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जनादेश 2022/ उत्तर प्रदेश: बड़े लड़ैयों का रण-क्षेत्र

किसानों से लेकर बेरोजगारी तक मुद्दे तो अनेक, लेकिन लड़ाई सांप्रदायिक और अगड़ा-पिछड़ा गोलबंदी पर लाने की कोशिश
इस चुनाव में अखिलेश अपनी पूरी ताकत दिखा रहे हैं

यकीनन सबसे बड़ी लड़ाई का यह रण-क्षेत्र सिर्फ आंकड़ों में ही विराट नहीं है, आप इस भारत-भूमि में जितने तरह की सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक-राजनैतिक संरचनाओं और दरारों की कल्पना कर सकते हैं, वे सब इसमें हैं, बल्कि कुछ इस कदर बढ़कर हैं कि कोई दूसरा उसका जोड़ नहीं है। आंकड़ों के तो क्या कहने। 80 सांसद, 403 विधायक कई मायनों में देश की तकदीर तय करने में अहम भूमिका निभाते हैं, खासकर केंद्र में मौजूदा सत्ता की तो मानो नींव ही इस पर टिकी है। फिर, तकरीबन 22 करोड़ आबादी इस कदर साफ-साफ क्षेत्रों में और अनगिनत जातियों-उपजातियों, खाप-गोत्र में बंटी हुई है कि धार्मिक दीवारें भी बमुश्किल उनमें भेद कर पाती हैं। यहां पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, रुहेलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश अलग-अलग सामाजिक-भौगालिक वाले ऐसे इलाके हैं, जिनमें खुद में भी कई अलग-अलग क्षेत्र और उनकी अपनी खासियतें हैं। यहां धर्म और जाति का कोई वर्ग इतना कमजोर भी नहीं हैं कि सत्ता की सीढ़ी उससे होकर न गुजरे। सवर्ण करीब 15-18 प्रतिशत माने जाते हैं तो पिछड़े 50 प्रतिशत से ज्यादा, दलित 20-22 प्रतिशत और मुसलमान भी 20 प्रतिशत के आसपास बताए जाते हैं। शायद इसी वजह से इन विधानसभा चुनावों में ‘80:20’ और ‘85:15 और 15 में भी टूट’ जैसे संख्यागत नारों के इर्द-गिर्द गोलबंदी की कोशिशें सुनाई पड़ती हैं।

जाहिर है, इसके मायने समझना हल्के जानकार के लिए भी मुश्किल नहीं है, सूबे का सामान्य से सामान्य आदमी तो यकीनन इसके अर्थ फौरन भांप जाता है। इसी ध्रुवीकरण और गोलबंदी की कोशिशों के आसपास इस सूबे की चुनावी बिसात ऐसे बिछाई जा रही है कि महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कोरोना की खासकर दूसरी लहर में गंगा में बहती लाशों, किसानों के मसले या आवारा पशुओं के असली मुद्दे कुछ कम प्रभाव पैदा करें। जो ये मुद्दे उठा भी रहे हैं, खासकर सपा-रालोद और कुछ छोटी पार्टियों के गठबंधन, वे भी गोलबंदी की कोशिशों पर ज्यादा भरोसा करते दिखते है। बेशक, सत्तारूढ़ भाजपा की ओर से बनारस, मथुरा वगैरह के जरिए अपनी पुरानी तरह के ध्रुवीकरण के प्रयास हुए (इसमें तथाकथित धर्म संसदों का मामला भी जोड़ सकते हैं)। ‘80:20’ का बयान तो खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ही है। लेकिन जैसे ही मुख्य विपक्षी ताकत समाजवादी पार्टी (सपा) के मोर्चे से ‘85:15’ की लामबंदी शुरू हुई, भाजपा की अब तक चुनावी उम्मीदवारों की जारी फेहरिस्त में पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों की संख्या बढ़ती गई। बेशक, यह कोई बताने की बात अब नहीं रह गई है कि हर पार्टी के निशाने पर हर विधानसभा क्षेत्र के हिसाब से जातिगत उम्मीदवारों का चयन होता है। यहां तक कि मुसलमानों में अगड़े और पिछड़े (पासमांदा) का खयाल रखा गया है। खासकर बहुजन समाज पार्टी की फेहरिस्त देखें तो यह बेहद साफ हो जाता है। गणित यह भी है कि सूबे में मुसलमानों का रुझान भाजपा को तगड़ी टक्कर देने वाले सपा की ओर दिख रहा है तो उसमें कैसे सेंध लगाई जाए।

योगी का दलित भोजन प्रेम

योगी का दलित भोजन प्रेम

जाहिर है, भाजपा, सपा, बसपा ही राज्य की राजनीति के मुख्य किरदार हैं। कांग्रेस हाशिए से उठने की अलग तरह की कोशिश में लगी है। अब तो यह मोटे तौर दिखने लगा है कि मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा गठबंधन के बीच ही सीधा दिख रहा है। कांग्रेस ने भी बड़ी कोशिशें कीं, मगर वह अब भी हाशिए पर ही दिख रही है। बसपा भी मुख्य मुकाबले से बाहर दिख रही है और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ती दिख रही है। हालांकि उसे कमतर आंकना जल्दबाजी हो सकती है क्योंकि दलितों, खासकर जाटवों के उससे बिछड़ने के संकेत अभी नहीं मिल रहे हैं। दलितों पर जैसे जुल्मो-सितम की घटनाएं पिछले दिनों हुई हैं, उससे उनमें नाराजगी पर मरहम लगाने वाला भला और कौन दिखता है। संभव हो, दलितों के बीच पिछले तीन चुनावों 2014, 2017 और 2019 में जो रुझान भाजपा की ओर दिखा था, उसकी वापसी हो। सपा गठबंधन कुछ पा सकता है लेकिन चंद्रशेखर आजाद रावण की बात न बनने से उसका रुझान दलित वोट हासिल करने पर कम दिख रहा है। कांग्रेस जरूर कोशिश कर रही है और उसने उम्मीदवार भी उतारे हैं पर उसमें मजबूत लड़ाई का दम नहीं दिखता। इसीलिए बसपा को कमतर नहीं आंका जा सकता।

भाजपा ने राज्य में सत्ता वापसी के लिए पांच साल की अपनी उपलब्धियों के तो ढेरों विज्ञापन जारी किए, लेकिन ये कितने प्रभावी होंगे, कहना मुश्किल है। भाजपा इसी वजह से अपनी चुनावी रणनीति भी बदलती दिख रही है। इधर, भाजपा कार्यकर्ताओं को लाभार्थियों की सूची लेकर घर-घर जाते देखा गया है। वह बनावाए गए शौचालयों, मकानों और कोरोना काल में अनाज वितरण को अपने तरकश के प्रभावी तीर मान रही है। हाल में उसने अनाज वितरण और कई तरह के पेंशन-मुआवजों की बाढ़ लगा दी है। फिर बिजली का मुद्दा सपा गठजोड़ की ओर से उठा तो बिजली का बिल घटाने का वादा भी कर डाला है। कुछ वर्गों के लिए घटाया भी है। इन लाभार्थियों को प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और भाजपा नेताओं की दर्जनों सभाओं में भी जुटाने की खबरें पहले आ चुकी हैं। हालांकि उसने अपने ध्रुवीकरण एजेंडे को छोड़ा नहीं है, जो कैराना से सपा के उम्मीदवार नाहिद हुसैन की एक पुराने मामले में गिरफ्तारी का मामला उठाकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर दंगों की याद ताजा करने की कोशिश भी दिख रही है।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन की वजह से यह घाव भरने लगा था और जाट-मुसलमानों के बीच मनमुटाव मिटने लगा था। यह उसके लिए खतरे की घंटी की तरह है। इसी वजह से सपा-रालोद गठजोड़ किसानों के मुद्दे पर ज्यादा जोर दे रहा है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने सभी फसलों की एमएसपी पर खरीद, सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली और गन्ने का भुगतान 15 दिन के भीतर करने का वादा किया है। अखिलेश 300 यूनिट तक घरेलू बिजली माफ करने का वादा भी दोहरा रहे हैं और इसके लिए उन्होंने समूचे राज्य में सभी से अपना नाम सपा गठबंधन कार्यकर्ताओं की सूची में लिखाने की अपील की है। ये कार्यकर्ता घर-घर जाएंगे। यह शायद भाजपा की लाभार्थियों तक पहुंचने की काट की तरह पेश किया गया है।

इसके अलावा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर जैसे कई छोटे दलों से गठबंधन करके सपा लड़ाई को पिछड़ा बनाम अगड़ा बनाने में भी जुटी हुई है। इन दलों से उसे खासकर पूर्वांचल और अवध के हिस्से में बढ़त मिलने की उम्मीद लगाई जा रही है। इस बार अखिलेश ने अपने चाचा शिवपाल के साथ गठजोड़ करके यादवों का वोट भी पक्का करने की कोशिश की है। यही नहीं, वह ब्राह्मणों की खासकर योगी सरकार से नाराजगी को भुनाने के लिए कई ब्राह्मण नेताओं को भी अपने पाले में ले आई है। हरिशंकर तिवारी का परिवार उसमें प्रमुख है। कमलापति त्रिपाठी के पोते ललितेश्वर त्रिपाठी शामिल तो हुए तृणमूल कांग्रेस में लेकिन सपा गठबंधन से उन्हें मिर्जापुर में एक सीट छोड़ने की बातें हवा में हैं। जब पूर्वांचल की सीटों पर मतदान होंगे, तब तृणमूल नेता ममता बनर्जी भी चुनाव के आखिरी दौर में प्रचार के लिए आ सकती हैं। बसपा का भी ब्राह्मणों पर दांव है और वह भी कई ब्राह्मण उम्मीदवार उतार रही है।

सुहेल देव पार्टी के ओपी राजभर

सुहेल देव पार्टी के ओपी राजभर

लेकिन पिछड़े वर्ग से जुड़े पूर्व मंत्रियों स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान तथा धर्म सिंह सैनी समेत कई विधायकों के भाजपा से इस्तीफा देकर सपा के पाले में जाने से माहौल तेजी से बदला है। सवर्ण, गैर-यादव ओबीसी तथा गैर-जाटव दलित के सहारे दुर्जेय सामाजिक-राजनीतिक गठबंधन तैयार करने वाली भाजपा को बसपा से आए नेताओं के सपा में जाने से झटका लगा है। भाजपा ने भी इस तोड़फोड़ के बदले में जवाबी कार्रवाई करते हुए मुलायम सिंह यादव के समधी विधायक समेत सपा के दो एमएलसी को अपने पाले में लाकर इस डेंट के असर को कम करने का प्रयास किया है। भाजपा ने मुलायम यादव की बहू अपर्णा यादव को भी अपने पाले में कर लिया है, लेकिन पार्टी इससे खास माहौल तैयार नहीं कर पा रही है। 

बहरहाल, सभी दल अपने प्रत्याशियों की सूची जारी कर रहे हैं। कांग्रेस ने 125 प्रत्याशियों की अपनी पहली सूची में 50 महिलाओं को टिकट देकर यूपी की आधी आबादी को तवज्जो देने की कोशिश की है और ऐसे उम्मीदवारों को उतारा है, जो लगातार पीड़ित या संघर्ष करते रहे हैं। उन्नाव की बलात्कार पीड़िता की मां आशा देवी को टिकट देना इसका सबसे बड़ा संकेत है। लेकिन यह लंबे निवेश और कार्यकर्ता निर्माण की पहल ज्यादा लगती है। संगठनात्मक रूप से राजनीतिक संदेश देने में तो कांग्रेस सफल दिख ही है, लेकिन यह प्रयास वोट में तब्दील होगा, इसकी संभावना बहुत कम है।

सपा गठबंधन की तरफ से जारी हुई पहले चरण की सूची में रालोद गठबंधन के उम्मीदवारों की भी घोषणा की गई है। इस सूची में मुसलमानों एवं जाटों को प्रमुखता दी गई है। हालांकि कैराना से नाहिद हसन के टिकट पर भाजपा ने शोर उठाया तो तो उनकी बहन इकरा को टिकट दिया गया, जिन पर कोई आरोप नहीं है। सपा ऐसे आरोपों से बैकफुट पर जरूर दिखती है।

रालोद के जयंत चौधरी भी उत्साह में

रालोद के जयंत चौधरी भी उत्साह में

भाजपा की 107 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट में 20 विधायकों का टिकट कट गया है। योगी समेत 21 नए चेहरों को पहली बार विधानसभा के चुनावी समर में उतारा गया है। भाजपा ने सर्वाधिक 44 पिछड़े वर्ग के प्रत्याशियों पर दांव लगाकर अपने गैर-यादव पिछड़ा वोटरों को संदेश दिया है। भाजपा की सूची में पिछड़ों के साथ क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य समेत दलित जातियों को भी प्रमुखता दी गई है। सहारनपुर में सामान्य सीट पर भी भाजपा ने दलित उम्मीदवार उतारा है। भाजपा ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को गोरखपुर सदर तथा उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को प्रयागराज जिले में सिराथु से उम्मीदवार बनाया, जो संकेत है कि गढ़ों पर ज्यादा जोर देना है। हालांकि चुनौती वहां भी कम नहीं कही जा सकती। वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह कहते हैं, “मुख्यमंत्री एवं उपमुख्यमंत्री को मैदान में उतारकर भाजपा ने अपने वोटरों को मनोवैज्ञानिक संदेश और काय्रकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की कोशिश की है।”

लेकिन सपा पिछड़ों और मुस्लिम के पुख्ता जोड़ के साथ बाकी पिछड़ों और जाटों वगैरह के साथ भाजपा को जिस पैमाने पर टक्कर दे रही है, उसी से यह चुनाव खास बन गया है। मुसलमान पूरी तरह सपा के साथ हैं, और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी से कोई खास फर्क पड़ता नहीं दिखता है। फिर भी सपा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती वोट प्रतिशत बढ़ाने की है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट शेयर लगभग 40 फीसदी के पास था तो सपा को 22 फीसदी के आसपास वोट मिले थे। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 49 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे, जबकि सपा-बसपा गठबंधन के हिस्से 38 फीसदी वोट आए थे। सपा को 18 फीसदी से कुछ ज्यादा तथा बसपा को 19 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट मिले थे। हालांकि कई चैनलों और अखबारों के जनमत सर्वेक्षणों में भाजपा के वोट में गिरावट और सपा गठबंधन के वोटों में बढ़ोतरी दिख रही है। पिछले हफ्ते टाइम्स नाऊ के एक सर्वे में सपा गठजोड़ का वोट करीब 35 प्रतिशत और भाजपा का करीब 37 प्रतिशत दिखाया गया। उसके हफ्तावार सर्वे में पहले से अंतर कम हो गया है। यह देखना होगा कि यह अंतर कितना घटता या बढ़ता है। इसके अलावा इन्हीं सर्वे में अखिलेश की लोकप्रियता भी योगी के पास पहुंचती जा रही है।

दलितों को अपने पक्ष में करने को जुटीं मायावती

बीते तीन दशक में यूपी में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार तथा कानून-व्यवस्था की बदहाली जैसा कोई मुद्दा नहीं है। इस बार का चुनाव कुछ मायनों में पिछली तमाम राजनीतिक लड़ाइयों से अलहदा है। कम से कम अयोध्या में राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद यह पहला चुनाव है, जिसमें 20 फीसदी मुस्लिम आबादी किसी भी दल के एजेंडे में शामिल नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों के मसले पर खुलकर नहीं बोल रहा है। यूपी में अगड़ों की लीडरशिप, पिछड़ों की लीडरशिप, अति पिछड़ों की लीडरशिप और दलितों की लीडरशिप तो नजर आती है, लेकिन 20 फीसदी मुलसमानों की लीडरशिप कहीं नजर नहीं आती है। आर्थिक एवं सामजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के हालात पर कोई दल बात करता नजर नहीं आता। सपा, कांग्रेस एवं बसपा जैसे कथित तौर पर सेक्युलर दल भी मुस्लिम हितों पर चुप्पी साधे हुए हैं। यह भी गौरतलब है कि मुसलमानों की नुमाइंदगी लगातार घट रही है। 2012 में जहां 64 मुस्लिम विधायक सदन में पहुंचे थे, वहीं 2017 के चुनाव में यह आंकड़ा सिमटकर 23 तक आ गया।

प्रियंका का महिलाओं पर दांव

बहरहाल, राज्य में 10 फरवरी से 7 मार्च तक सात चरणों के चुनाव में अभी काफी कुछ होने वाला है। इस बीच कोरोना दिशा-निर्देशों के तहत रैलियां वगैरह बंद होने से चुनाव प्रचार वर्चुअल मीडिया और महज पांच लोगों के घर-घर जाने तक सीमित है। इसके अपने फायदे-नुकसान भी हैं। भाजपा के पास ऐसी संगठनात्मक मशीनरी ज्यादा है। जो हो, 10 मार्च के नतीजे वाकई नई सियासत के दरवाजे खोलेंगे।

आंकड़ों में उप्र

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