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उत्तर प्रदेश: छोटे दलों की नई बिसात

भाजपा को टक्कर देने के लिए उत्तर प्रदेश में छोटी पार्टियों के नए मोर्चे से लेकर नए दलों की एंट्री ने बढ़ाई हलचल
असदुद्दीन ओवैसी के साथ सुहेलदेव समाज पार्टी के ओमप्रकाश राजभर

उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक दलों ने नए समीकरण बनाने शुरू कर दिए हैं। राज्य की राजनीति में दो प्रमुख बदलाव दिख रहे हैं। पहला तो आगामी विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की एंट्री होने वाली है। दूसरे, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने बड़े दलों के साथ गठबंधन से तौबा करके छोटे दल को जोड़ने का दांव चल दिया है। बीते 14 दिसंबर को उन्होंने साफ तौर पर कहा, “हमारा बड़े दलों के साथ गठबंधन करने का प्रयोग अच्छा नहीं रहा है, ऐसे में अब समाजवादी पार्टी छोटे दलों से गठबंधन करेगी।” लेकिन अखिलेश यादव से पहले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने मौके को भांप लिया। इसलिए उन्होंने 8 छोटे दलों को जोड़कर भागीदारी संकल्प मोर्चे का गठन कर लिया है।

छोटी पार्टियों का यह गठबंधन ओवैसी से लेकर अरविंद केजरीवाल और शिवपाल यादव को भी लुभा रहा है। इसी का असर है कि अखिलेश यादव के बयान के दो दिन बाद ही ओवैसी ने ऐलान कर दिया है कि वे 2022 का विधानसभा चुनाव भागीदारी संकल्प मोर्चे के साथ मिलकर लड़ेंगे। भागीदारी संकल्प मोर्चे का गठन 2019 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के ओमप्रकाश राजभर और जन अधिकार पार्टी के बाबू सिंह कुशवाहा की अगुआई में किया गया है। छोटे दलों वाले इस मोर्चे में कुल 8 दल शामिल हो चुके हैं। ओवैसी पिछड़े वर्ग में मजबूत पैठ रखने वाले इस मोर्चे का फायदा बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी उठाना चाहते हैं।

असल में बिहार में एआइएमआइएम को 5 सीटें मिलने में वहां छोटे दलों के बने गठबंधन की अहम भूमिका रही थी, जिसमें ओम प्रकाश राजभर भी शामिल थे। अब ओवैसी उसी ताकत को यहां आजमाना चाहते हैं। मोर्चे में शामिल होकर ओवैसी प्रदेश के 22 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं। इस रणनीति के तहत ओवैसी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर खास नजर है।

इस मोर्चे में राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), बाबू सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी, कृष्णा पटेल का अपना दल (के), ओवैसी की एआइएमआइएम, प्रेमचंद्र प्रजापति की भारतीय वंचित समाज पार्टी, अनिल चौहान की जनता क्रांति पार्टी (आर), और बाबूराम पाल की राष्ट्र उदय पार्टी आदि शामिल हैं।

ऐसे में सवाल उठता है कि अखिलेश यादव के पास क्या विकल्प है? हाल ही में सपा ने महान दल के साथ हाथ मिलाया है, जिसका राजनीतिक आधार बरेली-बदायूं और आगरा के इलाके में है। जनवादी पार्टी के संजय चौहान और राष्ट्रीय लोकदल समाजवादी पार्टी के साथ जा सकते हैं। जनवादी पार्टी सपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ चुकी है जबकि हाल ही में बुलंदशहर में हुए उपचुनाव में सपा ने राष्ट्रीय लोक दल के लिए अपना प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा था। ऐसे में पूरी संभावना है कि लोकदल का भी सपा प्रमुख को साथ मिल सकता है। लेकिन अखिलेश की सबसे बड़ी चिंता उनके चाचा शिवपाल यादव हैं, जो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के मुखिया है। बीच में अखिलेश ने उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश की थी, लेकिन उनके एडजस्ट करने का ऑफर शिवपाल को नहीं भाया था।

इस बीच अपनी अहमियत बढ़ती देख ओम प्रकाश राजभर भी दूसरे छोटे दलों को लुभाने में लग गए हैं। इसके तहत उन्होंने शिवपाल यादव और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह से मुलाकात की है। इसके बाद ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि जल्द ही शिवपाल यादव भागीदारी संकल्प मोर्चे से जुड़ने का ऐलान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने भतीजे अखिलेश यादव द्वारा मंत्री बनाने और एक सीट देने के ऑफर को क्रूर मजाक कहकर पहले ही ठुकरा दिया है। इस बात के भी कयास है कि शिवपाल यादव और रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के अच्छे संबंध होने का फायदा भागीदारी संकल्प मोर्चे को मिल सकता है। जहां तक आम आदमी पार्टी की बात है तो उसने अभी अपने पत्ते खोले नहीं है।

इस बीच ओमप्रकाश राजभर की कोशिश यही  है कि वे ज्यादा से ज्यादा छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ सकें। असल में प्रदेश के 29 जिलों में करीब 140 सीटें ऐसी हैं, जहां राजभर वोट 20 हजार से 80 हजार के करीब हैं। ऐसे में ओवैसी के मुस्लिम वोट और दूसरे दलों के वोट मिलकर मोर्चे को किंग मेकर की भूमिका में ला सकते हैं। राजभर ऐसे ही समीकरण बनाने का पुरजोर प्रयास कर रहे हैं।

उनका कहना है भागीदारी संकल्प मोर्चे की पहुंच 43 फीसदी पिछड़ों तक हो गई है। ऐसे में एक बात तो तय है कि 2022 के चुनावों में हम नई ताकत होंगे। उसे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकेगा। एक बात और जो हमारे पक्ष में होगी, वह है मोर्चे की पूर्वांचल में ताकत। यूपी में कहावत है कि जिसका पूर्वांचल उसका यूपी। भाजपा को भी 2017 में बड़ी जीत इसलिए मिली थी। अब हम पूर्वांचल में मजबूत हैं। इसका हमें 2022 में फायदा जरूर मिलेगा।

ओवैसी कितना असर डालेंगे, इस पर राजभर कहते हैं। पिछड़े और मुस्लिम जब मिलेंगे तो नई ताकत बनेगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता एक बड़ी ताकत हैं। ऐसे में ओवैसी के साथ जुड़ने से मोर्चे को नई ताकत मिलेगी। मोर्चा लगातार बड़ा होता जा रहा है। मेरी कोशिश है कि जो छोटे-छोटे दल एक दूसरे के खिलाफ लड़ते हैं, वह एक हो जाए। इस कोशिश में हम सफल भी हो रहे हैं। चुनाव आते-आते बहुत कुछ बदलेगा। बस इंतजार कीजिए।”

उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस भी एक बार फिर से अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश में लगी हुई है। लेकिन जहां तक गठबंधन की बात है तो पार्टी ने साफ कर दिया है कि वह इस बार अकेले चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस के प्रवक्ता ब्रजेंद्र सिंह कहते हैं “प्रियंका जी के प्रभारी बनाने के बाद यूपी में कांग्रेस की ताकत दिखाई पड़ रही है, जो चुनाव के परिणामों से साफ हो जाएगा कि कांग्रेस कितनी मजबूत होकर उभरेगी। इसके लिए हम जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं, जिसका असर चुनावों में दिखना तय है।”

कुछ छोटे दल बिहार जैसा महागठबंधन बनाने की सलाह भी दे रहे हैं। लोक दल के अध्यक्ष  सुनील सिंह कहते हैं, “संख्या और सीट के हिसाब से नहीं, बल्कि बिहार के चुनाव के नजरिये से देखिए। अगर यूपी में महागठबंधन बनता है तो परिणाम उलट हो सकता है, बस समझौता करने की पहल होनी चाहिए।” नए दलों की एंट्री में जनता दल यूनाइटेड का भी नाम जुड़ने की चर्चा है। सूत्रों के अनुसार पार्टी ने प्रदेश के कुर्मी मतदाताओं की अच्छी-खासी संख्या को देखते हुए चुनाव में उतरने के लिए फैसला किया है। इसके लिए वह जल्द एक बड़ा अधिवेशन भी राज्य में करने वाली है। इसके लिए पार्टी ने राज्य के नेताओं को जिम्मेदारी भी सौंपनी शुरू कर दी है, जिससे चुनावों से पहले एक मजबूत आधार तैयार हो सके। अब देखना यह है कि नीतीश का यह दांव भाजपा पर कितना असर डालता है।

प्रदेश की राजनीति में बनते नए समीकरण पर राजनीतिक विश्लेषक डॉ. ब्रजेश  मिश्रा कहते हैं “आम तौर पर ऐसे छोटे-छोटे दल चुनाव के आसपास दिखाई तो पड़ते हैं पर अब वोट‌िंग पैटर्न बदल रहा है। मतदाता काम, प्रचार और जमीनी आधार पर वोट देने का फैसला करता है। जो नया बदलाव देखने में आया है, वह यह है कि छोटे दल एक क्षेत्र विशेष के आधार पर गठबंधन करते दिख रहे हैं। लेकिन मुझे 2022 के चुनाव में कोई बड़ा उलटफेर होता नहीं दिख रहा है।”

असल में जिस राजनीति को अब विपक्षी दल 2022 में करने की कोशिश में लगे हैं, उसे 2002 में ही भारतीय जनता पार्टी ने भांप लिया था। वह उस वक्त से क्षेत्रीय स्तर पर मौजूद छोटे दलों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करती रही है, जिसका उसे 2017 के चुनावों में सबसे प्रभावी परिणाम मिला। फिलहाल भाजपा को इस समय अपना दल का साथ मिला हुआ है जबकि उसके साथी रहे ओम प्रकाश राजभर अब उसके लिए चुनौती बनने को बेकरार हैं। व‌िपक्ष की नई रणनीत‌ि के बाद अब देखना यह है कि 2017 में बड़ी जीत के बाद सत्ता में आने वाली भाजपा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के नेतृत्व में कैसा प्रदर्शन करती है, क्योंकि उनके नेतृत्व में यह पहला विधानसभा चुनाव होगा।

हालांकि 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा ने प्रदर्शन किया था, उसे देखते हुए विपक्षी दलों को उसे हराने के लिए काफी ताकत और मजबूत रणनीति पेश करनी होगी।

वैसे, नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन भी कुछ गुल खिला सकता है।

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