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मुंबई-मालेगांव विस्फोट: वे मारे गए, मारा किसी ने नहीं

मुंबई-मालेगांव विस्फोट दोनों मामलों के आरोपी बरी हो गए, पीड़ित और परिवार न्याय की धुंधली तस्वीर में पूछते ही रह गए तो दोषी कौन
विस्फोट के बाद लोकल का नजारा

मुंबई की लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों ने पूरे देश को हिला दिया था। इस धमाके में 189 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी। इस घटना के दो साल बाद 2008 में भी एक विस्फोट हुआ, जिसमें छह लोगों की मौत हो गई थी और 100 से ज्यादा घायल हुए। इतने साल न्याय की बाट जोह रहे पीड़ितों के परिजनों को अंततः निराशा हाथ लगी, एक जैसे दिखने वाले दोनों मामलों के आरोपी बरी हो गए। मुंबई धमाकों के लिए एटीएस ने पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा और इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों पर दोष डाल दिया।

मालेगांव विस्फोट में भी कदम दर कदम मुकदमे का चेहरा बदलता रहा। मालेगांव, महाराष्ट्र का संवेदनशील मुस्लिम बहुल इलाका है। इस धमाके के बाद पहली बार ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्द सुनाई पड़ा और कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा और अन्य लोगों की इस मामले में गिरफ्तारी हुई। आरोप था कि धमाके के लिए इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा के नाम रजिस्टर्ड थी।

मालेगांव में धमाके की जगह

मालेगांव में धमाके की जगह

11 जुलाई 2006 की शाम के बाद महाराष्ट्र एटीएस ने 13 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया और दावा किया कि ये हमले पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ और लश्कर-ए-तैयबा के इशारे पर किए गए हैं। 2015 में विशेष मकोका अदालत ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया और पांच को मृत्युदंड तथा सात को आजीवन कारावास की सजा दी गई। 21 जुलाई 2025 को बॉम्बे हाइकोर्ट ने सभी को बरी करते हुए अपने फैसले में कहा कि अभियोजन ‘‘पूरी तरह विफल’’ रहा है, जबरन कबूलनामे कराए गए थे और कई गवाह अविश्वसनीय थे जो बयान समय-समय पर बदलते रहे।’’ साथ ही यह टिप्पणी भी की गई कि क्राइम सीन की वैज्ञानिक जांच अधूरी और संदिग्ध थी। न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और न्यायमूर्ति शरद जमेले की पीठ ने लिखा, ‘‘अभियोजन ने जो सबूत दिए, वे न्यायिक मानकों पर खरे नहीं उतरते। दोषियों को सजा देने के लिए ‘संदेह’ नहीं, ‘अपराध सिद्धि’ चाहिए। लेकिन अब सवाल यह है कि दोषमुक्त हुए लोगों की जिंदगी के तकरीबन 19 साल जेल में कटे और पीड़ित भी बस इंसाफ की उम्मीद लगाए ही बैठे रहे। यह पुलिस और अभियोजन पक्ष पर कड़े सवाल की तरह हैं।

मालेगांव विस्फोट में भी आरोपियों के खिलाफ ‘गंभीर संदेह’ था लेकिन सबूत नहीं जुटाए जा सके। मालेगांव शहर में एक मस्जिद के बाहर बम धमाके में छह लोगों की मौत हुई थी। जांच में धुर दक्षिणपंधी समूह अभिनव भारत से जुड़े कुछ लोगों के नाम सामने आए थे। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित और पांच अन्य के खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज हुआ। लेकिन ये लोग भी 31 जुलाई 2025 को एनआइए की विशेष अदालत में ‘सबूतों के अभाव में’ बरी हो गए। कोर्ट में यह साबित ही नहीं किया जा सका कि बम धमाके में इस्तेमाल की गई मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा के नाम पर रजिस्टर्ड जरूर थी लेकिन उसके वहां होने में उनका ही हाथ था। फॉरेंसिक सबूत अपूर्ण और संदिग्ध थे। साथ ही 323 गवाहों में से 37 पलट गए थे।

कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा

कर्नल पुरोहित और साध्वी प्रज्ञा

विशेष अदालत के न्यायमूर्ति ए. के. लाहोटी ने निर्णय में लिखा, ‘‘अपराध सिद्ध नहीं होता, यदि केवल राजनीतिक कदम का सहारा लिया जाए। न्याय भावना पर नहीं, ठोस प्रमाण पर चलता है।’’

साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने गिरफ्तारी और मुकदमे के दौरान तत्कालीन यूपीए सरकार पर गंभीर आरोप लगाए थे, जिसमें अवैध हिरासत, शारीरिक और मानसिक यातना, और “हिंदू आतंकवाद” की थ्योरी को गढ़ने की साजिश शामिल थी।

इन दोनों फैसलों के बाद सवाल उठा कि क्या इतने वर्षों तक निर्दोष लोगों को जेल में रखने का कोई हिसाब होगा? क्या पुलिस और एजेंसियों की भूमिका की जवाबदेही तय होगी? विशेषज्ञ मानते हैं कि जांच एजेंसियों की लापरवाही, राजनीतिक दबाव, और सबूत जुटाने में की गई गलतियां व्यवस्था पर से जनता का भरोसा डगमगाने के लिए काफी हैं।

इन दोनों मामलों में बरी हुए लोग दो अलग-अलग समुदायों से आते हैं। इसी ने फैसलों की सांप्रदायिक व्याख्याओं को और गहरा किया है। मालेगांव मामले में जहां 'हिंदू आतंकवाद' जैसे शब्द राजनीतिक विमर्श में उभरे, वहीं मुंबई ब्लास्ट केस में मुस्लिम युवकों की लंबी कैद ने एक पूरे समुदाय में असुरक्षा और अविश्वास की भावना को जन्म दिया।

इन फैसलों से यह साफ है कि अपराध की जांच और मुकदमा प्रक्रिया को और अधिक वैज्ञानिक और न्यायसंगत बनाने की जरूरत है। अगर जांच एजेंसियां अपने दायित्व में विफल रहती हैं, तो न आरोपी वर्षों जेल में पिसते हैं, असली अपराधी भी बच निकलते हैं।

बरी होने के बाद मुंबई विस्फोट के आरोपी

बरी होने के बाद मुंबई विस्फोट के आरोपी

न्यायपालिका की भूमिका यहां ‘दोष से बचाने वाली ढाल’ की तरह है, लेकिन जब तक जांच और अभियोजन की प्रक्रिया मजबूत नहीं होगी, तब तक न तो पीड़ितों को सच्चा न्याय मिलेगा और न ही समाज में विश्वास बहाल होगा।

दोनों मामलों में जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर प्रश्न उठे और मीडिया ट्रायल का दबाव महसूस किया गया। कुछ लोगों का मानना है कि दोनों मामलों में राजनैतिक प्रभाव का साफ असर रहा। तो, क्या आतंकवाद के मामलों में भी अब जांच की दिशा आरोपी के धर्म, राजनीतिक विचारधारा या सत्ता में बैठे लोगों की सहूलियत से तय होगी?

जांच कदम दर कदम- मालेगांव

अक्टूबर 2008: साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित सहित 11 लोगों की गिरफ्तारी। एटीएस ने दावा किया कि धमाके के पीछे हिंदू कट्टरपंथी संगठन “अभिनव भारत” का हाथ था।

20 जनवरी 2009: एटीएस ने विशेष अदालत में 4,000 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की, जिसमें 14 लोगों को आरोपी बनाया गया।

2011: जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंपी गई, जिसने मामले को नए सिरे से देखना शुरू किया।

21 अप्रैल 2011: एटीएस ने एक सप्लीमेंट्री चार्जशीट दायर की, जिसमें अतिरिक्त सबूतों का दावा किया गया।

13 मई 2016: एनआईए ने नई चार्जशीट दायर की, जिसमें मकोका हटाया गया और कहा गया कि साध्वी प्रज्ञा और अन्य के खिलाफ प्रथम दृष्टया सबूत पर्याप्त नहीं हैं।

2017: साध्वी प्रज्ञा और कर्नल पुरोहित को जमानत मिली, लेकिन मुकदमा जारी रहा।

30 अक्टूबर 2018: एनआईए कोर्ट ने सात आरोपियों—साध्वी प्रज्ञा, कर्नल पुरोहित, मेजर रमेश उपाध्याय, अजय रहीरकर, सुधाकर द्विवेदी, सुधाकर चतुर्वेदी, और समीर कुलकर्णी के खिलाफ आरोप तय किए।

19 अप्रैल 2025: फैसला सुरक्षित।

31 जुलाई 2025: विशेष एनआईए कोर्ट ने सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया, क्योंकि अभियोजन पक्ष ठोस सबूत पेश नहीं कर सका।

जांच कदम दर कदम- मुंबई लोकल धमाके

11 जुलाई 2006: सात बम धमाके मुंबई की लोकल ट्रेनों में। प्रेशर कुकर बमों का इस्तेमाल, जिसमें आरडीएक्स और अमोनियम नाइट्रेट का मिश्रण था।

12 जुलाई 2006: मुंबई पुलिस, एटीएस ने जांच शुरू की। संदेह इस्लामिक आतंकी संगठनों पर।

30 अगस्त 2006: एटीएस ने तीन संदिग्धों- कमाल अहमद अंसारी, तनवीर अहमद अंसारी, और फैजल शेख को गिरफ्तार किया। बाद में कुल 13 लोग गिरफ्तार किए गए।

21 नवंबर 2006: एटीएस ने 4,000 पन्नों की चार्जशीट दाखिल की, जिसमें 13 लोगों पर आतंकी साजिश, हत्या, और गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोप लगाए गए।

2010: विशेष मकोका कोर्ट ने सुनवाई शुरू की। 323 गवाहों की जांच की गई, जिनमें से कई बयानों से पलट गए।

11 सितंबर 2015: विशेष मकोका कोर्ट ने 12 आरोपियों को दोषी ठहराया। पांच को मौत की सजा, सात को उम्रकैद। एक आरोपी, अब्दुल वाहिद शेख, को बरी किया गया।

21 जुलाई 2025: बॉम्बे हाईकोर्ट ने सभी 12 दोषियों को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ मामला साबित करने में “पूरी तरह विफल” रहा।