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लाल झंडे फिर लहराए

नए दफ्तरों और रैलियों से माकपा में जान फूंकने की कोशिशें और अगले साल विधानसभा चुनावों में बेहतर नतीजों की उम्मीद
भाजपा की लगातार बढ़त ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भी तनाव में ला दिया है। आगामी विधानसभा चुनाव उनके लिए अग्निपरीक्षा की तरह होंगे

समूचा पश्चिम बंगाल कोरोनावायरस संक्रमण की बेकाबू लहर और रह-रहकर लॉकडाउन के थपेड़ों से झुलस रहा है। बावजूद इसके, यहां कई लोगों, खासकर सियासी सरपरस्तों की नजरें अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों पर जमी हुई हैं। 40 बरस के बढ़ई कादेर मुल्ला कोलकाता के एसएसकेएम अस्पताल के रोनॉल्ड रॉस बिल्डिंग के गलियारे के आखिरी कोने में डॉक्टर के बुलावे का इंतजार कर रहे हैं। सुंदरबन इलाके के रहने वाले मुल्ला ने कुछ साल पहले माकपा से नाता तोड़ तृणमूल कांग्रेस की ओर रुख कर लिया था, जैसा अमूमन चलन रहा है। उनके हिसाब से 2021 में विधानसभा चुनावों के नतीजे इस सवाल से तय होंगे कि, “क्या 2019 में भाजपा की ओर चला गया वामपंथी पार्टियों के वोटों का 20 फीसदी या कम से कम उसका आधा लौट आता है या नहीं?” 

भले यह इकलौती वजह न हो, लेकिन निश्चित रूप से महत्वपूर्ण वजह है कि तृणमूल कांग्रेस यह आश्वस्त करे कि माकपा हर जगह अपने दफ्तर खोले और रैलियां करे। खासकर वहां, जहां 2011 में तृणमूल के सत्ता में आने के बाद माकपा के दफ्तर तोड़ दिए गए या कब्जा लिए गए। मुल्ला कहते हैं, “हमारे इलाके में माकपा ने अपने दफ्तर खोल लिए हैं और अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं।” तृणमूल का गणित यह है कि वामपंथियों की चुनावी मैदान में दमदार वापसी से आक्रामक भाजपा से लड़ाई उसके हक में आ जाएगी। इस गणित के अनुसार, अगर तृणमूल विरोधी वोट वाम मोर्चे और भाजपा में बंट जाता है तो उसकी जीत तय है, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में नहीं हुआ और भाजपा राज्य की कुल 42 संसदीय सीटों में से 18 जीत गई थी। 2019 में 294 विधानसभा क्षेत्रों में से 121 पर भाजपा की बढ़त ने भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की पार्टी को डरा दिया है।

पिछले छह वर्षों में बंगाल के लेफ्ट मतदाताओं के दक्षिणपंथ की ओर झुक जाने का साफ सबूत 2019 में मिला, जब वाम मोर्चे की वोट हिस्सेदारी 25.69 फीसदी (2016 के विधानसभा चुनावों में) और 29.99 फीसदी (2014 के लोकसभा चुनाव में) से घटकर 7.53 फीसदी रह गई। भाजपा का वोट शेयर 17 से 40 फीसदी पर पहुंच गया।

सो, तृणमूल मशक्कत में जुट गई है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, “अगर माकपा के कम से कम 2-4 फीसदी वोट भी उसकी ओर लौट जाते हैं, तो हमारी राह सुरक्षित हो जाती है।” जमीन पर ऐसी हलचल दिख भी रही है। माकपा अमूमन कांग्रेस के साथ मिलकर पूर्वी मिदनापुर के नंदीग्राम जैसे अपने पुराने गढ़ों में बड़ी रैलियां कर रही है, जहां भूमि अधिग्रहण विवाद के खिलाफ हुए बहुचर्चित आंदोलन से ही वाममोर्चे की गर्दिश शुरू हुई थी। पिछले हफ्ते विधानसभा में वाम विधायक दल के नेता सुजोन चक्रवर्ती और कांग्रेस के अब्दुल मन्नान ने नंदीग्राम से सटे खेजुरी ब्लॉक में साझा रैली की। इसी खेजुरी में 2006 और 2011 के बीच हुई हिंसा से लेफ्ट की ताकत टूटी थी और तृणमूल को शह मिल गई थी। अब 2020 में भाजपा और तृणमूल के बीच लगातार जारी जुबानी बयानबाजी और हिंसक वारदातों से तंग आ चुके और सरकार विरोधी रुझान से असंतुष्ट वोटरों का मन बदला है इसलिए इन इलाकों में फिर माकपा को बढ़त मिलने लगी है।

यही कहानी उत्तर बंगाल के कूचबिहार की भी है। वहां हाल में दिनहाटा में कथित तौर पर स्थानीय तृणमूल नेताओं ने स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआइ) के राज्य सचिवालय सदस्य शुभ्रलोक दास को परेशान करने के लिए लड़कों को भेजा, तो उन्होंने तत्खोनिक (फौरन) रैली करने का फैसला किया। दास कहते हैं, “हमने रैली के लगभग 12 घंटे पहले फेसबुक पर इसकी घोषणा की तो करीब 500 लोग जुट गए।” वाकई, एक साथ कोविड-19 और अमफेन चक्रवात के झटकों से हलकान राज्य के हर जिले हसुआ-हथौड़ी वाला लाल झंडा पूरे भरोसे से लहराने लगा है। माकपा के राज्यस्तरीय नेताओं का कहना है कि यह कठिनाई के दौर में स्वयंस्फूर्त प्रतिक्रिया है।

राज्य समिति के एक सदस्य कहते हैं, “कुछ महीने पहले तक, हमारे पास अग्रिम मोर्चे पर लड़के-लड़कियों की फौज कम ही दिखती थी। लेकिन अमफेन चक्रवात के राहत कार्य में हमारे साथ बहुत-से ऐसे जुड़े, जो बीसेक साल उम्र के हैं। यह वाकई उत्साहवर्द्धक है।” दास की भी यही राय है। वे कहते हैं, “भाजपा और उसके छात्र विंग के पास हिंदुत्व है, तो एसएफआइ के पास असली मुद्दे हैं।”

माकपा के दक्षिण 24 परगना जिला कार्यालय में लाल रंग से पुते कोने वाले कमरे में बैठे सुजोन चक्रवर्ती पार्टी के लिए हालात बदलने में स्थानीय मुद्दों के साथ वैश्विक घटनाक्रम को जोड़कर देखते हैं। वे कहते हैं, “लोगों का पूंजीवाद से मोहभंग हो रहा है। आखिर उन्हें एकाधिकार दबदबे वाले पूंजीवाद से क्या मिल रहा है।” उनका यह भी कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार रोजगार सृजन के अपने वादे को निभाने में नाकाम रही है। वैश्विक कीमतें कम हो रही है मगर “यहां तेल की कीमतें बढ़ रही हैं।” श्रमिकों के अधिकार तेजी से गायब हो रहे हैं, जबकि बंगाल में तो पूरी अराजकता है। चक्रवर्ती कहते हैं, “ये तमाम हालात वामपंथ के लिए जगह बना रहे हैं।” वे इस बात को सिरे से नकार देते हैं कि तृणमूल वामपंथी दलों को सरकार विरोधी वोट बांटने के लिए बढ़ावा दे रही है।

वे कहते हैं, “तृणमूल की जमीन खिसक रही है, उसके लोग छोड़कर जा रहे हैं, उसके पास हमें रोकने का कोई उपाय नहीं हैं।” लेकिन असली सवाल वही है, जो कोलकाता में मुल्ला ने उठाया कि क्या क्या वामपंथ से मुंह मोड़ चुका 20 फीसदी वोट उसकी ओर लौटेगा? चक्रवर्ती लगभग बुदबुदाते हुए कहते हैं, “यही लाख टके का सवाल है।” लंबी चुप्पी के बाद थोड़ा संभलकर वे कहते हैं, “हमें बड़ी संख्या में अपने वोट वापस पाने की उम्मीद है। संकेत दिखाई दे रहे हैं, लेकिन दो बातें महत्वपूर्ण हैं।” बकौल उनके, एक तो तृणमूल और भाजपा का “ध्रुवीकरण की राजनीति को बढ़ावा देने” का नजरिया है। वे मानते हैं कि “सांप्रदायिक आधार पर खासकर मुसलमानों और वामपंथियों के खिलाफ ध्रुवीकरण से तृणमूल और भाजपा दोनों को फायदा होगा।”

इन मुद्दों पर संसदीय और विधानसभा चुनाव में अलग-अलग तरह के दांव थे, इसके बावजूद टीएमसी को 2014 में 39 फीसदी वोट शेयर के साथ 34 सीटें मिलीं और पांच साल बाद 44 फीसदी उच्चतम वोट शेयर के बाद बमुश्किल 22 सीटें मिलीं। मतलब यह कि ध्रुवीकरण की राजनीति जैसे जोर पकड़ी, तृणमूल को सीटों के मद में और वाम दलों को सीटों और वोट शेयर दोनों मामले में नुकसान उठाना पड़ा। इसका दोष तृणमूल पर भी है, क्योंकि उसने वाम दलों को आक्रामक तरीके से हाशिए पर धकेल दिया। इस तरह तृणमूल समूचे बंगाल में भाजपा की लगातार बढ़त को शायद ही रोक पाए और दोतरफा दिखती जंग को त्रिकोणीय मुकाबले में शायद ही बदल पाए।

उत्तरी 24 परगना के छोटा जागुलिया गांव के फारवर्ड ब्लॉक के एक स्थानीय नेता यूनुस अली भाजपा में शामिल होने वाले शुरुआती वामपंथी जमीनी कार्यकर्ताओं में से एक हैं। उनके घर पर हमला किया गया, पीटा गया, उनके माकपा कार्यकर्ता भाई को जेल में बंद कर दिया गया। उनके पास भाजपा में शामिल होने के अलावा विकल्प कम थे। ताकत के जोर से “विपक्ष-मुक्त” माहौल बनाने के प्रयास में, तृणमूल ने अली जैसे हजारों को लोगों को भाजपा की झोली में डाल दिया।

आरएसएस के स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय सह-संयोजक और भाजपा के आर्थिक प्रकोष्ठ के प्रभारी धनपत राम अग्रवाल का कहना है कि टीएमसी के लिए सत्ता बरकरार रखना मुश्किल होगा। वह कहते हैं, “भाजपा का वोट फिर माकपा को मिलने की कोई संभावना नहीं है। लोग समझ रहे हैं कि न तो टीएमसी और न ही सीपीआइ (एम) विकल्प हैं, तो वे लोग भाजपा की ओर आ रहे हैं। बांग्लादेश से घुसपैठ और उद्योग दो प्रमुख कारक हैं और यहां, दोनों विफल रहे हैं।” उनका मानना है कि जहां कांग्रेस और माकपा कुछ समर्पित वोटों पर कब्जा करेंगे, वहीं टीएमसी का वोट शेयर भाजपा को फायदा पहुंचाएगा। एक हद तक तृणमूल सत्ता-विरोधी लहर की बात स्वीकारती है, लेकिन वह ममता बनर्जी के करिश्मे और नेतृत्व पर उम्मीद जताती है। मुल्ला कहते हैं कि बंगाल में एक बार किसी को चुन लेने के बाद मतदाता सरकार बदलने में समय लेते हैं, यह दर्शाता है कि टीएमसी सत्ता में रहेगी। सुंदरबन के ये बढ़ई कहते हैं, “माकपा के उदय से मुकाबला फिर त्रिकोणीय हो जाएगा, जो तृणमूल के लिए महत्वपूर्ण है।”

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