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रणनीति नहीं, मुद्दे भारी

ये नतीजे 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले बड़े संकेत दे गए। अब कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन बनाने में ज्यादा तरजीह मिलेगी। भाजपा को सहयोगियों को अधिक जगह देने के साथ ही जनता के जीवन में बदलाव लाने वाले मुद्दों को केंद्र में रखना होगा
नतीजों ने विपक्ष और कांग्रेस को नई ऊर्जा देने का काम किया है

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे काफी कुछ कहते हैं। भले ही सत्तारूढ़ भाजपा इसे केंद्र सरकार के कामकाज पर जनता की राय न माने लेकिन यह साफ है कि राज्य सरकारों के कामकाज के साथ ही ये नतीजे केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के साढ़े चार साल से अधिक के कामकाज पर भी रायशुमारी की तरह हैं। दूसरे, ये नतीजे यह भी साबित करते हैं कि नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी के चुनाव जीतने के फार्मूले को बेमानी बनाने में कांग्रेस कामयाब रही है। कुछ महीने पहले तक माना जाता रहा है कि भाजपा की चुनाव जिताऊ मशीनरी को रोकने का माद्दा किसी में नहीं है। उनका “कांग्रेस-मुक्त भारत” का मिशन भी जारी है। लेकिन पांचों राज्यों में भाजपा का सत्ता से दूर रहना और खासकर तीन हिंदी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता से उसकी बेदखली यह साबित करती है कि कांग्रेस को नकारा नहीं जा सकता। इससे भी बड़ी बात यह है कि इन चुनावों से उन मुद्दों की धमाकेदार वापसी हुई है, जिसे कांग्रेस ने पहचाना। उसके पूरे चुनाव कैंपेन का फोकस बेरोजगारी, किसानों की बदतर होती हालत, नोटबंदी से छोटे उद्योग-धंधों की तबाही और रोजगार में गिरावट के साथ प्रधानमंत्री की भ्रष्टाचार से मुक्त छवि को तोड़ने के लिए राफेल विमान घोटाले पर रहा। नतीजे यह पुख्ता करते हैं कि जनता ने कांग्रेस के इस कैंपेन पर भरोसा किया और उसे वोट दिया।

कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ी सफलता है कि उसके अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव जीतवा सकते हैं। इत्तेफाक है कि पार्टी अध्यक्ष बनने के एक साल के भीतर उनको यह कामयाबी मिली। राहुल गांधी ने पार्टी के कैंपेन का जिम्मा अपने कंधों पर उठाया। यह बिलाशक 2019 के चुनावों में पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने वाला साबित होगा। लेकिन कांग्रेस के लिए ये नतीजे बड़ी चुनौती भी लेकर आए हैं, क्योंकि उसे किसानों को बेहतर दाम, कर्जमाफी और रोजगार के वादे पर खरा उतरना होगा।

वैसे, इससे भी बड़ा संदेश यह है कि केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व के चलते सत्ता में आई भाजपा के विजय रथ के पहिए थम गए हैं। हालांकि उस पर पहला ब्रेक तो कर्नाटक में लग गया था। खास बात यह है कि केवल एक चेहरे के सहारे सत्ता हासिल करने का फार्मूला लगातार कामयाब नहीं हो सकता है। इसलिए भाजपा के लिए यह 2019 के पहले आत्मनिरीक्षण की घड़ी है।

हालांकि इससे भी बड़ा संदेश इन नतीजों से उभरे मुद्दे हैं। ये हैं आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे। देश के अधिकांश हिस्सों में किसान और ग्रामीण क्षेत्र संकट में हैं। जनादेश ने साफ कर दिया कि इनकी उपेक्षा या टालमटोल अब बर्दाश्त नहीं है।

दूसरी ओर, भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कैंपेन में नकारात्मक तत्वों की भरमार थी। उसमें कांग्रेस की पुरानी कमजोरियों के साथ व्यक्तिगत हमलों पर ज्यादा जोर था। 2014 में विशाल बहुमत दिलाने वाले मुद्दों पर फोकस कम था। कामकाज के मामले में भाजपा सौभाग्य योजना के तहत बिजली कनेक्शन, उज्‍ज्वला योजना के तहत मुफ्त एलपीजी कनेक्शन, प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घरों का निर्माण, शौचालयों का निर्माण, बड़े पैमाने पर हाइवे और सड़कों का निर्माण जैसे मुद्दों पर ही केंद्रित रही। लेकिन असली समस्या है लोगों की घटती कमाई, रोजगार की कमी, किसानों को बेहतर दाम न मिलना। इन मुद्दों पर जवाब देने से पार्टी बचती रही या फिर उसके तर्क उथले साबित हुए। नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के नेता नोटबंदी से हुए रोजगार और कारोबार के नुकसान को स्वीकारने के लिए तैयार ही नहीं हुए, बल्कि उसके फायदे गिनाते रहे।

ये नतीजे मतदाता की परिपक्व और बेहतर होती सोच का भी सबूत हैं। कुछ कोशिशों के बावजूद चुनावों पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का बड़ा असर नहीं दिखा। राम मंदिर मुद्दे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कट्टर हिंदुत्व छवि स्टार प्रचारक के रूप में भुनाने की कोशिश नाकाम रही। तेलंगाना में उनके तीखे भाषणों के बावजूद भाजपा एक सीट पर सिमट गई, जबकि राजस्थान में भी उनके दौरों का फायदा नहीं मिला। यह साबित करता है कि जनता को अपनी रोजी-रोटी, बेहतर जीवन और अच्छे प्रशासन से मतलब है, न कि भावनात्मक मुद्दों से। कुल मिलाकर ये नतीजे 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले बड़े संकेत दे गए हैं। अब कांग्रेस नेतृत्व भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्षी गठबंधन को अमलीजामा पहनाने का भरोसा लेकर मैदान में उतरेगा। सहयोगी दलों में उसकी पहल को अधिक स्वीकार्यता मिलेगी। भाजपा को नई रणनीति बनाने को मजबूर होना पड़ेगा, जिसमें सहयोगियों को अधिक जगह देने के साथ ही जनता के जीवन में बदलाव लाने वाले मुद्दों को केंद्र में रखना होगा। 2019 की जंग का आगाज हो चुका है। ऐसे में आने वाला लोकसभा चुनाव बहुत दिलचस्प हो सकता है, क्योंकि 2019 के सेमीफाइनल के नतीजे काफी कुछ कह गए हैं।

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