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किसान हित की बात तो अर्धसत्य

अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देश भारतीय बाजार में अपना माल खपाने के लिए लॉबिंग करते हैं, लेकिन हम क्या करते हैं, यह साफ नहीं
धरती कथा

आजकल सरकार के एक फैसले को लेकर काफी चर्चा है और उसको श्रेय भी दिया जा रहा है। मामला है रीजनल कांप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) समझौते से भारत के बाहर होने का। यानी हमने इस फैसले के जरिए देश के करोड़ों किसानों की रोजी-रोटी छिनने से बचा ली है। बात तो सही है। समझौता होता तो ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से सस्ते डेयरी उत्पाद हमारे डेयरी किसानों के लिए संकट पैदा कर देते। लेकिन इसके अलावा और कौन-से कृषि उत्पाद हैं जो किसानों के लिए संकट पैदा करते? उनमें से कई तो दशकों से संकट पैदा कर रहे हैं। यह लगातार जारी है, क्योंकि हमारी नीतियों की खामियां देश के किसानों को न तो पूरा संरक्षण देती हैं और न ही उनके लिए वैश्विक बाजार तलाशती हैं। अंतरराष्ट्रीय व्यापार के मामले में देश में सबसे कमजोर और असहाय कृषि क्षेत्र ही है, क्योंकि सरकार के मंत्रालयों के बीच ही बेहतर तालमेल नहीं है।

अब बात उन एशियाई देशों की लें, जो आरसीईपी में हिस्सेदार हैं। हम दुनिया में सबसे अधिक खाद्य तेल आयात करने वाले देशों में शुमार होते हैं और मलयेशिया और इंडोनेशिया हमें भारी मात्रा में पॉम ऑयल का निर्यात करते हैं। नौवें दशक में हम खाद्य तेलों के मामले में लगभग आत्मनिर्भर थे और जरूरत का 10 से 15 फीसदी ही आयात करते थे। लेकिन अब तो बात 40 फीसदी तक आ पहुंची है। हमें निर्यात करने वाले देशों में ब्राजील, कनाडा और अमेरिका सहित तमाम देश शामिल हो गए हैं। और तो और, ऑलिव ऑयल के लिए एक अच्छा-खासा बाजार देश में तैयार कर लिया गया है। इन देशों की सरकारों या उनके उत्पादक संगठनों ने देश में अच्छी-खासी लॉबिंग की और यहां बाजार खड़ा कर लिया है। लेकिन हमारे नौकरशाह और सरकारें ऐसा कुछ नहीं करती हैं। हमने 1984 में ऑयलसीड ऐंड पल्सेज टेक्नोलॉजी मिशन बनाया, लेकिन इसके नतीजे नहीं आए और हम बड़े आयातक बनते चले गए।

इसमें थोड़ा बदलाव करीब तीन साल पहले आया जब उस वक्त के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता वाली समिति ने दाल उत्पादक किसानों के लिए ऊंचे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय करने और सरकारी खरीद बढ़ाने की सिफारिश की। उस पर अमल हुआ और दनहन की बंपर उपज हो गई। लेकिन दो साल बाद किसानों को एमएसपी से काफी नीचे दालें बेचनी पड़ीं। जहां तिलहन उगाने वाले किसानों को अधिकांश मामलों में एमएसपी नहीं मिलता है, वहां किसान पैदावार कैसे बढ़ाएं। लेकिन तेल आयात तो जारी है। दाम बढ़ते ही सीमा शुल्क कम होने लगता है। यही हाल गन्ना किसानों का है। देश में चीनी का बंपर उत्पादन होने से स्टॉक बहुत ज्यादा है। नतीजा, किसानों को अभी पिछले पेराई सीजन का कई हजार करोड़ रुपये का भुगतान बकाया है। देश के सबसे बड़े चीनी उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश की सरकार ने अभी राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) तय नहीं किया है जबकि नया पेराई सीजन शुरू हुए डेढ़ माह बीत गया है। प्याज के दाम बढ़ते ही निर्यात पर अंकुश सामान्य बात है। अमेरिका से लेकर ऑस्ट्रेलिया और यूरोपीय देश भारतीय बाजार में अपना माल खपाने के लिए लगातार लॉबिंग करते हैं, लेकिन हम इस मामले में क्या करते हैं, कुछ साफ नहीं दिखता है। मसलन, अमेरिकी सेब, कैलिफोर्निया के बादाम और पीच उत्पादकों के एसोसिएशन हमारे देश में विज्ञापन देकर बाजार तैयार कर रहे हैं। भले ही कश्मीर और हिमाचल प्रदेश का सेब बाजार में बेहतर स्थिति में न पहुंचे, लेकिन चीन का फ्यूजी एप्पल बाजार में मिल जाता है। यह किसी महंगे बाजार की बात नहीं है। सामान्य रिटेल स्टोरों में यह सब उपलब्ध है।

इस मोर्चे पर कृषि, खाद्य, वाणिज्य और विदेश मंत्रालयों के बीच कोई तालमेल ही नहीं दिखता। कृषि उपजों के मामले में उनकी प्राथमिकता भी काफी नीचे है। इसलिए, भले हम इस मुगालते में रहें कि इस बार किसानों की आवाज ज्यादा असरदार रही और सरकार ने आरसीईपी से हाथ खींच लिए, असल में यह अर्धसत्य ही है। असल बात उद्योग, सेवाओं, निवेश और ऑनलाइन रिटेल पर अटकी है। वरना अब भी मुक्त व्यापार समझौतों के तहत तमाम कृषि उत्पाद भारतीय बाजार में आ रहे हैं और इसका खामियाजा घरेलू किसानों को उठाना पड़ता है। दीर्घकालिक निर्यात नीति का न होना भी किसानों के खिलाफ जाता है। इसलिए संरक्षण मिल जाना ही काफी नहीं है, बल्कि बड़ा बाजार और वहां पहुंचने के लिए मौके मिलना भी उतना ही अहम है। तभी देश के किसानों की बेहतर कमाई के रास्ते भी खुलेंगे। लेकिन इसके लिए उनको प्रतिस्पर्धी भी करनी होगी।

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