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दरकती ममता की दीवार

भाजपा के उग्र तेवर को देखते हुए तृणमूल कांग्रेस के लिए विधानसभा चुनावों तक गढ़ बचाने की चुनौती
मोदी, ममता के पोस्टर वाली साड़ियां

पश्चिम बंगाल में  एक बार फिर से 2009 का इतिहास दोहराया गया है, उस वक्त जिस तरह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथी गढ़ में सेंध लगाई थी, ठीक वैसा ही 2019 में भारतीय जनता पार्टी ने किया है। इस बार भाजपा को राज्य की कुल 42 लोकसभा सीटों में से 18 पर जीत मिली है। पार्टी के लिए न केवल दो सीटों से बढ़कर 18 सीटों का सफर सुनहरे सपने जैसा है, बल्कि यह जीत इसलिए भी मायने रखती है कि उसने सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस से 16 सीटें छीन ली हैं। तृणमूल को 22 सीटों पर जीत मिली है। इन नतीजों का एक संकेत यह भी है कि वामपंथी दलों और कांग्रेस पार्टी की उदार-धर्मनिरपेक्ष राजनीति भी ढलान की ओर है। चुनाव के आखिरी दौर में राज्य भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष द्वारा गढ़ा गया “2019 में हाफ, 2021 में साफ” का नारा परिणामों के बाद अब काफी संभव लगने लगा है। यह नारा दक्षिण बंगाल के ग्रामीण इलाकों में काफी लोकप्रिय हो चुका है। शायद इसी उत्साह के बल पर घोष ने घोषणा की, अब उनका लक्ष्य ममता बनर्जी को जल्द से जल्द सत्ता से बेदखल करना है। हम जिस इतिहास की बात कर रहे हैं, वह 2009 में सिंगूर-नंदीग्राम में हिंसक वाम-विरोधी किसान आंदोलनों के दौरान बना था। उस वक्त तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में 19 सीटों पर कब्जा किया था। इसके बाद से पश्चिम बंगाल में वामपंथियों को हराने और सत्ता पर कब्जा करने में टीएमसी के सामने कोई बाधा नहीं आई। हालांकि ऐसा करने के लिए, उसे 2011 के विधानसभा चुनाव तक इंतजार करना पड़ा था। लेकिन मौजूदा समय 2009 से बिलकुल अलग है। नतीजों के बाद भाजपा अब जल्दबाजी में है। वह 2021 के विधानसभा चुनावों तक इंतजार करने के मूड में बिलकुल नजर नहीं आ रही है। चुनावों के बाद ऐसा हो सकता है, इसका संकेत खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी चुनावी रैलियों में दिया था। उस वक्त मोदी ने कहा था कि तृणमूल के 40 विधायक हमारे संपर्क में हैं। अब भाजपा के दिलीप घोष कह रहे हैं कि उनका तात्कालिक लक्ष्य ममता के शासन को जल्द से जल्द खत्म करना है।

जश्न मनाते भाजपा समर्थक

भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष जयप्रकाश मजूमदार का मानना है कि वाम दलों और टीएमसी के बीच उनकी वैचारिकता सबसे बड़ी खाई थी। इसी वजह से 2009 में हार के बावजूद वाम दल के नेता और कार्यकर्ता पार्टी में बने रहे। लेकिन अब वैसी परिस्थितियां नहीं हैं। मजूमदार का कहना है, “तृणमूल नेताओं की कोई विचारधारा या सिद्धांत नहीं है। केवल एक चीज जो उन्हें एक साथ रखती है वह है सत्ता की गोद। इसलिए, जब उन्हें लगेगा कि तृणमूल में रहकर उन्हें सत्ता का फायदा नहीं मिलेगा, तो वे तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर हमारी पार्टी की ओर रुख करेंगे, उस वक्त हम उन्हें हतोत्साहित नहीं करेंगे।” इस मामले में तृणमूल कांग्रेस के पूर्व नेता मुकुल रॉय की अहम भूमिका रहने वाली है। उन्होंने जिस तरह से पहले तृणमूल के लिए कांग्रेस और वाम दलों के नेताओं को अपनी ओर खींचा, वैसा ही वह अब भाजपा के लिए कर सकते हैं। उनके निशाने पर खास तौर से ऐसे नेता होंगे जो नारद स्टिंग ऑपरेशन और शारदा घोटाले में जांच के दायरे में हैं। तृणमूल से नेताओं को कैसे भाजपा में शामिल किया जा सकता है, इसकी बानगी भी 28 मई को देखने को मिल गई, जब तृणमूल के दो, माकपा का एक विधायक और 60 से ज्यादा पार्षद भाजपा में शामिल हो गए।

राजनीति विज्ञानी सब्यसाची बसु रायचौधरी कहते हैं, “देखना यह है कि क्या अब तृणमूल से बड़ी संख्या में नेता भाजपा की ओर रुख करते हैं।” चुनाव परिणाम ममता बनर्जी के लिए बहुत बड़ा झटका है, भाजपा न केवल 18 सीटों पर जीती है, बल्कि उसने 40 फीसदी वोट भी हासिल किए हैं। वहीं, तृणमूल कांग्रेस को 43.3 फीसदी वोट मिले हैं। जबकि 2014 में तसवीर पूरी तरह से अलग थी, उस वक्त तृणमूल कांग्रेस को 34 और भाजपा को केवल दो सीटें मिलीं थीं। लेकिन 2019 में जिस तरह से हवा का रुख बदला है, उसे देखते हुए ममता के लिए कई चुनौतियां खड़ी होने वाली हैं।

इस तरह के दबाव में ममता सरकार के लिए बचे दो साल में अपनी नीतियों को लागू करना आसान नहीं होगा। अगर ऐसा होता है तो राज्य में ममता के खिलाफ नाराजगी भी बढ़ सकती है, जिसका फायदा उठाने  में  भाजपा कोई कोताही नहीं बरतेगी। चौधरी के अनुसार, रमजान और ईद के महीने में इस बात का भी अंदेशा है कि जरा सी कोई राजनीतिक चूक राज्य में सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ सकती है। इस आशंका  पर घोष का कहना है, “राज्य में जो भी होगा, वह राज्य के लोगों द्वारा ही किया जाएगा।” राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) मामले को भी पश्चिम बंगाल में भाजपा मुद्दा बनाकर मुस्लिमों के खिलाफ इस्तेमाल कर सकती है।

अमर्त्य सेन के प्रतीची संस्थान के वरिष्ठ अनुसंधानकर्ता शब्बीर अहमद कहते हैं, “एनआरसी को लेकर असम में जिस तरह मुस्लिमों का अनुभव रहा है, उसे देखते हुए बंगाल के मुस्लिमों में काफी आशंकाएं हैं। हालांकि भाजपा ने राज्य में पढ़े-लिखे मुस्लिमों में अपनी छवि में बदलाव के लिए, खास तौर से मध्यम वर्गीय मुसलमानों को लुभाने के लिए जंगीपुर से महफूज खातून और मुर्शिदाबाद से हुमायूं कबीर को लोकसभा चुनावों मंे प्रत्याशी के रूप में मैदान मंे उतारा। इसके अलावा पिछले साल भाजपा ने पंचायत चुनावों में 600 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था। हालांकि यह सब कदम केवल सांकेतिक ही थे। चुनावों में मिले वोट प्रतिशत से साफ है कि राज्य में वामदलों और कांग्रेस की जगह अब भाजपा ने हासिल कर ली है। इससे साफ है कि अब राज्य में तृणमूल और भाजपा ही दो धुरी बन गए हैं, इनमें ही अब लड़ाई है।

साथ में प्रशांत श्रीवास्तव

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