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जहां है सितारों की सियासी पूछ

सही पाले में होने से ही चलता है फिल्मी सितारों का जादू
अपने प्रशंसकों के बीच रजनीकांत

तमिल कॉमेडियन वडिवेलु के सबसे यादगार फिल्मी दृश्यों में से एक में उन्हें अपनी पार्टी के लिए एक मतदान बूथ पर सक्रिय दिखाया गया है। वे एक मतदाता से पूछते हैं, “पार्टी के चुनाव चिह्न 'नारियल वृक्ष' पर वोट दिया, ना!” मतदाता वोट देने की कसम खाने लगता है। लेकिन वडिवेलु के कुरेदने पर आखिर वह कबूल करता है कि आपसे पैसे लिए तो आपके ‘नारियल वृक्ष’ और विरोधी से पैसे मिले तो उसके चुनाव चिह्न ‘सीढ़ी’ दोनों पर मुहर लगा दिए। वडिवेलु हक्का-बक्का रह गए।

वडिवेलु अगले मतदाता की ओर मुड़ते हैं, ‘नारियल वृक्ष’ पर मुहर लगाया क्या? वह हां कहता है और अपनी बात साबित करने के लिए वोटर स्लिप भी दिखाता है। जाते-जाते वह कहता जाता है कि वह पिछले 15 वर्षों से ऐसा ही कर रहा है। वडिवेलु फिर हैरान! “तो, ये 15 साल से ऐसा ही करते आ रहे हैं?” भारतीय सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ कॉमेडियन माने जाने वाले वडिवेलु ने जब हास्य सीन किए थे तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि दशक भर बाद वे खुद इस चुनावी राजनीति के शिकार हो जाएंगे। रक्षात्मक मुद्रा में आई द्रमुक ने 2011 के विधानसभा चुनावों में कड़े चुनावी मुकाबले के बीच प्रचार अभियान में वडिवेलु को लगाया। तब वेडिवेलु सिनेमा में अपने शबाब पर थे और कहा जाता है कि उन्हें इसके लिए मोटी रकम भी मिली थी। द्रमुक ने उन्हें जयललिता के साथ आ जुड़े डीएमडीके नेता विजयकांत के मुकाबले उतारा था। वडिवेलु की तूफानी रैलियों से लगता था कि वे विजयकांत का सूपड़ा साफ कर देंगे। वे विजयकांत के अटपटे व्यवहार, प्रचार के दौरान अपने फैन्स की तौहीन कर मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी के लिए खुलकर खिंचाई कर रहे थे। वडिवेलु कहते, “अगर विजयकांत मुख्यमंत्री हैं तो मैं प्रधानमंत्री। अगर वह पीएम हैं तो मैं राष्ट्रपति। अगर वह राष्ट्रपति हैं तो मैं ओबामा।” तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि समेत द्रमुक नेताओं को ये जुमले खूब भाते थे।

वडिवेलु का दुर्भाग्य था कि द्रमुक बुरी तरह हार गई। जयललिता दोबारा सत्ता में आ गईं और विजयकांत विपक्ष के नेता के रूप में उभरे। सत्तारूढ़ पार्टी ने कोई फरमान जारी नहीं किया और न ही विजयकांत ने ऐसा कुछ करने को कहा। फिर भी तमिल फिल्मकारों ने चुपचाप नई फिल्मों से वडिवेलु को बाहर कर दिया। अनायास वडिवेलु ने कॉमेडी किंग का सिंहासन खो दिया और फिर वह वापसी नहीं कर सके। रजनीकांत इस मामले में भाग्यशाली रहे। 1996 के विधानसभा चुनाव के दौरान जयललिता के खिलाफ उनका यह बयान खूब चला कि, “अगर जयललिता सत्ता में लौटीं तो भगवान भी तमिलनाडु को नहीं बचा सकता।” चुनावों में जयललिता हार गईं, जिसके बाद रजनीकांत ने सुपरस्टार के रूप में अपनी स्थिति और मजबूत की। लेकिन जयललिता 2001 में दोबारा सत्ता में आईं तो रजनीकांत ने तुरंत अम्मा के साथ सुलह कर ली। राजनीति में वडिवेलु के अनुभव के बाद ज्यादातर फिल्मी सितारों का रुख सत्ताधारी दल की ओर हो गया। सिर्फ कमल हासन ने अलग रास्ता अपनाया और राज्य सरकार की खुलकर आलोचना की। इसके लिए उन्हें भी दिक्कतें झेलनी पड़ीं। 2013 में विश्वरूपम के रिलीज से पहले उन्होंने मुस्लिम संगठनों की आपत्ति वाले दृश्यों को हटाने से इनकार कर दिया। जब जयललिता ने फिल्म पर रोक लगा दी तो उन्होंने उसे हाइकोर्ट में चुनौती दी। फिल्मी हस्ती कवितालय कृष्णन कहते हैं, “हालांकि यह प्रतिबंध फिल्म के लिए वरदान साबित हुआ। विश्वरूपम विवादों के कारण हिट हो गई। लेकिन इसी तरह विवादों में आईं कमल हासन की दूसरी फिल्मों के बारे में ऐसा नहीं रहा।” जब तक जयललिता और करुणानिधि राजनीति में सक्रिय रहे, कमल और रजनीकांत दोनों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को दबाना पड़ा। इन दोनों नेताओं के राजनीतिक पटल से ओझल होने पर ही ये दोनों अभिनेता राजनीति में सक्रिय हुए।

फिल्म इतिहासकार जी. धनंजयन का कहना है, “बॉलीवुड की तरह यहां आत्मनिर्भर फिल्म निर्माताओं का अभाव है। हिंदी सिनेमा में जहां ओम पुरी, शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह जैसे लोग रहे हैं जो अपने विचार व्यक्त करते रहे हैं। वहीं, तमिल सितारों का इस्तेमाल सिर्फ चापलूसी के लिए किया जाता है।” अब आकर तमिल सिनेमा में राम, पीए रंजीत, वेतरीमारन और राजू मुरुगन जैसे आजाद ख्याल फिल्मकार उभरे हैं जो न सिर्फ राजनीति के प्रति आलोचनात्मक फिल्में बनाते हैं बल्कि दूसरे मंचों पर अपने विचार खुलकर रखते हैं। लेकिन फिल्मी सितारे अभी भी अहम मुद्दों पर मौन ही रहते हैं।

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