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जीरो से समृद्धि का ख्वाब

सरकार ने “ईज ऑफ लिविंग” और “ईज ऑफ डूइंग” लागू करने की वकालत की है। इसके लिए जीरो बजट फार्मिंग का फॉर्मूला निकाला है
धरती कथा

जीरो दिया जब मेरे भारत ने, तो दुनिया को गिनती आई...” यह बोल छठे दशक की एक लोकप्रिय हिंदी फिल्म पूरब-पश्चिम के एक गाने के हैं। इसके जरिए नायक बताता है कि ज्ञान की दुनिया में भारत कितना समृद्ध है। सरकार आजादी के 75वें साल, यानी 2022 तक किसानों की आमदनी को दोगुना करने का लक्ष्य हासिल करना चाहती है। इसे अंग्रेजी में डबलिंग ऑफ फार्मर्स इनकम (डीएफआइ) का आकर्षक टर्म भी दिया गया है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 फरवरी, 2016 को जब यह घोषणा की, उसके बाद से किसानों की आय बढ़ने के बजाय घटती जा रही है। कृषि विकास दर दशक के निचले स्तर पर है। कृषि क्षेत्र की नॉमिनल ग्रोथ पांच फीसदी से नीचे आ गई, जबकि छह साल में किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लिए यह 12 फीसदी होनी चाहिए। कृषि मंत्रालय से लेकर नीति आयोग और प्रधानमंत्री कार्यालय तक, सभी किसी फॉर्मूले की खोज में हैं कि इस वादे को कैसे पूरा किया जाए, क्योंकि लक्षित साल करीब आता जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि सरकार इस दिशा में कुछ नहीं कर रही है। इस घोषणा के बाद कृषि मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव अशोक दलवई की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। कमेटी ने करीब दो साल काम करने के बाद 14 वाल्यूम में सैकड़ों पन्नों की रिपोर्ट सरकार को सौंपी। लेकिन मंत्रालय के किसी कोने में पड़ी इस रिपोर्ट में ऐसा कोई चमत्कारिक फॉर्मूला नहीं था जो सरकार का रास्ता आसान कर सके। इस बीच, चालू साल के बजट में सरकार को एक ऐसा फॉर्मूला मिला जो किसानों की आमदनी में भारी बढ़ोतरी में सहायक हो सकता है। जी हां, इस कॉलम के शुरू में जो जीरो की बात की गई है, यह वही फॉर्मूला है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल के बजट में कहा कि “ईज ऑफ लिविंग” और “ईज ऑफ डूइंग” दोनों किसानों पर भी लागू होने चाहिए। हमें वापस मूल पर लौटना चाहिए और वह है जीरो बजट फार्मिंग। कई किसान इसकी ट्रेनिंग ले रहे हैं और यह कदम आजादी के 75वें साल में किसानों की आमदनी को दोगुना करने में मदद कर सकता है। इस फॉर्मूले के एक एक्सपर्ट भी यह बताने में लगे हैं कि एक एकड़ में कैसे लाखों रुपये की कमाई हो सकती है। जीरो बजट फार्मिंग का मतलब कुछ इस तरह से है कि किसानों को कुछ भी बाहर से खरीदने की जरूरत नहीं है। वह सब कुछ अपने संसाधनों से ही करता है। लेकिन क्या यह संभव और व्यावहारिक है? मान लीजिए, वह न तो रासायनिक खाद खरीदता है और न ही बाहर से बीज लेता है, तो क्या उसे उत्पादन की गतिविधियों के लिए मजदूर पर भी खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ेगी? बड़ी तादाद में ऐसे किसान हैं जिनके पास एक-दो पशु ही हैं। क्या वह एक एकड़ जमीन के लिए भी कंपोस्ट तैयार कर सकते हैं। फिर सिंचाई के लिए क्या सिर्फ बारिश ही काफी है? क्या उसे बिजली या डीजल पर खर्च नहीं करना पड़ता है? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब ढूंढ़ने के बाद ही सरकार को इस तरह के फॉर्मूले को प्राथमिकता देनी चाहिए। वैसे, देश के कई हिस्सों में साधनहीन किसान जीरो बजट फार्मिंग ही कर रहे हैं क्योंकि उनकी हैसियत न तो बेहतर बीज खरीदने की रही है और न ही बेहतर तकनीक या रासायनिक खाद व केमिकल खरीदने की। वैज्ञानिक शोध और उस पर आधारित कृषि को बढ़ावा देने के बजाय इस तरह की प्रणाली का गुणगान न देश के हित में है और न ही किसानों के हित में। हां कुछ लोग इसे एक प्रयोग के तौर पर करके खुश होना चाहते हैं तो उनके लिए यह ठीक है। लेकिन आम किसानों के लिए नहीं है।

सरकार के पास संसाधनों की भारी किल्लत है और कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश के विकल्प सीमित हैं। कृषि का जो बढ़ा हुआ बजट दिख रहा है वह पीएम किसान के लिए आवंटित राशि, किसान क्रेडिट कार्ड पर मिलने वाली ब्याज छूट की राशि और फसल बीमा पर मिलने वाली प्रीमियम सब्सिडी जैसे प्रावधानों को शामिल करने के चलते है। बजट में घोषित तमाम प्रावधान ऐसे हैं जिन पर अमल के लिए सरकार को कोई ठोस रणनीति नहीं सूझ रही है। कई ऐसे प्रावधान हैं जिनकी घोषणा तो कर दी गई लेकिन संसाधन कहां से आएंगे, यह साफ नहीं है। इसमें कृषि क्षेत्र की ढांचागत सुविधाओं पर 25 लाख करोड़ रुपये निवेश की घोषणा भी शामिल है। वैसे जीरो जोड़ने में कोई दिक्कत तो है नहीं, क्योंकि इसकी खोज का दावा तो भारत का ही है।

(यह कॉलम कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में चल रहे घटनाक्रम, नीतिगत बदलावों और सरकार के फैसलों से पाठकों को रुबरू कराने का नया प्रयास है। इसमें हर बार किसी एक विषय या मुद्दे पर पाठकों की जानकारी को समृद्ध करने की कोशिश होगी)

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