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विमर्श: विवाद के पीछे मंतव्य

सम्राट अशोक पर किया जा रहा हमला संघ की वैचारिक दृष्टिकोण की स्वाभाविक परिणति
साहित्य अकादेमी पुरस्कार के बाद विवादों में घिरी पुस्तक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों एवं व्यक्तियों का प्रिय शगल इतिहास को अपने मंतव्यों के मुताबिक ढालना रहा है। तथ्यों की उन्हें कभी परवाह नहीं रही। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तब सामने आया जब राजस्थान में वसुंधरा राजे के नेतृत्व में चल रही राज्य सरकार ने यह फरमान जारी किया कि इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करके हल्दी घाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप की सेना को मुगल सम्राट अकबर की सेना पर विजयी बताया जाएगा। अब संघ और भाजपा से जुड़े नाटककार और पूर्व आइएएस अधिकारी दया प्रकाश सिन्हा ने मौर्य सम्राट अशोक पर एक नाटक लिखकर और अखबारों में साक्षात्कार देकर नया विवाद छेड़ दिया है, जिसका लक्ष्य अशोक की छवि पर कालिख पोतकर उन्हें मुगल सम्राट औरंगजेब सरीखा बताना और इतिहास के खलनायकों की संघी सूची में शामिल करना है।

संघ का बुनियादी लक्ष्य हिंदू समाज को हिंदू अस्मिता के आधार पर संगठित करके उसका सैन्यीकरण करना है, ताकि वह उन अहिंदू समुदायों पर विजय प्राप्त कर सके जिन्होंने हिंदू समाज को अतीत में पराजित किया है। हिंदुओं की पराजय का मूल कारण वह हिंदू समाज के कमजोर होते जाने को मानता है और इसका काफी दोष वह बौद्ध धर्म के मत्थे मढ़ता है। जहां तक सम्राट अशोक का सवाल है, वे बौद्ध इतिहास के महानायकों में से एक हैं। संघी आज कुछ भी कहें और चाहे कितना भी दलित प्रेम प्रदर्शित करें, संघ सदा जाति-व्यवस्था का समर्थक रहा है। ‘मनुस्मृति’ के प्रति उसकी घोर श्रद्धा के पीछे एक कारण यह भी है।

संघ भारत के कमजोर होने का एक बहुत बड़ा कारण जाति-व्यवस्था के कमजोर होने को मानता है। उसके द्वितीय और सर्वाधिक प्रभावशाली सरसंघचालक यानी सर्वोच्च नेता माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर के अनुसार, “इतिहास हमें बताता है कि हमारे देश में पश्चिमोत्तर एवं पूर्वोत्तर भाग, जहां बौद्ध प्रभाव के कारण जाति-व्यवस्था भंग हो गई थी, मुसलमानों के भीषण आक्रमण के शिकार सरलता से हो गए। गंधार, जिसे अब कंदहार कहते हैं, पूर्ण रूप से मुसलमान हो गया। पूर्वी बंगाल में भी बहुत अधिक धर्म परिवर्तन हुआ। किंतु दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश के भू-भाग, जो जाति-पांति की मर्यादाओं के पालन में अत्यंत कठोर एवं पुरातनवादी माने जाते थे, मुस्लिम शक्ति एवं धर्मांधता के कई शताब्दियों तक गढ़ रहते हुए भी हिंदू-बहुल बने रहे।”

बौद्ध धर्म के प्रति संघ का दृष्टिकोण गोलवलकर के इन शब्दों से भली-भांति पता चल जाता है, “बुद्ध के पश्चात यहां उनके अनुयायी पतित हो गए। उन्होंने इस देश की युगों प्राचीन परंपराओं का उन्मूलन आरंभ कर दिया। हमारे समाज में पोषित महान सांस्कृतिक सद्गुणों का विनाश किया जाने लगा। अतीत के साथ के संबंध-सूत्रों को भंग कर दिया गया। धर्म की दुर्गति हो गई। संपूर्ण समाज-व्यवस्था छिन्न-विच्छिन्न की जाने लगी। राष्ट्र एवं उसके दाय के प्रति श्रद्धा इतने निम्न तल तक पहुंच गई कि धर्मांध बौद्धों ने बुद्ध धर्म का चेहरा लगाए हुए विदेशी आक्रांताओं को आमंत्रित किया तथा उनकी सहायता की। बौद्ध पंथ अपने मातृ समाज तथा मातृ धर्म के प्रति द्रोही बन गया।”  गोलवलकर का कहना है कि ऐसे समय में शंकराचार्य हिंदू धर्म एवं समाज के पुनरुद्धारक के रूप में प्रकट हुए।

यानी जिस तरह संघ की राय में मुसलमान और ईसाई देशद्रोही हैं, उसी तरह बौद्ध भी हैं। फिर उनके महानायक सम्राट अशोक की छवि पर तारकोल क्यों न पोता जाए? संघ का शंकराचार्य के प्रति अतिशय प्रेम कुछ वर्ष पहले इस मांग के रूप में व्यक्त हुआ था कि उन्हें राष्ट्रीय दार्शनिक घोषित किया जाए।

दया प्रकाश सिन्हा का कहना है कि अशोक औरंगजेब की तरह क्रूर था, उसने अपने भाइयों की हत्या करके सिंहासन पर कब्जा किया और उसकी अनेक रानियां थीं और वह बदसूरत एवं कामुक था। सिंहासन के लिए कब भाइयों के बीच युद्ध नहीं हुए? महाभारत का युद्ध और क्या था? दिलचस्प बात यह है कि सिन्हा को राजा की एकाधिकारवादी सामंती व्यवस्था क्रूर नहीं लगती, केवल कोई एक राजा क्रूर लगता है। क्या सभी हिंदू राजा न्यायप्रिय और दयालु थे? क्या उनके राज्य विस्तार के लिए युद्ध नहीं हुए? क्या युद्ध स्वयं में एक क्रूर और हिंसक कृत्य नहीं है? हम सोलहवीं शताब्दी की पन्ना धाय की कहानी पढ़ते आए हैं जिसने महाराणा संग्राम सिंह के पुत्र उदय सिंह को बचाने के लिए अपने पुत्र की कुर्बानी दे दी थी। उदय को कौन मारने आया था? उसका सगा चाचा ही ना। सिंहासन के लिए भाई-भतीजों को मारने की परंपरा सभी धर्मों के मानने वालों के बीच रही है। इसके लिए सिर्फ अशोक प्रियदर्शी और औरंगजेब आलमगीर को ही क्यों कठघरे में खड़ा किया जा रहा है?

गौतम बुद्ध का जन्म भले ही वर्तमान नेपाल की भूमि पर हुआ हो, लेकिन उनका जीवन पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में ही बीता। उनका मत भारत में तो फैला ही, विश्व के अन्य देशों में भी उसने अपने प्रभाव का विस्तार किया। आज भी वह चीन, जापान, म्यांमार, श्रीलंका और अन्य अनेक देशों में फल-फूल रहा है। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महेंद्र, पुत्री संघमित्रा और अनेक अन्य बौद्ध विद्वानों को श्रीलंका एवं चीन आदि देशों में भेजा। लेकिन कालांतर में भारत से बौद्ध धर्म को उखाड़ फेंका गया। बौद्धों का सफाया करने वाले ही संघ के आदर्श हैं। सम्राट अशोक पर किया जा रहा हमला इसी वैचारिक दृष्टिकोण की स्वाभाविक परिणति है। देश के वैचारिक माहौल को और अधिक असहिष्णु एवं प्रदूषित बनाने का यह एक और प्रयास है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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