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“हम फिर बैठेंगे”

सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी हताश नहीं, उन्हें उम्मीद कि वे पूरी ताकत से दोबारा मोर्चा संभालेंगे
आधी आबादी की पहल: शाहीन बाग नेताओं का नहीं आम महिलाओं का मंच था

पिछले तीन महीनों से शगुफ्ता अहमद की दिनचर्या जैसे दो दुनिया में बंटी हुई थी। एक, ‘घेटो’ जैसे हालात में जिंदगी जीने की निपट मजबूरियां, और दूसरी, इतिहास की पुकार। वे दोनों को ऐसे साध रही थीं, जैसे किसी मिशन पर हों। 43 साल की शगुफ्ता अपना घरेलू कामकाज पूरा करके सुबह 6 बजे ही शाहीन बाग के विरोध स्थल पर उन हजारों महिलाओं में जा मिलती थीं। शाम 7 बजे ही घर लौटना होता था। उनका ब्यूटी पार्लर कुछ दिनों से बंद था और स्कूल जाने वाले बच्चों का जीवन अस्त-व्यस्त था। लेकिन उनके बच्चों को अपनी मां पर गर्व है कि वे ऐतिहासिक धरने का हिस्सा रही हैं। यह इबारत ‘‘ओखला के एक कोने’’ में लिखी गई, जैसा मखौल उड़ाते एक दक्षिणपंथी टिप्पणीकार ने कहा, लेकिन वह कोना दुनिया भर की सुर्खियों में छा गया और आगे इतिहासकारों के लिए दिलचस्पी का विषय बना रहेगा।

हालांकि 25 मार्च को दिल्ली पुलिस ने शाहीन बाग विरोध स्थल को खाली करवा लिया, तो हर किसी को इस बारे में जानने की उत्सुकता है। शगुफ्ता का सैलून भी जल्दी ही शुरू हो सकता है, बशर्ते लॉकडाउन हटे, लेकिन एक बात पर उन्हें पक्का यकीन है कि विरोध प्रदर्शन का यह अल्पविराम है, पूर्ण विराम नहीं। यह केवल कोविड-19 की आपात स्थिति में सिर्फ टल-सा गया है। वे चाहती हैं कि सरकार नए नागरिकता कानून, एनपीआर/एनआरसी की प्रक्रिया को निरस्त करे, जिसे वे अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए खतरा मानती हैं। वे देश के उन लाखों प्रदर्शनकारियों में हैं, जो सक्रिय एक्टिविस्ट नहीं हैं और पहली बार सड़कों पर उतरे हैं। ये लोग सीएए को भेदभावपूर्ण कानून और अपने ही देश में बेगाना बनाने का औजार मानते हैं।

नेताविहीन शाहीन बाग आंदोलन को कइयों ने एक नए अफसाने का सूत्रधार बताया, जिनमें एक यह कि संविधान को संघर्ष का औजार बनाया गया और आम औरतों को खुलकर अपनी आवाज बुलंद करने के लिए बाहर निकलने का मौका दिया। हालांकि उसे हटाने का तरीका भी विवाद का विषय है, अलबत्ता सामाजिक मेलजोल से दूर रहने के इस दौर में इसका हटना फौरी तौर पर बेहद जरूरी हो चला था। तो, क्या विरोध प्रदर्शन अपनी उपयोगिता से कुछ ज्यादा ही खिंच गया था? आखिर इस आंदोलन ने कड़ाके की सर्दी भी झेल ली थी और शहर के दूसरे हिस्से में हुए ‘दंगों’ के बीच भी अडिग बना रहा था। तो, क्या अब वह महामारी के दौर में सार्वजनिक जिम्मेदारी से भी मुंह मोड़ लेता?

यह सवाल पूछने के पहले ही शगुफ्ता बिफर उठती हैं। वे कहती हैं कि रविवार को ‘जनता कर्फ्यू’ के दौरान इसे केवल पांच महिलाओं के प्रतीकात्मक विरोध प्रदर्शन तक ही सीमित कर दिया गया था। राजनैतिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन ने ट्वीट किया था कि पुलिस ‘‘उस विरोध स्थल को हटा आई जिसे बहादुर महिलाओं ने पहले ही खाली कर दिया था।’’ एक प्रदर्शनकारी रितु कौशिक का हैरानी भरा सवाल है कि वहां तो कोविड-19 के सभी जरूरी एहतियात बरते गए थे, फिर सरकार ने क्यों हटाया। रितु पूछती हैं, “हम सभी दिशा-निर्देशों का पालन करके छोटे समूहों में बैठते थे। अगर सरकार हमारे बारे में चिंतित थी, तो हमारी मांगों पर चर्चा क्यों नहीं की?”

विरोध प्रदर्शन पर उसी दिन से अनिश्चितता-सी मंडराने लगी थी, जबसे दिल्ली में कोरोना के सिलसिले में लॉकडाउन का ऐलान हुआ। दिल्ली सरकार ने प्रदर्शनकारियों से भी अपील की लेकिन वे नहीं डिगे। रितु अब कहती हैं कि हालात सामान्य होते ही फिर पूरे जोशोखरोश से प्रदर्शन शुरू हो जाएगा। ‘‘यह अस्थायी दौर है। अभी तो यह विरोध और बढ़ेगा। सिर्फ संख्या का सवाल नहीं है। गांधी तो अकेले भी अभियान छेड़ दिया करते रहे हैं। सरकार को जनता के सामने झुकना ही पड़ेगा।’’

महिला अधिकार कार्यकर्ता कल्याणी मेनन सेन इसे सरकार का सत्ता-अहंकार बताती हैं। वे कहती हैं, ‘‘हमारे ताली-बजाने वाले नेताओं ने उन्हें सुरक्षित स्थान से हटा दिया, जहां वे सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए कोविड-19 के पूरे एहतियात बरत रही थीं। अब उन्हें ऐसी जगह भेज दिया गया, जहां उनकी सुरक्षा पर खतरे बनिस्बतन ज्यादा हो सकते हैं।’’

दिसंबर के मध्य में मुट्ठी भर महिलाओं का शुरू किया विरोध प्रदर्शन अपने 101 दिनों के मुकाम में कई अड़चनों और खतरों से गुजरा। मीडिया के बड़े हिस्से ने यह प्रचार किया कि शाहीन बाग आंदोलन की वजह से दक्षिण-पूर्वी दिल्ली और नोएडा का रास्ता रुक गया है। इस मामले पर गौर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी वक्त निकाल लिया। हालांकि कुछ ही लोग जानते हैं कि असल में दिल्ली यातायात पुलिस ने मुख्य सड़कों को बंद कर दिया था। एक अन्य प्रदर्शनकारी कहते हैं, ‘‘पिछले 100 दिनों में हमने बहुत कुछ झेला। हम पर हमले हुए, सरकार ने हमारे खिलाफ फर्जी खबरों का अभियान चलाया, हमें दिल्ली दंगों के लिए दोषी ठहराने की कोशिश हुई।’’

बकौल सैयद तासीर अहमद, शाहीन बाग रास्ता रोकने वाला नहीं, बल्कि पूरे देश को नई राह दिखाने वाला है। वे कहते हैं, ‘‘हम पूरी ताकत से वापस आएंगे। हम कोरोना के आतंक के पहले जेल भरो अभियान की योजना बना रहे थे। जब हालात सामान्य होंगे तो हम अपना आंदोलन तेज करेंगे।’’ फिर भी, इसके भविष्य को लेकर सिर्फ आलोचक ही सवाल नहीं उठा रहे हैं। एक तबके को लगता है कि विरोध प्रदर्शन का मौजूदा तरीका काफी लंबा खिंच गया है, जिससे उसका उलटा असर हो रहा है इसलिए नए तरीके अपनाए जाने चाहिए। दूसरे तबकों का तर्क है कि नई राजनैतिक जागृति पैदा करने वाला यह आंदोलन बदस्तूर जारी रहना चाहिए।

दिल्ली के इतिहासकार सैयद इरफान हबीब पहले तबके की दलील के साथ हैं। उनका मानना है कि शाहीन बाग की महिलाएं “अपनी बात” सशक्त रूप से रख चुकी हैं। हबीब ने आउटलुक से कहा, “हमेशा के लिए इसे नहीं खींचा जा सकता। प्रदर्शनकारियों को यहां से मुड़ना होगा और भविष्य की योजना तैयार करनी होगी।” लखनऊ, पटना, बेंगलूरू और कोलकाता जैसे अन्य शहरों में भी कोरोना महामारी को देखते हुए विरोध प्रदर्शन उठा लिए गए हैं। राजनैतिक कार्यकर्ता तथा कांग्रेस कार्यकर्ता सदफ जफर भी हबीब की राय से सहमत हैं। सदफ को उत्तर प्रदेश सरकार ने दिसंबर में लखनऊ में सीएए विरोधी मार्च की वजह से जेल में डाल दिया था। लखनऊ में घंटाघर धरने में सक्रिय सदफ कहती हैं कि महिला प्रदर्शनकारियों ने पुलिस आयुक्त को पत्र लिखा है कि महामारी के मद्देनजर अपने 66 दिनों के विरोध प्रदर्शन को कुछ वक्त के लिए उठा रही हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, ‘‘हम विराम ले रहे हैं लेकिन लड़ाई जारी रखेंगे।’’ वे कहती हैं कि उन्हें सरकार पर कोई भरोसा नहीं है क्योंकि वह झुकने का इरादा जाहिर नहीं कर रही है लेकिन लोग भी झुकने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने आउटलुक से कहा, ‘‘हमने यह सोचकर विरोध शुरू नहीं किया है कि इससे सरकार पर असर होगा।’’ 12 मार्च को, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में आश्वासन दिया था कि किसी को भी एनपीआर के दौरान संदिग्ध नागरिक के रूप में चिह्नित नहीं किया जाएगा और न कोई दस्तावेज दिखाने को कहा जाएगा। हालांकि, हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दायर सरकार के हलफनामे से चिंताएं बढ़ गई हैं। सीएए पर एक जनहित याचिका के जवाब में, सरकार ने कहा कि नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 ‘अनुकूल’ कानून है और संसद में पास इस कानून की न्यायिक समीक्षा की गुंजाइश सीमित है। सरकार ने यह भी कहा है कि प्रस्तावित एनआरसी जरूरी अभ्यास है। संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा का कहना है कि हलफनामे में कई विरोधाभास हैं। मुस्तफा ने आउटलुक से कहा, ‘‘यह चौंकाने वाला है कि हलफनामे में रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री के कहे और हफ्ते भर पहले ही गृह मंत्री के संसद में स्पष्ट आश्वासन से उलटी बात कही गई है। हलफनामे में याचिकाकर्ताओं की किसी भी आपत्ति का जवाब नहीं है।’’ संक्षेप में कहें, तो शाहीन बाग आंदोलन की वजहें आज भी जिंदा हैं और उसे अपने जोशोखरोश के लिए भी पर्याप्त मसाला जुट गया है।

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