़ी और दूसरे आंदोलन में शामिल आदिवासियों के खिलाफ दर्ज मुकदमे वापस लेने का ऐलान तत्काल कर दिया। छत्तीसगढ़ में वादे के बाद भी कांग्रेस की सरकार ने अब तक कोई कदम नहीं उठाया है।” आदिवासी समाज के हितों के लिए संघर्षरत भोपाल के मनीष भट्ट कहते हैं, “आज के दौर में आदिवासियों पर सबसे बड़ा खतरा विस्थापन का है।”

यह संख्या करीब सात करोड़ होगी। देश की आबादी का लगभग सवा आठ प्रतिशत आदिवासी हैं। वे 20 प्रतिशत भूभाग पर काबिज हैं जो प्राकृतिक संपदा और खनिजों से भरा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के आदिवासियों की सुरक्षा, संरक्षण और विकास के लिए संविधान की पांचवीं अनुसूची में विशेष प्रावधान किया गया। पांचवीं अनुसूची में शामिल कुछ राज्य उग्र वामपंथ से प्रभावित हैं, वहां के लिए 1996 में ‘पेसा’ कानून बनाया गया।  इसमें आदिवासी इलाके की ग्रामसभा को सर्वोपरि बनाया गया। तमाम प्रावधानों के बावजूद झारखंड और छत्तीसगढ़ की भाजपानीत सरकारों ने अपनी मर्जी से कदम उठाए, तो पत्थलगड़ी जैसे आंदोलन शुरू हो गए। शैलेश टोप्पो का मानना है, “भाजपा सरकारों ने कुछ ज्यादा ही तेजी और आक्रामक तरीके से काम करना शुरू कर दिया था, जिसके कारण आदिवासी समाज से उनका विवाद बढ़ा। आदिवासी समाज विकास विरोधी नहीं है, लेकिन सरकारें विकास के नाम पर आदिवासियों की आजीविकाएं छीनती हैं। उद्योग या खनन के लिए सरकार जमीन के बदले एकमुश्त राशि ही क्यों देती है, शेयरधारक क्यों नहीं बनाती?”

ओडिशा में जल-जंगल और जमीन बचाने के साथ आदिवासियों के हितों के लिए चलाए जा रहे ‘लोक शक्ति अभियान’ के प्रमुख प्रफुल्ल सामंतरे का कहना है कि पांचवीं अनुसूची में ग्रामसभा की सहमति से आदिवासी क्षेत्रों के संसाधनों के दोहन की बात है, लेकिन केंद्र और राज्य सरकार ओडिशा में बिना ग्रामसभा की सहमति के ही संसाधनों के दोहन की अनुमति कारपोरेट घरानों को दे रही है। ओडिशा के तालाबीरा क्षेत्र में खनन के लिए 41 हजार पेड़ काट दिए गए। ओडिशा के आदिवासी इलाकों में बॉक्साइट, लौह-अयस्क और कोयले के भंडार हैं। खनन और उद्योग के कारण आदिवासी बेघर हो रहे हैं। इसका असर पर्यावरण और नदियों के जल स्रोतों पर पड़ रहा है। आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए राज्य सरकार सलाहकार परिषद बनाती है। छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के विधिक सलाहकार और रिटायर्ड आइएएस जी.एस. धनंजय का कहना है कि यहां 20 सदस्यीय आदिवासी सलाहकार परिषद का गठन मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में किया जाता है। राज्य स्तर की परिषद में विधायकों को ही रखा जाता है, उसमें भी छत्तीसगढ़ के सभी विधायकों को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है। विधायकों को बारी-बारी से परिषद का सदस्य बनाया जाना चाहिए। इसमें आदिवासी समाज, आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले एनजीओ और विशेषज्ञों को शामिल किया जाना चाहिए। 

 जंगल पर दावेदारीः झारखंड की राजधानी रांची में पत्‍थलगड़ी आंदोलन का प्रदर्शन

मनीष भट्ट कहते हैं, “व्यावसायिक समूहों को सब कुछ सौंपने की जिद आदिवासियों को न केवल उजड़ने को मजबूर कर रही है वरन उनके विरुद्ध झूठे प्रकरण भी कायम किए जा रहे हैं। मार्च 2011 में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के ताड़मेटला, मोरपल्ली और तिम्मापुर में आदिवासियों के 252 घर जला दिए गए थे। सीबीआइ की जांच रिपोर्ट में इसका खुलासा भी हुआ। फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्या कर नक्सली करार दिए जाने की घटनाएं आम हैं। पिछले करीब 20 वर्षों से आदिवासी समाज से कोई भी प्रभावी नेता के सामने न आने से इनमें राजनैतिक सामूहिकता की कमी बड़ी समस्या है।”

ये मामले निश्चित रूप से झारखंड में अपने पिता दिशोम गुरु शिबू सोरेन की विरासत संभालने वाले नए मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के जेहन में रहे होंगे। तभी उन्होंने सरकार बनते ही साफ कर दिया कि झारखंड में अब कोई भी फैसला प्रदेश के लोगों के हितों के अनुरूप किया जाएगा। कोई भी ऐसा फैसला नहीं होगा, जिससे आम लोगों को तकलीफ हो। हेमंत ने अपने कामकाज की शुरुआत ही तीन ऐतिहासिक फैसलों से की। उनकी कैबिनेट की पहली बैठक में ही पत्थलगड़ी से जुड़े मुकदमे वापस लेने, सीएनटी-एसपीटी एक्ट से जुड़े मामलों को खत्म करने और राज्य के छह लाख अनुबंधकर्मियों का बकाया भुगतान करने का फैसला किया गया। इन फैसलों से पत्थलगड़ी से जुड़े मुकदमों में फंसे करीब 10 हजार लोगों को राहत मिली है। ये लोग अपना घर-बार छोड़ कर भटकने के लिए मजबूर थे। इसके साथ ही हेमंत ने खरसावां गोलीकांड समेत झारखंड के तमाम शहीद परिवारों के एक सदस्य को नौकरी देने की घोषणा कर साबित कर दिया कि उनका शासनकाल कैसा होनेवाला है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने विपक्षी नेताओं को अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुला कर खुद को विपक्षी खेमे का सबसे बड़ा आदिवासी नेता भी साबित कर दिया है। इससे न केवल झारखंड का महत्व राष्ट्रीय राजनैतिक फलक पर बढ़ा, बल्कि हेमंत की छवि भी बेहतर हुई है।

अब सवाल है कि क्या भाजपा को यह एहसास है कि झारखंड और छत्तीसगढ़ में लगातार गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री पर दांव लगाकर आदिवासी अधिकारों की उपेक्षा से क्या चूक हो गई।

भाजपा के एक बड़े आदिवासी नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि पार्टी नेतृत्व को आदिवासी वर्ग को जिस तरह महत्व देना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है। उनका कहना है कि झारखंड के परिणाम के बाद भाजपा को आदिवासी समाज को अपने से जोड़ने के लिए नए सिरे से काम करने की जरूरत है। वैसे आदिवासी समाज के बीच वनवासी कल्याण आश्रम समेत आरएसएस के कई सहयोगी संगठन काम करते हैं। वनवासी कल्याण आश्रम की शाखाएं देश भर में हैं और अब तक आठ करोड़ आदिवासियों के कल्याण का दावा है। मध्य प्रदेश के इंदौर में नए साल की शुरुआत में आरएसएस की बैठक हुई। कहा जा रहा है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत की अध्यक्षता में हुई बैठक में वनवासी इलाकों में पैठ और मजबूत करने की रणनीति पर चर्चा हुई।

लेकिन आदिवासी हितों की कैसी अनदेखी हुई, उसकी सबसे बड़ी मिसाल तो झारखंड ही है। करीब ढाई साल पहले झारखंड में तत्कालीन रघुवर दास सरकार छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन की तरफ कदम बढ़ा चुकी थी। विधानसभा से विधेयक पारित भी हो चुका था और राज्यपाल के पास मंजूरी के लिए भेजा जा चुका था। उसी समय झारखंड के करीब चार दर्जन प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों ने एक गोपनीय बैठक कर सरकार के कदम का विरोध किया था। इन आदिवासी अधिकारियों ने सरकार को साफ-साफ बता दिया कि इन दोनों कानूनों में बदलाव किया गया, तो राज्य में कानून-व्यवस्था की गंभीर समस्या पैदा हो जाएगी। लगभग उसी समय सत्ताधारी भाजपा के डेढ़ दर्जन विधायकों ने भी एक बैठक कर सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रयास का विरोध किया और मुख्यमंत्री रघुवर दास को ऐसा करने से मना किया। इन दोनों घटनाओं से भाजपा आलाकमान के भी कान खड़े हुए। रघुवर दास ने कदम पीछे खींचे।

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और आदिवासी समाज रघुवर दास सरकार से छिटकने लगा था। हालांकि लोकसभा चुनाव में इसका कोई असर नहीं दिखा और भाजपा ने आजसू के साथ मिलकर राज्य की 14 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की। इससे रघुवर दास और भाजपा को लगा कि आदिवासी क्षेत्रों में राज्य सरकार के किए काम का सकारात्मक असर हुआ है। लेकिन यह भ्रम था। महज छह महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में राज्य की 28 आदिवासी सीटों में से 26 पर भाजपा हार गई। इतना ही नहीं, कोल्हान से भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया।

जनजातीय राजनीति और आदिवासी समाज की भावनाओं पर गहरी नजर रखने वाले डॉ. प्रणव उरांव बताते हैं कि दरअसल गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री का भाजपा का प्रयोग शुरू से ही विवाद में रहा। इसके बाद रघुवर दास सरकार की पत्थलगड़ी आंदोलन के खिलाफ की गई कार्रवाई से आदिवासी समाज बेहद नाराज हो गया। इस आग में घी का काम किया सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव ने। भाजपा के इन तीनों कदमों ने आदिवासी समाज को उससे दूर कर दिया। इसके अलावा रघुवर दास सरकार के ईसाई मिशनरियों के खिलाफ चलाए गए अभियान और धर्मांतरण निषेध कानून बनाए जाने से भी आदिवासी नाराज हुए।

वैसे, आदिवासियों को अपनी ओर खींचने के लिए भाजपा ने एक समय आदिवासी नेतृत्व को बढ़ाया था। झारखंड के आदिवासी नेता कड़िया मुंडा को लोकसभा उपाध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन बाद में आदिवासी नेताओं को महत्व नहीं मिला। छत्तीसगढ़ में भाजपा के राज में समय-समय पर आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग होती रही। नंदकुमार साय, रामविचार नेताम और ननकीराम कंवर जैसे आदिवासी नेता परोक्ष तौर पर राज्य में आदिवासी नेतृत्व के लिए आवाज बुलंद करते रहे। एक बार ननकीराम कंवर ने आदिवासी नेतृत्व के लिए लॉबिंग कर आलाकमान तक संदेश पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हुए। आदिवासी नेतृत्व के काट के लिए भाजपा ने जरूर राज्य इकाई का अध्यक्ष आदिवासी वर्ग को दे दिया। संयुक्त मध्य प्रदेश में भी आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग चली। एक बार आदिवासी वर्ग के प्यारेलाल कंवर और दूसरी बार जमुना देवी को उप-मुख्यमंत्री बनाकर मांग शांत कर दी गई। छत्तीसगढ़, त्रिपुरा और झारखंड जैसे आदिवासी राज्यों में भाजपा ने गैर-आदिवासी को मुख्यमंत्री बना दिया। इसका तत्काल असर तो नहीं दिखा, लेकिन बाद में परिणाम सामने आए। भाजपा के एक आदिवासी नेता का कहना है, “आदिवासी नेतृत्व को तवज्जो मिलता तो महाराष्ट्र और झारखंड में परिणाम कुछ और होते।” लोकसभा की 47 आदिवासी सीटों में से 31 पर भाजपा के सांसद हैं। 2014 में भाजपा के 27 आदिवासी सांसद थे। भाजपा के अनुसूचित जनजाति मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविचार नेताम मानते हैं कि आदिवासी समाज को पार्टी से जोड़ने के लिए नए सिरे से काम करना होगा। गुजरात में आदिवासी वोटरों की संख्या 12 प्रतिशत के आसपास है। यहां 182 में से 27 ट्राइबल सीटें हैं, लेकिन 40 सीटों पर उनकी निर्णायक भूमिका रहती है। राजस्थान की 200 में से 25 आदिवासी सीटें हैं। 2018 के चुनाव में भाजपा की नजर आदिवासी वोटरों पर थी, लेकिन कांग्रेस के पक्ष मे 12 सीटें आईं। भाजपा को नौ सीटें मिलीं। हिमाचल प्रदेश में भी तीन सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं।    

आदिवासी बहुल राज्यों में सुरक्षित सीटों के अलावा दूसरे कई विधानसभा क्षेत्रों में आदिवासी वोटर निर्णायक होते हैं। मध्य प्रदेश में 53 सामान्य सीटों पर आदिवासी वोटर निर्णायक होते हैं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज के दो सदस्य सामान्य सीटों से चुनकर विधानसभा में पहुंचे हैं। मध्य प्रदेश के आदिवासी इलाकों में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के नाम पर उभरी नई ताकत और आदिवासी युवाओं में राजनैतिक चेतना जगाने के कारण चर्चा में आए कांग्रेस के विधायक डॉ. हीरालाल अलावा का कहना है कि कांग्रेस आदिवासियों के प्रति नरम रुख अपनाती है। जयस का मुख्य उद्देश्य पांचवीं अनुसूची में लिखे अधिकार आदिवासियों को दिलाना और आदिवासी संस्कृति की रक्षा करना है। पढ़ा-लिखा आदिवासी युवा संसाधनों पर अधिकार और रोजगार चाहता है। जल-जंगल और जमीन की लड़ाई है। उनका कहना है कि भाजपा पांचवीं अनुसूची का पालन ठीक से नहीं करती। पूर्व प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी और कांग्रेस के नेताओं ने आदिवासियों को जोड़ने के लिए अभियान चलाया। इससे आदिवासियों का कांग्रेस की तरफ झुकाव बढ़ा, लेकिन कांग्रेस ने भी पांचवीं अनुसूची वाले राज्यों में आदिवासी नेतृत्व को कमान नहीं सौंपी। कांग्रेस ने ओडिशा में 1999 में गिरिधर गमांग को मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन उनका कार्यकाल ज्यादा नहीं रहा। मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री की रेस में अर्जुन सिंह से आदिवासी नेता दिवंगत शिवभानु सिंह सोलंकी पिछड़ गए। कांग्रेस ने 2000 में छत्तीसगढ़ में आदिवासी नेता के तौर पर राज्य का पहला मुख्यमंत्री अजीत जोगी को बनाया। जोगी के आदिवासी होने पर सवाल अभी तक सुलझे नहीं हैं और अब कांग्रेस के नेता ही उन्हें आदिवासी नहीं मानते। भाजपा ने झारखंड में बाबूलाल मरांडी को राज्य का पहला मुख्यमंत्री बनाया। इसके बाद अर्जुन मुंडा तीन बार मुख्यमंत्री रहे। 35 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड अर्जुन मुंडा के नाम दर्ज है। वर्तमान में अर्जुन मुंडा केंद्र में जनजातीय मामलों के मंत्री हैं। राज्य गठन के बाद से ही आदिवासी मुख्यमंत्री दिखे लेकिन झारखंड में भाजपा ने 2014 में पिछड़े वर्ग के नेता रघुवर दास को मुख्यमंत्री बना दिया। माना जा रहा है भाजपा का यह फैसला सही नहीं रहा और 2019 के चुनाव में सत्ता उसके हाथ से निकल गई। आदिवासी बहुल राज्य में ओबीसी को कमान सौपने से जनजाति समाज की नाराजगी चुनाव नतीजे में निकली।

2011 की जनगणना के अनुसार पूरे देश में 12 करोड़ आदिवासी हैं। अधिकांश आदिवासी खेती कर जीवन यापन करते हैं या फिर जंगल पर निर्भर होते हैं। पांचवीं अनुसूची के राज्य आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान में कुल आबादी का 20 से 22 फीसदी जनसंख्या आदिवासी हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्य नक्सल समस्या के कारण विकास से दूर हैं। आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वालों का कहना है कि इन इलाकों का विकास शहरीकरण के तरीके से नहीं हो सकता। आदिवासियों की संस्कृति और परंपरा को सहेजते हुए विकास करना होगा। मनीष भट्ट का कहना है कि नक्सली घटनाओं के पीछे की सोच को बदलनी होगी। किसी एक घटना के लिए गांव के सभी आदिवासियों को नक्सल समर्थक मान लेना गलत है। शैलेश टोप्पो का मानना है कि आदिवासी क्षेत्रों में कुटीर और लघु उद्योगों को बढ़ावा देकर आदिवासियों को मजबूत बनाया जा सकता है। आदिवासी इलाकों में खनन के लिए आदिवासियों और सरकार के बीच संघर्ष चलता ही रहता है। छत्तीसगढ़ के बैलाडीला इलाके में लौह अयस्क की खुदाई या फिर ओडिशा के सुंदरगढ़ इलाके में आदिवासियों की नाराजगी एक जैसा ही है। टाइगर रिजर्व के नाम पर आदिवासियों का विस्थापन एक बड़ी समस्या है। कई साल से जिस जमीन पर आदिवासी रह रहे हैं, खेती कर रहे हैं, उनको जमीन के स्थायी पट्टे देने के लिए 2006 में वनाधिकार कानून बनाया गया। यह मामला अभी लटका है। इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी लंबित है।

आजादी के बाद से आदिवासियों के लिए कई योजनाएं बनाई गईं, लेकिन आज भी आदिवासी इलाकों में एनीमिया, कुपोषण, पलायन और अशिक्षा की समस्या गंभीर है। छत्तीसगढ़ में एनीमिया और कुपोषण के मामले 37 फीसदी हैं, लेकिन आदिवासी इलाकों में यह आंकड़ा 57 फीसदी तक जा पहुंचा है। आदिवासी समाज शांत और सरल है, लेकिन उग्र होता है तो बदलाव की भी ठान लेता है। आदिवासी बहुल राज्यों में समस्याएं अनेक हैं। इनके समाधान के लिए जन चेतना के साथ राजनैतिक बदलाव और सत्ता में उनकी भागीदारी भी बढ़ानी होगी। कांग्रेस ने आदिवासी नेतृत्व को महत्व न देकर उनके प्रभाव वाले राज्यों में जनाधार खोया, जिसका फायदा भाजपा को मिला। भाजपा भी आदिवासी नेतृत्व को आगे बढ़ाने की जगह पुराने ढर्रे पर ही चली, जिसके चलते आदिवासियों के प्रभाव वाले राज्यों को गंवाया। आदिवासी कांग्रेस पर दोबारा भरोसा करने लगे हैं। इसका नमूना मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ है। कुछ हद तक राजस्थान में भी आदिवासी समाज कांग्रेस के साथ दिखने लगा है, लेकिन ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और अब झारखंड में क्षेत्रीय दलों को आदिवासी समाज का साथ मिला। 

दरअसल, आदिवासी समाज अभी भी ऊहापोह में है और अक्सर उसके मुद्दे-मसले अनछुए रह गए हैं, बल्कि मुख्यधारा के दलों से वह ठगा हुआ-सा ही महसूस करता रहा है। इसी वजह से वहां लगातार उथल-पुथल दिखती रही है और राजनैतिक रुझान भी बदलते रहे हैं। अति-वामपंथ की ओर रुझान भी शायद इसी वजह से रहा है। इसलिए अब आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के मुद्दों पर अगर मुख्यधारा के दल गंभीरता नहीं दिखाते तो उन्हें नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। इसलिए वक्त है कि आदिवासी समाज की बेचैनी समझी जाए।

 5वीं अनुसूची क्षेत्र कहां-कहां

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर के राज्य

अनुसूचित क्षेत्र घोषित करने के मानदंड

जनजातीय आबादी की प्रधानता क्षेत्र की सघनता और उचित आकार दूसरे क्षेत्रों की तुलना में आर्थिक पिछड़ापन

 

आदिवासी संस्कृति के बहानेः

छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल सरकार ने आदिवासियों में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए रायपुर में 27 से 29 दिसंबर तक अंतरराष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव का आयोजन किया। इसमें 25 राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों के कलाकार तो थे ही, एक साथ छह देशों के कलाकारों ने अलग-अलग विधा का प्रदर्शन कर समां बांधा। महोत्सव में कांग्रेस के सांसद राहुल गांधी और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल समेत सत्ता से जुड़े और विरोधी दल के नेता भी थिरके। 39 जनजातीय प्रतिभागी दल 4 विभिन्न विधाओं में 43 से अधिक नृत्य शैलियों का प्रदर्शन किया। आयोजन में लगभग 1350 कलाकारों ने हिस्सा लिया। बघेल ने हर साल यह महोत्सव कराने का ऐलान किया।

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