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मीडिया की बेरुखी क्यों

भारत में रोजाना 88 महिलाएं दुष्कर्म की शिकार, लेकिन सुर्खियों में जगह चंद घटनाओं को ही
स्त्री होने की मुश्किल

कोई साधारण घटना खबर नहीं बनती। भारत में यौन हिंसा एक साधारण घटना है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2019 के आंकड़ों के अनुसार भारत में हर 16 मिनट में एक महिला के साथ दुष्कर्म होता है। यानी रोजाना 88 महिलाओं और साल में 32,033 महिलाओं के साथ। लेकिन इनमें से बहुत कम घटनाओं में ही ‘न्यूज वैल्यू’ होती है। मीडिया बलात्कार की हर घटना को कवरेज न देने के पीछे पत्रकारिता की मशहूर उक्ति दे सकता है कि कुत्ता किसी व्यक्ति को काटे तो कोई खबर नहीं होती। भारत में बलात्कार वास्तव में कुत्तों के काटने (साल में 50,000) जितनी ही सामान्य घटना है।

मीडिया दुष्कर्म की कुछ घटनाओं पर खामोश रहता है, तो इसके पीछे मजबूत सामाजिक-सांस्कृतिक कारण हैं। अगर दुष्कर्म की शिकार महिला ऊंची जाति की, शहरी, पढ़ी-लिखी और गोरी है तो मीडिया उसका तत्काल संज्ञान लेता है। लेकिन अगर महिला ग्रामीण, निचली जाति की है और उसका रंग गहरा है तो मीडिया चुप्पी साध लेता है। ऐसा लगता है कि दुष्कर्म और उसकी भीषणता भी इस बात पर निर्भर करती है कि घटना किसके साथ हुई। आप पूछ सकते हैं कि क्या यह उचित है। सच तो यह है कि इस समाज में ऊंची जाति की महिलाएं भी शोषित वर्ग की महिलाओं का शोषण करती हैं। जाति व्यवस्था में महिलाओं का स्थान समान नहीं है, इसलिए महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध भी समान नहीं हैं। क्या आपको इस बात का सुबूत चाहिए कि एक दलित महिला कभी ‘भारत की बेटी’ नहीं हो सकती?

निर्भया के साथ जो हुआ वह निश्चित ही काफी नृशंस था, लेकिन वह कोई पहली घटना नहीं थी। 2006 में खैरलांजी हत्याकांड की शिकार सुरेखा और प्रियंका के साथ ऊंची जाति के पुरुषों का बर्ताव भी काफी क्रूर था। मीडिया निर्भया के लिए इस तरह लड़ा कि अपराधियों को मौत की सजा हुई। दूसरी तरफ, खैरलांजी की घटना की रिपोर्ट महीने भर बाद सामने आई। तब तक सुबूत नष्ट किए जा चुके थे और गवाह ‘तैयार’ किए जा चुके थे। नतीजा यह हुआ कि पूरा मामला पलट गया। किसी दलित महिला के साथ हिंसा होती है तो मीडिया एक फीसदी भी रुचि नहीं दिखाता है। न तो पहले पन्ने पर मोमबत्तियां जलाने की तस्वीरें होती हैं, न ही मौत की सजा की कोई मांग उठती है। यह षड्यंत्र स्वाभाविक और सिस्टम से उपजा है। एक घटना में बलात्कारी अपराधी होता है, तो दूसरी में सिर्फ ऊंची जाति के लड़के जिन्हें लगता है कि अगर वे किसी दलित महिला के साथ दुष्कर्म करेंगे तो कानून उनके खिलाफ कुछ नहीं करेगा, पूरा देश उनका समर्थन करेगा।

महिलाओं के खिलाफ अपराध को अक्सर चोरी या दुर्घटना जैसी वारदात की तरह देखा जाता है। उसके सामाजिक कारणों का विश्लेषण नहीं होता। पुरुष या जाति का आधिपत्य जताने के लिए बलात्कार की जितनी घटनाएं होती हैं, वह यौन जरूरतें पूरी करने के लिए बलात्कार की तुलना में काफी अधिक हैं। इसमें पहला सामाजिक अपराध है तो दूसरा व्यक्तिगत। पत्रकार इस मौलिक अंतर को नहीं समझते। महिला पत्रकार भी यही समझती हैं कि किसी दलित महिला के खिलाफ जाति आधारित यौन हिंसा किसी अन्य बलात्कार की घटना की तरह ही है, जबकि वास्तविकता काफी अलग है। ऊंची जाति की महिलाओं के साथ दुष्कर्म इसलिए होता है क्योंकि वे महिलाएं हैं, दलित महिलाओं के साथ ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे दलित हैं। पहली घटना परिस्थितिजन्य होती है जबकि दूसरी जन्म से तय होती है। किसी ब्राह्मण या अन्य पिछड़ा वर्ग की महिला के साथ इसलिए दुष्कर्म नहीं होता कि उसका जन्म किसी खास जाति में हुआ है, सिर्फ दलित महिलाओं को इस हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह युद्ध के समय होने वाली बलात्कार की घटनाओं की तरह ही है, जहां किसी महिला का शत्रु देश का होना ही उसके मान-मर्दन के लिए काफी है। हाथरस की घटना को क्या हम सिर्फ दुष्कर्म की एक घटना कह सकते हैं? महिला के शरीर के अंगों को बुरी तरह क्षत-विक्षत किया गया। अपराधी दलितों के दिमाग में डर और गुलामी का बीज बो देना चाहते थे।

दलित बस्ती में जन्म लेने वाली हर बच्ची डर के साए में बड़ी होती है क्योंकि उसके साथ किसी भी उम्र में दुष्कर्म का खतरा रहता है। रोजाना 10 दलित महिलाओं के साथ दुष्कर्म होता है। ये घटनाएं कभी सुर्खियों में क्यों नहीं आती हैं? हर साल, हर दशक जाति आधारित अपराध बढ़ रहे हैं। क्या कोई सोच सकता है कि ये अपराध कैसे होते हैं। इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।

2016 में दुष्कर्म का एक वीडियो इसका शर्मनाक उदाहरण है। उत्तर प्रदेश में इस तरह के वीडियो 20 से 200 रुपये में आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं और ग्रामीण इलाकों में काफी देखे जाते हैं। अपराधी अपने ही अपराध का वीडियो बनाकर उसे बेचते हैं। इनमें महिलाओं के चेहरे को छिपाया नहीं जाता। कोई बाहरी व्यक्ति इन वीडियो को नहीं खरीद सकता है। जान के डर से महिलाएं शिकायत भी नहीं करतीं, यहां तक कि वे माता-पिता से भी इसका जिक्र नहीं करती हैं। जाति व्यवस्था को जानने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि ये महिलाएं ऊंची जाति के परिवारों की नहीं होती हैं। अगर वह महिला ऊंची जाति की हो तो वह घटना सुर्खियों में होगी और मीडिया वहां कैंप लगाएगा।

बलात्कार के वीडियो सिर्फ पैसे के लिए नहीं बनाए जाते। ऊंची जाति के पुरुष अपनी जाति का भय पैदा करने के लिए भी दलितों के साथ ऐसा करते हैं। इस तरह के संगठित अपराध की जांच में मीडिया की कोई रुचि नहीं होती। आप तो उन्हें सुशांत सिंह राजपूत जैसा मामला दे दीजिए। उसके बाद पीत पत्रकारिता, तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना और आंखों को लुभाने वाली अश्लीलता सब सामने होगी।

सवाल है कि महिलाओं और दलित महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध पर मीडिया फोकस क्यों नहीं करता। क्योंकि समाज की तरह मीडिया भी महिलाओं और दलितों को दोयम दर्जे का नागरिक मानता है। भारतीय मीडिया में ऊंची जाति के हिंदू पुरुषों का बोलबाला है। दलित पूरी तरह उपेक्षित है और महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी पर्याप्त नहीं है। दलित महिलाओं ने तो इस दिशा में पहला कदम भी नहीं उठाया है। यह बात ज्यादा वेदनापूर्ण है कि दमन करने वाला भी दलितों और महिलाओं के शोषण की बात लिखता है। दलितों ने अपने साथ हुए शोषण की बात अभी तक लिखी नहीं है, दलित सत्य कभी कहा नहीं गया।

अक्सर यौन हिंसा की खबरें पुरुष लिखते हैं। उन्हें मालूम नहीं होता कि क्या और कैसे लिखना है, इसलिए उनके शब्दों में पुरुष मानसिकता झलकती है। वे हिंसा की शिकार महिला के चरित्र, उसके दोस्त, व्यवहार, काम, वैवाहिक स्थिति, पसंद-नापसंद की बात करते हैं और बलात्कार के कारणों तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। जब महिलाओं की बात कोई पुरुष करेगा तो यही समस्या आएगी। जब किसी ऊंची जाति की महिला दलित महिला की आवाज बनने की कोशिश करती है तब भी यह समस्या दिखती है। अनेक महिला पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता जाति आधारित दुष्कर्म को लैंगिक मुद्दा मानने की भूल कर बैठती हैं। उन्हें जाति और उसमें निहित हिंसा की कोई जानकारी नहीं होती। हाथरस घटना में भी टीवी पर चर्चाओं में गैर-दलित ही ज्यादा थे।

जाति आधारित दुष्कर्म गांवों में ज्यादा होते हैं, जहां भारत की 65 फीसदी आबादी रहती है और जहां जाति व्यवस्था अब भी मजबूत है। क्या भारतीय मीडिया इसकी बात करता है? ग्रामीण भारत की कवरेज कृषि से शुरू होकर कृषि पर ही खत्म हो जाती है। कोई भी मीडिया गांव के प्रताड़ना शिविर की बात नहीं करता जो हिटलर के गैस चैंबर जितने ही जहरीले हैं। यह भेद ही अस्पृश्यता और शोषण का आधार है। मीडिया गांव में समानता की बात नहीं करता, जहां कोई भी व्यक्ति कहीं भी रह सके। दलित रोज के जीवन यापन में किन समस्याओं का सामना करते हैं, यह उनकी बात नहीं करता। इसके विपरीत खैरलांजी, कठुआ या हाथरस जैसी घटना का इस्तेमाल वह सिर्फ सुर्खियों के लिए करता है।

सच तो यह है कि मीडिया हाउस की तरह खबरों में भी दलितों के लिए जगह नहीं होती। ऑक्सफैम-न्यूजलॉन्ड्री के सर्वे के अनुसार 12 पत्रिकाओं की 972 कवर स्टोरी में सिर्फ 10 जाति से जुड़ी थीं। जिस समाज में एक भी दिन जातिगत हिंसा के बिना न बीतता हो, वहां यह शर्मनाक है कि लोकतंत्र के एक मजबूत स्तंभ ने इसके प्रति आंखें फेर ली हो। ग्रामीण भारत की जातिगत संस्कृति में दुष्कर्म रोज होने वाला अपराध है। हाथरस को ही लीजिए। क्या वहां ऐसे अपराध और भी हुए? इसकी संभावना काफी अधिक है। खेतों में काम करने वाले दलित भलीभांति जानते हैं कि भारत के किसी भी गांव में दलित महिला के साथ दुष्कर्म कोई एक बार होने वाली घटना नहीं है, पर मीडिया इसकी गहरी पड़ताल नहीं करता है।

पाठकों को तमिलनाडु के तिरुनेवेली जिले में 1980 के दशक का संगनकुलम कांड याद होगा। वहां 200 ऊंची जाति के हिंदू और 40 दलित परिवार रहते थे और दुष्कर्म एक सामान्य बात थी। 16 साल की मंजुला का उसके छोटे भाइयों के सामने बलात्कार किया गया। ऊंची जाति के हिंदू के खेत में काम करने वाले पति के लिए खाना लेकर जा रही राजसेल्वम के साथ पंपसेट वाले कमरे में दुष्कर्म किया गया। उन्होंने पहले तो किसी से इसका जिक्र नहीं किया, लेकिन जब ऐसी घटनाएं बढ़ीं तो खबरें बाहर आने लगीं। संगनकुलम के विधायक जोहान विंसेंट ने जांच की तो 17 महिलाएं शिकायत दर्ज कराने सामने आईं। महिलाएं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलीं। केंद्र सरकार ने जांच टीम भेजी। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री एम.जी. रामचंद्रन ने जिला कलेक्टर के खिलाफ कार्रवाई की और प्रदेश के सभी ग्राम अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया।

दलित मां-बाप शिकायत नहीं करते। उन्हें अपनी जान और बेटियों के भविष्य का खतरा होता है। दलित महिला के लिए न्याय की लड़ाई लड़ना आत्मदाह करने जैसा है। उसे खाप पंचायत, थाना, राजनीतिक दल, अदालत और सरकार हर जगह ऊंची जाति के लोगों का सामना करना पड़ता है। इसलिए उसकी कहानी आंसुओं में दबकर रह जाती है।

आंबेडकर ने 70 साल पहले कहा था, “हमारे लिए कोई प्रेस नहीं है। हमारे लोगों के साथ रोजाना दमन और शोषण होता है, लेकिन प्रेस कभी उन्हें उजागर नहीं करता।” उन्होंने इसे संगठित षड्यंत्र की संज्ञा दी थी। आज भी कुछ नहीं बदला है। क्या लोकतंत्र के एक स्तंभ का जातिगत स्तंभ के रूप में कार्य करना शर्मनाक नहीं है? इस देश के बेजुबान लोग कहां जाएंगे? आप उनसे अपना मीडिया शुरू करने की बात कह सकते हैं। लेकिन उस परिस्थिति की कल्पना कीजिए जब हर जाति का अपना मीडिया होगा। अलग अदालतें और अलग संसद भी हो तो कैसा? तो फिर हम इसे देश क्यों कहते हैं?

(लेखिका चेन्नै स्थित पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

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