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इलाज का बीमा मॉडल तो महज प्रचार का झुनझुना

अमेरिका में भी बीमा मॉडल से 20-30 फीसदी लोगों को ही मिलती है सुविधा, ज्यादा फायदा तो कंपनियों को ही। सो, ओडिशा, तेलंगाना, केरल, दिल्ली और पंजाब सरकारों ने आयुष्मान योजना से किया किनारा
मिसालः दिल्ली सरकार का मोहल्ला क्लिनिक

फरवरी 2018 में जब लोकसभा में बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री ने स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा की तब लोगों को सुनने में यह मोदी की ‘मास्टर स्ट्रोक’ योजना लगी। आयुष्मान भारत नाम की इस बीमा योजना को दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना बताया गया। लेकिन घोषणा के कुछ ही दिनों के अंदर इस पर सवाल खड़े होने लगे। एक तो विश्लेषकों को शुरू में समझ ही नहीं आया कि 12 हजार करोड़ से ज्यादा की इस महत्वाकांक्षी बीमा योजना में राशि आवंटन की क्या व्यवस्था होगी। दूसरे, इस योजना के लाभ के लिए ‘प्रीमियम’ कौन चुकाएगा? जैसे ही यह बात साफ हो गई कि ‘मोदी हेल्थकेयर’ के नाम से प्रचारित इस बीमा योजना में केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी 30-40 प्रतिशत राशि खर्च करनी है। ओडिशा, तेलंगाना, केरल, पंजाब और दिल्ली की सरकारों ने इसे आयुष्मान भारत के नाम पर बड़ी बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने वाली योजना बता कर अपना पल्ला झाड़ लिया।

विडंबना यह है कि जन स्वास्थ्य या आम लोगों की सेहत के नाम पर आजादी के बाद से ही या तो बजट का खेल चला या स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में ढकेल देने की कवायद हुई। लगभग दोनों ही पहल से न तो देश के लोगों का स्वास्थ्य सुधरा और न ही चिकित्सा व्यवस्था मजबूत हुई। कायदे से जन स्वास्थ्य की एक ठोस नीति भी हम नहीं बना पाए। शुरू से अब तक कांग्रेस या भाजपा के गठबंधन की सरकारों की प्राथमिकता में भी स्वास्थ्य कभी नहीं दिखा। इन राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा-पत्र या विजन डॉक्यूमेंट देख लें तो उसमें भी स्वास्थ्य कोई गंभीर मुद्दा नहीं रहा। ऐसे में अरबों रुपये खर्च कर भी यदि हम आज लोगों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी पूरी नहीं कर पा रहे हैं, तो यह संविधान की अवहेलना भी है।

हालांकि, जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों के विभिन्न प्रभावशाली समूहों ने समय-समय पर अपने सुझाव सरकारों को दिए हैं, लेकिन उस पर कभी किसी सरकार ने गंभीरता से विचार नहीं किया। जन स्वास्थ्य अभियान, हेल्थ एजुकेशन आर्ट लाइफ फाउंडेशन (हील) की मुहिम ‘अपना स्वास्थ्य-अपने हाथ’ वालेंट्री हेल्थ एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ‘जहां डाक्टर न हो’ जैसे दर्जनों अभियान से कभी किसी सरकार ने बात तक नहीं की, जबकि ये मॉडल अपने स्तर पर बेहद कामयाब और लगभग सौ फीसदी परिणाम दे रहे हैं।

आइए, थोड़ी चर्चा “सबको स्वास्थ्य-सब जगह” के इन लघु अभियानों पर कर लें, ताकि स्पष्ट हो सके कि ये मॉडल वास्तव में कितना कारगर हैं। महाराष्ट्र के आदिवासी इलाके “गढ़चिरौली” में डॉ. अभय बंग और डॉ. रानी बंग के नेतृत्व में “आरोग्य स्वराज” का एक प्रभावशाली प्रयोग आज भी सफलता के कीर्तिमान स्थापित किए हुए हैं। सर्च नामक संस्था बनाकर डॉ. बंग दंपती ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में न केवल लोगों के लिए एक रुपये में स्वास्थ्य जांच की एक व्यापक गैर सरकारी सुविधा उपलबध करा दी, बल्कि नशा उन्मूलन, मां-बच्चा देखभाल, जीवन विद्यालय, चल चिकित्सालय आदि के सफल प्रयोग के उदाहरण भी प्रस्तुत किए। डॉ. बंग के इस जन स्वास्थ्य मॉडल को 12वीं पंचवर्षीय योजना में शामिल भी किया गया, लेकिन सरकारी अफसरशाही की हठधर्मिता ने मामले को ठंडे बस्ते में दबा दिया गया।

जन स्वास्थ्य के सफल मॉडल के रूप में बिहार का 2013 का “जन स्वास्थ्य-जन भागीदारी-सबकी जिम्मेवारी” अभियान भी देखा जा सकता है। बिहार के तात्कालिक प्रमुख स्वास्थ्य सचिव व्यास जी के साथ मिलकर हम लोगों ने एक व्यापक जन स्वास्थ्य सुरक्षा योजना बनाई थी। “दस का दम” नामक इस योजना में दस बिंदुओं पर जन स्वास्थ्य के विभिन्न मुद्दों को प्रदेश के हर प्रखंड-पंचायत में पहुंचाने की व्यवस्था इतनी अच्छी थी कि दो लाख 40 हजार पंचायत प्रतिनिधियों ने इसमें अपना योगदान सुनिश्चित किया। बिहार में “शराबबंदी” भी इसी योजना का हिस्सा है। हम लोगों ने पूर्ण नशाबंदी की बात की थी लेकिन सरकार ने शराबबंदी को ही स्वीकार किया। इस अभियान से यह तो स्पष्ट हो गया कि बिहार जैसे बड़े प्रदेशों में भी जन स्वास्थ्य की स्वावलंबी योजना को थोड़ी मेहनत और एक मजबूत इच्छाशक्ति से लागू किया जा सकता है।

सबको स्वास्थ्य और सुलभ इलाज उपलब्ध कराने की योजना में हमारी सरकार “क्यूबा मॉडल” की भी मदद ले सकती है। क्यूबा मॉडल अमेरिका की महंगी स्वास्थ्य व्यवस्था के जवाब में तैयार हुई। अमेरिका में पांच सितारा स्वास्थ्य व्यवस्था में महज 20-30 प्रतिशत लोग ही स्वास्थ्य हासिल कर पा रहे हैं, जबकि क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था में अमेरिकी बजट के मात्र 8-10 प्रतिशत राशि में ही 100 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाएं एकदम सस्ती या मुफ्त में उपलब्ध हो रही हैं।

प्रिर्वेटिव स्वास्थ्य मॉडल में एलोपैथी के साथ-साथ आयुष पद्धति की चिकित्सा व्यवस्था को भी महत्व देने की बात है। होमियोपैथी, आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग और अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की मदद से जुकाम, खांसी, बुखार, एलर्जी, दस्त, फ्लू आदि रोगों को बेहद कम खर्च तथा बिना हानिकारक प्रभाव के कम समय में ठीक किया जा सकता है। इसके लिए ‘फर्स्ट एड किट’ और सहज उपलब्ध जरूरी होमियोपैथिक दवाओं को भी प्रचारित करने की बातें हुईं। आयुष मंत्रालय की पहल पर कई जरूरी होमियोपैथिक दवाओं को ‘ओवर द काउन्टर ड्रग’ (ओटीसी दवा) के रूप में उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है।

आजादी के बाद पहली बार देखा जा रहा है कि निजीकरण और बाजारीकरण की मजबूत घेरेबंदी के बावजूद आम आदमी पार्टी की सरकार ने स्वास्थ्य सेवा को आम लोगों के लिए शत-प्रतिशत मुफ्त कर दिया है। दिल्ली सरकार की ‘मोहल्ला क्लिनिक’ की संकल्पना, प्राथमिक स्तर पर स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने पर आधारित है। दिल्ली में लगभग 18 से 20 हजार की आबादी पर मोहल्ला क्लिनिक का प्रावधान है। दिल्ली में अब तक 333 मोहल्ला क्लिनिक शुरू किए गए हैं। दिल्ली सरकार का दावा है कि एक करोड़ लोग ‘मोहल्ला क्लिनिक’ का लाभ ले चुके हैं। यही नहीं, सरकार ने अस्पतालों में बिलिंग काउन्टर भी खत्म कर दिए हैं। यानी इलाज पूरी तरह मुफ्त है, जो दूसरे राज्यों के लिए अच्छा उदाहरण बन सकता है।

उत्तराखंड में सक्रिय स्वयंसेवी संस्था हेल्थ एजुकेशन, ऑर्ट लाइफ फाउन्डेशन (हील) ने “अपना स्वास्थ्य अपने हाथ” नामक योजना की शुरुआत की है। इस योजना में एक स्वास्थ्य निर्देशिका के माध्यम से स्थानीय भाषा में आम लोगों को जीवन में होने वाले आपात रोगों और उससे बचाव के घरेलू तरीकों का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। “उत्तराखंड जन स्वास्थ्य निर्देशिका एवं प्राथमिक चिकित्सा बाक्स को जनसुलभ कराने और वितरित करने की योजना है। इससे उत्तराखंड सहित देश के अन्य उपेक्षित प्रदेशों में वहां के गरीब और आम लोगों को तो कम से कम स्वास्थ्य रक्षा तथा प्राथमिक स्वास्थ्य के मामले में आत्मनिर्भर तो बनाया ही जा सकता है।

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है, जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबों और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी दूर है, जिनकी संख्या कुल आबादी की करीब तीन-चौथाई है। पंचवर्षीय योजनाओं ने निरंतर स्वास्थ्य को कम आवंटन किया है (कुल बजट के अनुपात के संदर्भ में)। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। उस पर भी ग्रामीण क्षेत्र में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की मूल दिशा परिवार नियोजन और शिशु जीविका तथा सुरक्षित मातृत्व (सीएसएसएम) जैसे राष्ट्रीय कार्यक्रमों की ओर मोड़ दी गई है, जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा कागजी लक्ष्यों के रूप में देखा जाता है। एक अध्ययन के अनुसार प्राइमरी हेल्‍थ सेंटर का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है।

लोगों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य सेवा की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है। साथ ही, स्वास्थ्य संबंधी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक के बाद शुरू हुई, जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को खोला गया। चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन लगातार घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को दिया जाता है जो एक फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है, जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास संबंधी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है। इस वर्ष विश्व स्वास्थ्य दिवस (7 अप्रैल) का थीम है-“यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज-एवरीवन एवरीवेयर।” यानी सबके लिए सब जगह एक जैसा स्वास्थ्य। नारा अच्छा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की दृढ़ इच्छा भी होगी, लेकिन दुनिया भर की सरकारों का कुछ पता नहीं कि सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की उन्हें वास्तव में कितनी चिंता है? भारत में कोई तीन दशक पहले हमारी सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मिलकर घोषणा की थी-“2000 तक सबके लिए स्वास्थ्य”। 2000 बीत गया न तो सबको स्वास्थ्य मिला और न ही कोई पूछने वाला है कि हजारों करोड़ रुपये खर्च कर इस नारे को रट रहे थे तो फिर सबके स्वास्थ्य की बात कहां छूट गई?  सरकारी संकल्पों की यह स्थिति कोई नई नहीं है और न ही इन संकल्पों के नाम पर सार्वजनिक धन की लूट। बहरहाल, अब रोगों की वैश्विक चुनौती ने पूरी दुनिया को आशंकित कर दिया है, तो संकल्प को पुनः दोहराने की मजबूरी लाजिमी है।

अगर हम अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की वास्तव में चिंता करते हैं तो जनपक्षीय स्वास्थ्य नीति और जन सुलभ सहज स्वास्थ्य सुविधाएं स्थापित करने की पहल एक अच्छा कदम है। राजनीति से ऊपर उठकर सरकारें अगर चाहें तो आम आदमी की सेहत सुधर सकती है। कम से कम स्वास्थ्य सेवाएं तो सुलभ हो ही सकती हैं। बढ़ती बीमारियों और महंगी स्वास्थ्य सेवाओं से निजात पाने में स्वास्थ्य बीमा से ज्यादा सुलभ लोगों के लिए मुफ्त या फिर सस्ती चिकित्सा सुविधाएं काफी कारगर हो सकती हैं। इससे “सबके लिए उम्दा स्वास्थ्य-सब जगह” का विश्व स्वास्थ्य संगठन का सपना भी पूरा हो सकता है।

 (लेखक जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता और होमियोपैथिक चिकित्सक हैं)

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