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अचानक बदल गई फिजा

महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव और कुछ राज्यों के उपचुनाव के नतीजों से विपक्ष जोश में
दूसरे दलों से आमदः 23 अक्टूबर को भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस और झामुमो के विधायक

भारतीय जनता पार्टी के हरमू स्थित प्रदेश मुख्यालय का माहौल 23 अक्टूबर को उत्साह से भरा हुआ था। उस दिन विपक्ष के पांच विधायक भाजपा में शामिल हो रहे थे। पार्टी कार्यालय में शाम तक पटाखों की बड़ी खेप भी आ गई थी। लेकिन अगली सुबह महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के नतीजे आते ही सारा जोश ठंडा पड़ गया। उसके पहले भाजपाई कह रहे थे कि इस बार पार्टी तीन दिन दिवाली मनाएगी। पहले विपक्षी विधायकों को तोड़ने की खुशी में, फिर महाराष्ट्र और हरियाणा में जीत की खुशी में, और फिर आखिर में असली दिवाली। लेकिन हालत यह हो गई कि 24 अक्टूबर को भाजपा का कोई भी नेता या प्रवक्ता चुनाव नतीजों पर प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार नहीं था। इतना ही नहीं, देर शाम पार्टी मुख्यालय से पटाखे भी वापस भेजे जाने लगे।

यही हाल उन विधायकों का था, जो महज 24 घंटे पहले तामझाम के साथ भगवा चोला ओढ़ चुके थे। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आए दोनों विधायक, सुखदेव भगत और मनोज यादव कुछ भी बोलने को तैयार नहीं थे। झामुमो छोड़ने वाले कुणाल षाड़ंगी तो जैसे भूमिगत ही हो गए। झामुमो छोड़ने वाले दूसरे विधायक जे.पी. पटेल केवल इतना कह सके कि वे केवल झारखंड की राजनीति पर टिप्पणी करेंगे। अपने नौजवान संघर्ष मोर्चा के साथ भाजपा में शामिल हुए भवनाथपुर (गढ़वा) के विधायक भानु प्रताप शाही भी टिप्पणी करने से बचते रहे। दूसरी ओर, रांची में भाजपा के प्रदेश मुख्यालय से चंद कदम की दूरी पर झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन के निजी आवास पर माहौल खुशनुमा था। लोग हरियाणा और महाराष्ट्र के साथ बिहार में विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजों को भाजपा के पतन का संकेत बता रहे थे।

दरअसल, हरियाणा और महाराष्ट्र के नतीजों ने झारखंड में भी भाजपा के उत्साह पर पानी फेर दिया है। चंद रोज पहले तक ‘65 नहीं, 75 प्लस’ का नारा लगाने वाले भाजपा नेताओं ने हरियाणा में ‘75 पार’ नारे की हवा निकलती देख चुप्पी साध ली है। 24 अक्टूबर को भी देर शाम जब दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने महाराष्ट्र और हरियाणा के परिणाम को भाजपा की ऐतिहासिक जीत करार दिया, तब रांची में झारखंड भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ ने मीडिया को अपनी प्रतिक्रिया भेजी।

झारखंड में दो महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं। लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 14 में से 11 सीटों पर जीत से उत्साहित भाजपा ने विधानसभा चुनाव में 65 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है। विधानसभा की 81 सीटों में से वह कम से कम 70 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करेगी। बाकी सीटें वह सहयोगी आजसू और लोजपा को देगी। दूसरी तरफ विपक्ष झामुमो के नेतृत्व में एकजुट होकर चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में है। विपक्ष के महागठबंधन में कांग्रेस, झारखंड विकास मोर्चा और राजद शामिल हैं। हालांकि इन दलों में सीटों के बारे में अभी फैसला नहीं हुआ है।

लोकसभा चुनाव में दुमका सीट से झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन की पराजय के बाद भाजपा को यह भरोसा हो गया कि वह झामुमो के वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। इसलिए पार्टी ने झामुमो के गढ़, संथाल परगना और कोल्हान में पूरी ताकत झोंक दी है। झारखंड में आदिवासियों की आबादी करीब 27 फीसदी है और इनमें से करीब 90 फीसदी मतदाता झामुमो के साथ हैं। संथाल परगना और कोल्हान में झामुमो ने अब तक भाजपा को घुसने नहीं दिया है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा की नजर इन दो प्रमंडलों पर है।

भाजपा हर कीमत पर आदिवासियों को अपने पाले में करना चाहती है, लेकिन उसके साथ सबसे बड़ी विडंबना यह है कि अर्जुन मुंडा को छोड़ कर उसके पास कोई सर्वमान्य आदिवासी चेहरा ही नहीं है। भाजपा की समस्या यह भी है कि मुख्यमंत्री रघुवर दास को अर्जुन मुंडा पसंद नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में खूंटी से अर्जुन मुंडा को टिकट दिए जाने से पहले तक रघुवर दास ने उन्हें पूरी तरह हाशिए पर रखा था। संथाल परगना और कोल्हान में रघुवर दास खुद पूरा जोर लगाए हुए हैं, लेकिन अब तक का परिदृश्य बताता है कि उनकी कोशिशें सफल नहीं हो रही हैं। हालांकि, रघुवर आदिवासियों को अपने पक्ष में करने के लिए शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन को कठघरे में खड़ा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे हैं, लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि उनके आरोपों से वोटर कितना प्रभावित होता है।

इसके विपरीत झामुमो ने 19 अक्टूबर को रांची में एक रैली आयोजित कर साबित कर दिया कि झारखंड के आदिवासियों का समर्थन उसके पास बरकरार है। इस रैली ने भाजपा खेमे में खलबली मचा दी। झामुमो नेता हेमंत सोरेन कहते हैं, “इस बार का चुनाव भाजपा के लिए सबक होगा। भाजपा नेताओं को यह पता नहीं है कि झारखंड के मन में क्या है। लोग झामुमो को सत्ता सौंपने के लिए तैयार हैं। वे भाजपा की गलत नीतियों से आजिज आ चुके हैं।” दूसरी तरफ भाजपा के प्रदेश महासचिव दीपक प्रकाश का दावा है कि इस चुनाव में पार्टी ‘65 प्लस’ का लक्ष्य जरूर हासिल करेगी। झामुमो की असलियत लोगों को पता चल चुकी है।

झारखंड की मौजूदा राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इस बार सत्ता पक्ष और विपक्ष ने मुद्दों की अदला-बदली कर ली है। पहले रोजी-रोटी और विकास की बात करने वाली भाजपा अब जल-जंगल-जमीन और आदिवासी अस्मिता की बात करने लगी है। दूसरी ओर, झामुमो, कांग्रेस और झाविमो ने रोजगार, विकास, आरक्षण और शिक्षा जैसे मुद्दों पर भाजपा को घेरना शुरू कर दिया है। विपक्षी खेमे से अब झारखंडी अस्मिता या जल-जंगल-जमीन की बात नहीं होती है। राजनीतिक दलों के स्टैंड में यह बदलाव झारखंड में विधानसभा चुनाव के परिदृश्य को दिलचस्प बना रहा है। राजनैतिक प्रेक्षक मानते हैं कि झारखंड बनने के बाद पैदा हुए मतदाता इस चुनाव में पहली बार वोट डालेंगे, इसलिए उनके सामने झारखंडी अस्मिता और जल-जंगल-जमीन का मुद्दा अहमियत नहीं रखता। इस नजरिए से भाजपा को थोड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।

भाजपा ने 2014 के चुनाव के तत्काल बाद झाविमो के छह विधायकों को अपने पाले में कर लिया था। अब इस चुनाव से ठीक पहले पांच और विधायकों को तोड़ कर भाजपा खुद को सुल्तान साबित करने की सोच रही है। लेकिन इन 11 विधायकों के चुनाव क्षेत्रों में उसे अपने ही लोगों की बगावत का सामना करना होगा। आम लोग भी मानते हैं कि राजनैतिक अवसरवाद का दौर अब खत्म हो चुका है।

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. रामेश्वर उरांव कहते हैं, “विधायकों ने पाला बदला है, जनता ने नहीं। जनता तो हमारे साथ ही है।” झामुमो के प्रवक्ता सुप्रियो भट्टाचार्य ने तो इन विधायकों को स्क्रैप करार दिया है। इसके विपरीत रांची के सांसद संजय सेठ कहते हैं, “झारखंड के लोगों में भाजपा के प्रति भरोसा बढ़ा है। सरकार और पार्टी की नीतियों के प्रति जन समर्थन को देख कर ही ये विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं। इसका लाभ पार्टी को मिलेगा।”

लेकिन भाजपा की राह इतनी आसान भी नहीं होगी। मुख्यमंत्री रघुवर दास की कई योजनाएं तो अभी तक जमीन पर ही नहीं उतरी हैं। उधर, विपक्ष के पास सरकार की विफलताओं और हवा-हवाई घोषणाओं की लंबी फेहरिस्त है, जिसके बल पर वह लोगों को अपने पाले में करने की हरसंभव कोशिश कर रहा है। इस रस्साकशी के बीच झारखंड के विकास की गाड़ी कहां थम जाएगी, कहा नहीं जा सकता। लेकिन इतना तय है कि कम से कम भाजपा इस गाड़ी को दोबारा स्टार्ट करने के पक्ष में नजर नहीं आती। वह तो सत्ता बचाने की जद्दोजहद में जुटी हुई है। खैर! राज्य पूरी तरह चुनाव मोड में है और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष दोनों ही अपने मुद्दों को धार देने में लगे हैं।

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