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फिल्म : कालीन भैया के बाऊ जी

कुलभूषण खरबंदा ऐसे कलाकार हैं, जिनके लिए भूमिकाएं लिखी नहीं जा सकतीं, क्योंकि वे किसी किरदार को निभाते नहीं, बल्कि जीते हैं
कुलभूषण खरबंदा

सुनील मिश्र मिर्जापुर के दो सीजन देखते हुए ध्‍यान कुलभूषण खरबंदा पर एकाग्र हो जाता है। सामने एक किरदार बैठा है जिसका नाम है, सत्‍यानंद त्रिपाठी। उसका बेटा अखंडानंद त्रिपाठी मिर्जापुर का बाहुबली है, जिसे सभी कालीन भैया के नाम से जानते हैं। अपराध की दुनिया में उसकी बहुत धमक है। वह शहर पर अपना राज चला रहा है। कालीन के कारोबार के पीछे अवैध हथियारों का निर्माण और उसकी तस्‍करी के साथ ही तमाम दूसरे अपराध कालीन भैया के दिमाग और कोठी से फलीभूत होते हैं। कोठी के भीतर अखंडानंद का भरापूरा परिवार है। बाऊ जी सत्‍यानंद त्रिपाठी हैं जो, व्‍हील चेयर पर चलते हैं। हर महत्‍वपूर्ण मसलों, गुप्‍त और जाहिर बैठकों में उनकी वाचिक या मूक या कहें शांत उपस्थिति है। वे एक सरगना के बाप हैं और उस हिसाब की बुद्धि भी रखते हैं। वे सलाह देते हैं जो, लगभग पत्‍थर की लकीर हो जाता है।

सत्‍यानंद त्रिपाठी खुली आंखों से सब कुछ ताड़ता है, अपने अराजक पोते की लाइन का भी उसको पता है, अपनी बहू के चलन को भी वह जानता है, रसोई में काम करने वाले खानसामा लड़के को भी। वह वक्‍त आने पर हस्‍तक्षेप करता है और उस घड़ी वह सबसे अहम, निर्णायक आदमी होता है। वह अंधेरे और उजाले में बराबर देख लिया करता है।

76 वर्षीय अभिनेता कुलभूषण खरबंदा ने सत्‍यानंद त्रिपाठी को पूरे मनप्राण से जिया है। मिर्जापुर में कुलभूषण खरबंदा को देखना अनोखा अनुभव है। कुत्सित, कामुक, निर्मम और भीतर से बेहद लोलुप आदमी जिसके मस्तिष्‍क की सक्रियता और आवेगी चेष्‍टा के आगे व्‍हील चेयर कोई बाधा नहीं है। जुगुप्‍सा से भरा यह किरदार खाने की मेज पर सीधे अपने बेटे से कह देता है, “बहुत दिनों से बहू मालिश करने नहीं आई है, आज उसे भेज देना।” एक हवेली जिसकी पूरे शहर में दहशत है, जिसके आगे सारी व्‍यवस्‍था, पुलिस, राजनीति, प्रशासन नतमस्‍तक है। उस हवेली में देखिए मर्यादाएं किस कदर ताक पर हैं। ऐसे लोग आपस में रिश्‍ते में बंधे हुए हैं, जो एक-दूसरे को पसंद नहीं करते। सारे किरदार ग्रे शेड में हैं और इन सबमें बाऊ जी यानी कुलभूषण खरबंदा अपने किरदार में जीवन भर का अपना अनुभव निचोड़ देते हैं।

 

कुलभूषण खरबंदा 70 के दशक में बा-रास्‍ता नाटक सिनेमा में आए थे। नाटकों में ही खुद को सहज महसूस करने वाले खरबंदा अच्‍छी खासी पढ़ाई के बाद सृजनात्‍मक अभिव्‍यक्ति के लिए थिएटर में चले आए थे। शुरुआत में सिनेमा के प्रति उनका कोई आकर्षण नहीं था। फिल्म के लिए ऑडिशन देने और उसके नतीजे का इंतजार करने को वे समय की बर्बादी समझते थे। लिहाजा शुरुआती दौर में उन्होंने खुद को पूरी स्‍वतंत्रता देकर रंगमंच को भरपूर वर्ष दिए। उन्होंने ‘अभियान’ नाम से अपनी संस्था बनाई, फिर दिल्‍ली में ‘यांत्रिक’ संस्था से जुड़े। कोलकाता में वे मूर्धन्‍य रंगकर्मी श्‍यामानंद जालान की संस्‍था ‘पदातिक’ के साथ जुड़े और कुछ नाटक करके चर्चित हुए। उनके प्रमुख नाटकों में सखाराम बाइंडर, आत्‍मकथा, बाकी इतिहास, गिनीपिग, एक शून्‍य बाजीराव, हत्‍या एक आकार की आदि शामिल हैं। शब्‍दों को पीसते-चबाते हुए संवाद बोलने की उनकी शैली को दर्शकों ने खूब पसंद किया और उनकी यही छवि दर्शकों के दिमाग में बैठ गई। उनकी पूरी शख्सियत में एक अलग सी दृढ़ता दिखाई देती है। वे ऐसे कलाकार हैं जो, सीमाओं में अतिरेक का भी बखूबी प्र‍दर्शन करते हैं।

किसी समय श्‍याम बेनेगल के बुलावे पर भी मुंबई जाने को उत्‍सुक न होने वाले कुलभूषण खरबंदा ने बाद में बच्‍चों की एक-दो फिल्‍मों में काम करते हुए श्‍याम बेनेगल के साथ ही अपनी सिनेमाई यात्रा को परवान चढ़ाया। निशांत, मंथन, भूमिका, जुनून, कलयुग, त्रिकाल, मंडी, सुस्‍मन, अन्‍तर्नाद, नेताजी सुभाषचन्‍द्र बोस: द अनफोरगेटेन हीरो तक श्‍याम बेनेगल ने अहम किरदार कुलभूषण खरबंदा को सौंपकर अपनी निर्देशकीय सृजनात्‍मकता को संतुष्ट किया।

कुलभूषण खरबंदा सृजनात्मक अभिव्यक्ति के लिए थिएटर में आए थे। शुरुआत में सिनेमा के प्रति उनमें कोई आकर्षण नहीं था

ऐसा नहीं है कि खरबंदा श्‍याम बाबू से ही बंधकर रह गए हों, उन्‍होंने समानान्‍तर सिनेमा के दूसरे फिल्‍मकारों के साथ भी काम किया जिनमें रवीन्‍द्र धर्मराज (चक्र), महेश भट्ट (अर्थ), गिरीश कर्नाड (उत्‍सव), रमेश शर्मा (न्‍यू देहली टाइम्‍स), सुधीर मिश्रा (मैं जिंदा हूं), सईद अख्‍तर मिर्जा (नसीम), दीपा मेहता (फायर, वॉटर, अर्थ, मिडनाइट चिल्‍ड्रन), मुजफ्फर अली (उमराव जान), मीरा नायर (मानसून वेडिंग), चन्‍द्रप्रकाश द्विवेदी (पिंजर) प्रमुख हैं।

यह उल्‍लेखनीय है कि इसी दौर में उन्‍होंने बाजार के सिनेमा के आग्रहों को भी स्‍वीकार किया। लेकिन यह भी गौरतलब है कि उन्‍होंने ऐसी फिल्‍मों में काम करने से पहले अपनी भूमिका भी जांच ली। तभी वे रमेश सिप्‍पी की शक्ति, राज कपूर की राम तेरी गंगा मैली, यश चोपड़ा की सिलसिला, जे पी दत्‍ता की गुलामी, यतीम, बंटवारा, क्षत्रिय, बॉर्डर, रिफ्यूजी, सुखवंत ढड्ढा की एक चादर मैली सी, आशुतोष गोवारीकर की लगान और जोधा अकबर, दिलीप नाइक की नाखुदा, रवीन्‍द्र पीपट की वारिस, राजकुमार संतोषी की घायल, दामिनी, पुकार, चायना गेट में आए तो, चर्चा से बाहर नहीं रहे। शोले में अमजद खान को गब्‍बर सिंह के रूप में पेश करके, फिल्‍म की अद्वितीय सफलता का आनंद लेकर रमेश सिप्‍पी ने जब शान बनाई, तो बहुत भव्‍यता के साथ उन्‍होंने कुलभूषण खरबंदा को फिल्‍म के खलनायक शाकाल के रूप में पेश किया था। अमेरिकन एक्‍शन फिल्‍म की तर्ज पर बनी यह बहुसितारा फिल्‍म शोले की तरह सफल नहीं हुई और इसका बड़ा नुकसान खरबंदा को हुआ। लेकिन खरबंदा सशक्‍त अभिनेता थे, प्रभावशाली कलाकार थे इसलिए विफलता के इस आस्‍वाद को जल्‍द ही उन्‍होंने खुद से दूर कर दिया। उन्होंने खुद को दूसरी तरह की फिल्‍मों में साबित किया और फिल्म उद्योग में प्रभावी होते चले गए। यही वजह है कि अपने किरदार के साथ वे अपनी लगभग हर फिल्‍म में एक वजूद की तरह मौजूद रहते हैं।

2011 में मध्‍य प्रदेश में पन्‍ना के निकट राजा बुंदेला निर्देशित फिल्‍म सन ऑफ फ्लॉवर की शूटिंग के दौरान घोड़े से गिर जाने के कारण उनके पैर में कई फ्रेक्‍चर हो गए और लंबे समय तक उनको फिल्‍मों से दूर रहना पड़ा। लेकिन गहरी जिजीविषा के धनी कुलभूषण खरबंदा फिर उठे और काम में लग गए। मिर्जापुर में सत्यानंद त्रिपाठी के बहाने उनके किरदार का मूल्यांकन करते हुए लग रहा है कि किस तरह वे स्क्रिप्‍ट में अपने लिए एक बड़ा स्‍पेस निकाल लेते हैं। बाऊजी को देखना ऐसा अनुभव है, जो बताता है कि खरबंदा साहब उत्‍कृष्‍ट कलाकार हैं। उन्हें इस रूप के लिए बहुत अदब पेश करने को जी चाहता है।

(लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म आलोचक हैं)

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