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जमीन वापस पाने की जद्दोजहद

पंथक सियासत में आधार खोने के बाद शिरोमणि अकाली दल किसानों के बीच पैठ बढ़ाने के प्रयास में
प्रकाश सिंह बादल और हरसिमरत कौर

कृषि विधेयकों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन के बीच पंजाब की तमाम पार्टियां सियासी जमीन मजबूत करने में जुट गई हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय 1996 में भारतीय जनता पार्टी के साथ आए और फिर एनडीए का हिस्सा बने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने किसानी सियासत के लिए 10 दिन में दो बड़े फैसले किए। पहला, केंद्र सरकार में पार्टी के कोटे से एकमात्र कैबिनेट मंत्री हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा और दूसरा, एनडीए से संबंध विच्छेद। दरअसल, डेढ़ साल बाद मार्च 2022 में पंजाब में विधानसभा चुनाव होने हैं। इसलिए शिअद के फैसले को किसानों में अपनी पैठ बनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

शिअद ने 2017 के विधानसभा चुनाव से एक साल पहले पंजाब में धार्मिक ग्रंथों की बेअदबी के चलते पंथक सियासत में आधार खो दिया था। लगातार 10 साल तक सत्ता में काबिज रहने के बाद उसे करारी हार का सामना करना पड़ा था। राज्य की 113 विधानसभा सीटों में शिअद 15 और भाजपा सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गई थी।

पंथक और किसानी सियासत के दम पर पंजाब का सत्ता सुख भोगने वाली शिअद किसी सूरत में नहीं चाहती कि पंथक एजेंडे के बाद उसके पाले से राज्य का बड़ा किसान वोट बैंक भी खिसक जाए। इसलिए उसने 24 वर्ष बाद अगला विधानसभा चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ने का फैसला किया है।

पंजाब में हाशिए पर आई भाजपा भी प्रदर्शनकारी किसानों के कोपभाजन से बचने के लिए हाथ-पांव मार रही है। वह शिअद से दो वर्ष पहले बागी हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींढसा और उनके पुत्र पूर्व वित्त मंत्री परमिंदर सिंह ढींढसा, पूर्व सांसद रणजीत सिंह ब्रहमपुरा, पूर्व मंत्री सेवा सिंह सेखवां और रणजीत अजनाला सरीखे बड़े टकसाली अकाली नेताओं को अपने पाले में लाने का प्रयास करेगी।

एनडीए से अलग होने के बाद शिअद में यह कयास भी लगने लगे हैं कि अब केंद्र की मोदी सरकार बदले की भावना से शिअद नेताओं पर कोई बड़ी कार्रवाई कर सकती है। उसके निशाने पर सबसे पहले हरसिमरत कौर के भाई और पूर्व कैबिनेट मंत्री बिक्रम मजीठिया हो सकते हैं। ड्रग्स तस्करी के आरोपों से घिरे मजीठिया को विधानसभा चुनाव से ठीक पहले नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) और डायरेक्टरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआइ) की कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है।

सत्तारूढ़ कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी सरकार बनने के एक महीने के भीतर ऐसी कार्रवाई करने की सौगंध खाई थी, पर साढ़े तीन साल बीतने के बावजूद मामला ठंडे बस्ते में है। भाजपा इसे आगामी चुनाव में मुद्दा बना सकती है। भाजपा की इस बदले की सियासत को भांपते हुए बिक्रम मजीठिया और उनके करीबी कई नेताओं ने एनडीए से नाता तोड़ने का विरोध किया, लेकिन उनके सुर वरिष्ठ नेताओं के आगे दब गए। 26 सितंबर की रात चंडीगढ़ मुख्यालय में तीन घंटे से अधिक समय तक शिअद की बैठक हुई। इसके बाद पार्टी अध्यक्ष सुखबीर बादल ने लंबी सियासी पारी के लिए एनडीए से किनारा करने का एेतिहासिक फैसला किया।

एनडीए से 24 साल बाद शिअद के अलग होने पर पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का कहना है, “एनडीए का साथ छोड़ने के अलावा अकाली दल के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। भाजपा और शिअद पूरी तरह से किसान विरोधी कानूनों के पक्षकार थे। गठबंधन का अंत तीन महीने से किसानों को गुमराह करने का नतीजा है।”

पंजाब प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अश्वनी शर्मा ने आउटलुक से कहा कि शिअद का एनडीए से अलग होना दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा, “अकाली दल की इन कानूनों पर सहमति थी, पर आखिरी मौके पर वह कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ खड़ी है।”

भाजपा के लिए अकेले दम पर विधानसभा की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ना आसान नहीं है। जालंधर, अमृतसर और होशियारपुर जिलों के शहरी इलाकों में भाजपा का जनाधार है, लेकिन यहां के किसान, दलित और पंथक वोट बैंक में उसकी खास पकड़ नहीं है। अभी तक वह 23 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ती आई है, अब डेढ़ साल में प्रदेश की सभी 113 सीटों के लिए उसे मजबूत चेहरे तलाशने होंगे। भाजपा की एक बड़ी समस्या यह है कि उसके पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक भी चेहरा नहीं है।

पंजाब में किसान आंदोलन की आग सबसे अधिक भड़कने की बड़ी वजह यही है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के अलावा अकाली दल और आम आदमी पार्टी भी किसानों के पक्ष में आ गए हैं। विधानसभा चुनाव को देखते हुए इस बात की संभावना कम ही है कि ये पार्टियां आंदोलन की आग को ठंडा होने देंगी।

 

 “मोदी कृषि विधेयकों पर किसी का सुझाव नहीं सुनना चाहते थे”

शिरोमणि अकाली दल ने 24 साल पुराने एनडीए से खुद को अलग कर लिया है। पार्टी अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के अनुसार कृषि विधेयकों पर बात करने के लगातार प्रयासों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मिलने का समय नहीं दिया। सबसे पुराने सहयोगी की इस तरह अनदेखी से उन्हें गठबंधन से अलग होने का फैसला करना पड़ा। पार्टी की आगे की रणनीति और विरोधी दलों के आरोपों समेत कई मुद्दों पर बादल ने आउटलुक के हरीश मानव से बातचीत की। मुख्य अंश:

 

पहले हरसिमरत कौर का इस्तीफा और फिर एनडीए से अलग होने का फैसला क्यों करना पड़ा? क्या एनडीए में पूछ घट गई थी?

हमें अपनी पूछ की परवाह नहीं। किसानों के हितों की परवाह नहीं हो रही थी। कृषि विधेयकों को लेकर हुई तमाम बैठकों में आश्वासन के सिवा कुछ नहीं मिला। जब विधेयक लोकसभा और राज्यसभा में पारित होने लगे तो हमने मंत्रिमंडल और बाद में एनडीए से नाता तोड़ने का फैसला किया। हम किसान हैं और किसानी हमारे लिए सर्वोपरि है। तीन करोड़ पंजाबवासियों की पीड़ा और उनका विरोध भी केंद्र के कठोर रुख को पिघलाने में विफल रहा है। यह वाजपेयी साहब और बादल साहब का परिकल्पित एनडीए नहीं है। ऐसे गठबंधन का अब पंजाब में कोई औचित्य नहीं रहा। केंद्र ने शिअद की बात नहीं मानी।

एनडीए के संस्थापक सहयोगी के सुझाव क्यों नहीं माने गए?

किसानों की शंकाएं दूर करने का केंद्र सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया। इन शंकाओं को लेकर हमने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने के लिए कई बार समय मांगा, पर हमें बताया गया कि वे कृषि विधेयक लागू करने का पक्का मन बना चुके हैं और इस बारे में किसी का सुझाव नहीं सुनना चाहते। प्रधानमंत्री ने हमें मिलने का समय नहीं दिया तो हमें भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से मिलने को कहा गया। उनसे मिलने के बाद भी किसान हित में हमारे किसी सुझाव पर कोई अमल नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो बड़े बादल साहब (प्रकाश सिंह बादल) का बहुत आदर करते हैं, फिर भी गठबंधन तोड़ने की बात आ गई?

किसानों के मान-सम्मान से बड़ा कोई दूसरा मान-सम्मान नहीं है। मोदी जी ने बड़े बादल साहब का मान रखा होता, तो उनकी पार्टी के नेता सुझाव जानने के लिए शिअद के नेताओं को मिलने का समय देते। जिस गठबंधन सरकार में सबसे पुराने सहयोगी दल की अनदेखी हुई हो, उसमें बने रहने का कोई मतलब नहीं था।

आगे की रणनीति क्या है?

फिलहाल तो गठबंधन की जिम्मेदारी से मुक्त होकर पंजाब के किसानों के संघर्ष में शामिल हैं। उनके मुद्दों की लड़ाई को संसद और सड़क तक जारी रखेंगे। पंजाब के किसानों का हक और उनका मान-सम्मान खत्म नहीं होने देंगे।

कांग्रेस और दूसरे दलों का आरोप है कि 2022 में विधानसभा चुनाव के मद्देनजर किसानों की सहानुभूति पाने के लिए आपने एनडीए से नाता तोड़ा।

हर अकाली किसान है और हर किसान अकाली है। किसान और किसानी के लिए कई तख्तो-ताज कुर्बान करने को तैयार हैं।

क्या 2022 का चुनाव अकेले लड़ेंगे?

बिल्कुल, हम अकेले लड़ेंगे। पहले भी भाजपा 23 सीटों पर लड़ती थी और हम 90 सीटों पर। हम किसानों, दलितों और गरीबों की लड़ाई के लिए तैयार हैं।

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