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यह संकट तो यकीनन राष्ट्रीय है

कई गंभीर खामियों के बावजूद कांग्रेस का आज के परिप्रेक्ष्य में फिर से खड़ा होना देशहित में
कहां खोई वह विरासतः कश्मीर में 1961 के अपने दौरे के दौरान देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू

कांग्रेस पार्टी गहरे संकट से गुजर रही है। दो आम चुनावों में लगातार भारी हार शायद सबसे स्पष्ट संकेत है। पूरी पार्टी दिशाहीनता और आत्‍मविश्वास की कमी से जूझती नजर आ रही है। हालांकि कांग्रेस दीर्घकालिक ऐतिहासिक भूमिका की विरासत के साथ आजाद भारत के निर्माण की नींव रख चुकी है, कम-से-कम 1967 तक देश के विकास और लोकतंत्र की बागडोर एकछत्र संभाल चुकी है और सबसे ज्यादा अरसे तक केंद्र और राज्यों में सत्तासीन रह चुकी है। हालिया चुनाव में भी उसे 12 करोड़ भारतीयों का समर्थन हासिल है। कांग्रेस जैसी पार्टी की शक्तिशाली और सार्थक मौजूदगी देश को एकल पार्टी प्रभुत्व के खतरों से बचाने और देश्‍ा की संवैधानिक, लोकतांत्रिक, बहुलतावादी व्यवस्‍था तथा पहचान को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी है।

अनेक गंभीर खामियों और गिरावट के बावजूद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को नए सिरे से खड़ा करना आज के परिप्रेक्ष्य में सिर्फ कांग्रेसियों की ही जिम्मेदारी नहीं है, बल्कि यह पिछले सात दशकों की मलिनता, जड़ता, आत्म-विस्मृति से मुक्त होकर, खुले सोच से भूल-सुधार करना व्यापक राष्ट्रीय चुनौती भी है। आज हम सभी को बदलते भारत की बदलती जरूरतों के अनुरूप कांग्रेस के समय-सिद्ध, गौरवपूर्ण, वैचारिक, समाजसेवी, कौमी एकता तथा जन-सशक्तिकरणकारी स्वतंत्रता के पहले से परिभाषित सिद्धांतों, कार्यक्रमों, नीतियों को लागू करवाने की व्यापक राष्ट्रव्यापी भागीदारी में सहयोग देना होगा। नई पुनर्गठित, नई ऊर्जा और लोकतांत्रिक कार्य-संस्कृति संपन्न, गांधी जी के सुझाये लोकसेवा संगठन के रूप में सक्रिय राजनैतिक, शासकीय, सांस्कृतिक, बहुआयामी कांग्रेस हमारी बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्‍था की मांग है।

कांग्रेस के 2019 के चुनाव घोषणा-पत्र ने एक सार्थक, सशक्त पहल की। वैसे ही सोच के साथ, वैसी ही व्यापक और गहन जन-भागीदारी द्वारा कांग्रेस को हर अर्थ में पुराने रोगों से मुक्त हो कर नए सामयिक सार्थक संकल्पों को अपनाना होगा। हमारे सामने मिसाल है, देश को 15 अगस्त 1947 के दिन संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा प्रकट किए गए राष्ट्रीय संकल्पों को यथाशीघ्र और सामूहिक, जमीनी प्रयासों, त्यागों और लगन से संपन्न करने के संकल्प की। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का संविधान सभा में दिया गया ऐतिहासिक अध्यक्षीय वक्तव्य संकल्प पर भी अमल की दरकार है। तभी भारत अपनी नियति, संभावनाओं, क्षमताओं वाला सबके विश्वास की नींव पर खड़ा होकर सबका न्यायपूर्ण और मानवीय गरिमामय विकास कर पाएगा।

देश की मिश्रित अर्थव्यवस्‍था में राज्य, बाजार और लोक समुदायों की विकेन्द्रित सक्रिय भागीदारी द्वारा प्राप्त लोकतांत्रिक विकास भारत को विषमता, निर्धनता, बेरोजगारी, परस्परिक विद्वेष से मुक्ति का प्रभावी मॉडल बनने की क्षमता, संभावना है। इसमें दृढ़ प्रतिबद्धता और त्याग की सर्वजनीयता का समावेश हो, ऐसा ढांचा कांग्रेस के संगठन और विकास तथा प्रशासन तंत्र और राजनैतिक कार्यप्रणाली की प्राण वायु हो, यह जरूरी है।

अफसोस कि कांग्रेस अपनी विरासत से भटक गई। इस स्थिति का लाभ उठाकर विपक्षी दल आगे बढ़े। इनमें दक्षिणपंथी और वाममार्गी दोनों राजनैतिक शक्तियां अपनी-अपनी विकासधारा को लेकर सक्रिय हुईं। इन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के समक्ष सही मायनों में सत्तासुख लिप्त कांग्रेस संभल नहीं पाई। दिन-ब-दिन आने वाले मसलों से तदर्थ पैबंदबाजी के सहारे गाड़ी घिसटने लगी। कांग्रेस अपनी ऐतिहासिक विरासत, सत्तातंत्र में पैठ और आर्थिक वित्तीय शक्तियों पर हावी (किंतु घटते हुए) प्रभाव के कारण गिर-गिर कर फिर से उठती गई। लेकिन देसी-विदेशी पूंजी के चालाकी भरे छद्म दांव-पेच कांग्रेस के बस की बात नहीं रह गई। राष्ट्र-चिंतन से हटकर सुख-सुविधाओं और यश-प्रभाव की अंधी दौड़ में सभी पार्टियों की तरह कांग्रेसी भी जुट गए। न नेहरू जी जैसा चमत्कारी प्रभावी नेतृत्व रहा और न ही आजादी के बाद की लोकतंत्र और विकास की सर्वजन हितकर, उनके दिलो-दिमाग और प्रयासों तक पहुंचने वाली विचारधारा और कार्यक्रम। पार्टी स्तर पर बहस-विचार पर ताला लग गया।

सही ही कहा गया है कि दूसरी-तीसरी पांचसाला योजनाओं के बाद आगे नेताओं, बाबुओं, कॉरपोरेट मालिकों की विदेशी सहायता, पूंजी तथा तकनीक के दबाव में बनी योजनाओं की बार-बार पुनरावृत्ति होती रही। जनसमावेशी समग्र विकास से भटकी जीडीपी वृद्धि प्रेरित पंचवर्षीय कांग्रेसी सरकार की योजनाएं मात्र दिखावा-छलावा रह गईं। जन-आकांक्षाओं, अपेक्षाओं, अधिकारों को मात्र सजावटी जुमलों में बदल दिया गया, वह भी विश्व बैंक, आइएमएफ तथा पश्चिम के पैरवीकार ‘विद्वानों’ की जूठन के बतौर। कांग्रेस पार्टी तथा सरकार की योजनाएं और उनके लक्ष्य जन-जीवन से छिटकते रहे। एक ओर थी मिश्रित अर्थव्यवस्‍था की विषमता तथा विदेशी निर्भरता बढ़ाता औद्योगिक विकास। दूसरी ओर कृषि और ग्रामीण सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक पुनर्रचना की जगह हरित क्रांति आधारित तात्कालिक खाद्य सामग्री के अभाव को दूर करने की मुहिम को स्वीकृत करवाना। इस क्रांति के नाम पर छोटे-मझोले सीमांत किसानों और ग्रामीणों का बढ़ता सीमांतीकरण कांग्रेस की तात्कालिक समझ में ‘उपलब्धियां’ मानी गईं। इस तरह दक्षिणपंथ का आर्थिक-सामाजिक शीर्ष-आधार और जनाधार मजबूत हुआ।

दूसरी ओर, वामपंथ देश के कुछ हिस्सों तक ही सिमट गया। साथ ही जन-आधारित जन हितकर विकास के रास्ते अपने वैचारिक कट्टरवाद के चलते वामपंथी अपने व्यवहार में और नीतियों के कारण आमजन के जीवन और मूल्यों, संस्कृतियों-क्षमताओं से दूर हो गए। वह एक तरह का बुद्धि-विलास भर बनता गया। कांग्रेस पूरी तरह ‘मडलिंगथ्रू’ यानी वक्ती जरूरतों के अनुसार, पैबंद पर पैबंद लगाकर येन-केन-प्रकारेण शासन पर काबिज रही, लेकिन उसका एकाधिकार टूट गया। हिंद स्वराज में परिभाषित जनोन्मुखता से विमुख होता कांग्रेसी नेतृत्व अपनी सुख-सुविधाओं और निजी समृद्धि की खोज में लगा रहा।

लोकलुभावन अपर्याप्त और अनुपयुक्त कार्यक्रम सुरसा की तरह फैलते भ्रष्टाचार के स्रोत बन गए। कांग्रेस की अपनी संगठन कार्यप्रणाली केंद्रीकृत हो गई। नीतिगत स्तर पर पार्टी सरकार की अनुगामी, चेरी बना दी गई और आम जनता की आवाज तक से ‌विमुख। इस तरह जनता के बीच से जनाकांक्षाओं के प्रति सचेत-सजग नेतृत्व नहीं उभर पाया और न ही ऐसी नीतियां बन पाईं। पैराशूटी ‘नेतृत्व’ की अभिजात वर्गीयता भी जनता के सरोकारों से नहीं जुड़ पाई। कार्यकर्ता तक आम जन के जीवन के दुख-दर्द और संस्कृति के भागीदार नहीं बन पाए। नव-उदारवाद के तहत जीडीपी वृद्धि के धराशायी विशाल वृक्ष को फिर से जमीन पर खड़ा करने की नाकाम कोशिशों का नतीजा नाकाम रहा। कालेधन का कुप्रभाव बढ़ता गया। एक तरफ नेताओं-अफसरों की निजी संपत्ति में बेहिसाब इजाफा हुआ और दूसरी ओर कॉरपोरेटी अरबपतियों का राजनीतिकों के साथ मिलकर देश में अरबपति राज का काला-धूसर साया छा गया।

यह ऐसी स्थिति पैदा हुई कि चुनावी राजनीति और आर्थिक वृद्धि दोनों की साख समाप्तप्राय हो गई। देश की जीडीपी का ऊंचा-तुलनात्मक स्तर देश में गहराती बहुआयामी, विश्वस्तर पर चौंकाने वाली गैर-बराबरी का अमानवीय चेहरा बन गया है। चुनाव जीतने की मुहिम में गैर-बराबरी से पीड़ित त्रस्त आम जन को टुकड़ों-टुकड़ों में लोकदिखाऊ अनुपयुक्त-अपर्याप्त, परनिर्भरतावर्द्धक कार्यक्रमों और घोषणाओं का ख्वाब दिखाया गया। दलालों की चांदी बन आई। 2019 के चुनाव में कांग्रेस ने इस सोच को छोड़ा है। लेकिन उसे यह सोचना होगा कि क्यों उसका सकारात्मक संदेश न तो लोगों तक पहुंचा और न ही उसका असर हुआ।

इस दुविधा और कमजोरी का लाभ लेने की बाजार तंत्र के महारथी विशेषज्ञ सभी बड़े चुनाव बजटवाली पार्टियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। दोनों मुख्य दल बड़ी पूंजी, खुले बाजारों, बरास्ता जीडीपी ग्रोथ लोककल्याण का रास्ता अपनाए हुए हैं। इन हालात में एकल पार्टी वर्चस्व की पुनरावृत्ति का खतरा मंडरा रहा है। उससे निपटने की चुनौती के लिए कांग्रेस को कमर कसनी होगी, आजादी की जंग की तरह लोकतांत्रिक भागीदारी तय करके।

गंभीर त्रासदी यह है कि पश्चिम के पूर्व उपनिवेशवादी और वर्तमान उपभोगवादी प्रभावों के चलते हमारे सोच से आम आदमी, उसके संवैधानिक अधिकार और संवेदी, साझी, भागीदारीमय विकास प्रक्रिया जीडीपी वृद्धि की अंधी दौड़ में अपने लोगों, संस्कृति, जीवन-मूल्यों, विरासत, पर्यावरण से कटते गए। आज दोनों मुख्य पार्टियां टुकड़े-टुकड़े लोककल्याणकारी कार्यक्रमों की ओट में विशाल देसी-परदेसी पूंजी, महानगरों की अपसंस्कृतियुक्त जिंदगी और नकलची आर्थिक-वित्तीय-विदेशी संबंधों को बेइंतहा बढ़ावा दे रही हैं। गनीमत है, आज का कांग्रेसी नेतृत्व भी भारत की असली पहचान के प्रति कटिबद्ध खड़ा है। मगर राजनैतिक, सार्वजनिक जीवन में उदारवादी मानस, संस्कृति के साथ आम लोगों के साथ भागीदारी से प्रायः सभी दल विमुख हैं। कांग्रेस को इस दिशा में सक्रिय कार्यक्रमों के साथ आगे आना होगा।

तभी पार्टियों के कॉरपोरेटीकरण और बाजार-विस्तार की चालबाजियों के बूते तथाकथित विशेषज्ञों से चुनाव जीतने के फार्मूले खरीदना जन-जीवन से जुड़ाव, उसमें शिरकत, उसमें सौहार्द और आहृलाद भरने का विकल्प बन गया है। यह कालेधन और राजनीति के गठजोड़ द्वारा स्‍थापित अरबपति राज की पहचान है। कांग्रेस को न्यायपूर्ण, सर्वांगीण, सबकी भागीदारीमय विकास के लिए शेष विश्व की तरह नवउदारवादी नीतियों को त्यागना पड़ेगा। व्यापक जन भागीदारीपूर्ण विकेन्द्रित गांव-किसानी तथा लघु उद्यम और हर इंसान को जरूरी बेसिक सामाजिक सेवाओं और सुरक्षा को ऊंची प्राथमिकता देनी होगी।

चुनाव प्रणाली, कंपनी कानून, राजनैतिक दलों के लिए जरूरी कानून तथा कालेधन से छुटकारे के बिना देश की कुविकास से मुक्ति संभव नहीं है। कांग्रेस को इन मामलों में कानूनी-व्यावहारिक पहल करनी होगी-खुली चर्चा के आधर पर। कांग्रेस की वैचारिक-सैद्धांतिक विरासत को खंगालिए और उसे सामाजिक रूप-रंग दीजिए, तभी देश के राजनैतिक ‌क्षितिज पर छाए काले बादल दूर होंगे। स्वतंत्र जनभागीदारी विमर्श को न्याय के लिए और पैराशूटी, विदेशी साख से मंडित अनुकृतिकारकों की जगह व्यापक भागीदारी कांग्रेस की पुनर्स्थापना के स्तंभ होंगे। व्यक्तियों की जगह संस्‍थाओं को महत्व देना सीखना होगा। यह बहस आगे बढ़नी चाहिए। तभी सूट-बूट के सवालों की जगह भारतीय अस्मिता, सरोकार और जनसंघर्ष का महत्व पहचाना जाएगा।

(लेखक इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर रहे हैं)

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