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शहरनामा/पातालकोट

मॉल संस्कृति के बीच मामूली आवागमन वाला शहर
यादों में शहर

आश्चर्य लोक

मॉल संस्कृति के बीच पले व्यक्तियों को कहा जाए कि मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा के तामिया विकास खंड में सतपुड़ा के उत्तुंग शिखरों, उपत्यकाओं और वादियों से आवृत्त भूतल पर लगभग 2000 फुट गहराई में 89 किमी के क्षेत्र में 12 गांवों की बस्ती है, जहां जंगलों में हिंस्र पशुओं के विचरण के बीच आदिम सभ्यता सांस ले रही है, आवागमन के साधन मामूली हैं, जहां सूरज दोपहर बारह बजे दिखाई देता है और चार बजे विदा ले लेता है, जहां छाई धुंध और हरीतिमा के बीच चरते पशु काले धब्बे से दिखते हैं, तो यकीन करना मुश्किल होगा।

जंगल और जीवन का साहचर्य

2008 में पातालकोट विकास प्राधिकरण के बतौर प्रभारी अधिकारी, मैंने पातालकोट की पहली यात्रा की। कारेआमरातेड़ तक पक्की सड़क से जाकर गड्ढे के उस मुहाने पहुंचे, जहां से यात्रा प्रारंभ होनी थी। ऊपर से इलाका ऊंट की कूबड़ की तरह दिखता था। आम, हर्र-बहेड़ा-आंवला, अचार, ककई के छायादार वृक्षों के नीचे से सीढि़यां दिखाईं दीं। हमने उतरना शुरू किया। 300 सीढ़ियों के बाद चट्टानें थीं और एक तिहाई उतरना शेष था। धुंध और हरियाली की धूप-छांव के बीच जड़ों को पकड़ कर उतरने से हाथों में खरोंचें आ गई थीं और प्यास के मारे बुरा हाल था, उधर कसी देहयष्टि वाली श्यामलवर्णी युवतियां पीठ पर बोझा लादे कुशल नटनी की भांति पहाड़ों पर चढ़ रही थीं। बीच से मांग काढ़कर संवारे बाल में दोनों तरफ चमकीली चिमटियां, आंखों में मुसा हुआ काजल और होठों पर लाली के अवशेष से झांकती धवल मुस्कराहट!

तीन घंटे की मशक्कत के बाद हमने पातालकोट की धरती पर कदम रखा। सर उठाकर देखा तो यकीन करना मुश्किल था कि जमीन से इतने नीचे खड़े हैं। ख्याल आया कि वापस जाने के लिए इतना ही चढ़ना भी पड़ेगा। हमने वापसी की यात्रा शुरू की। सांझ के गहराने से अंधकार में डूबे वृक्ष दैत्य की भांति दिखाई देने लगते हैं। जंगल की सम्मोहक सुंदरता अज्ञात भय की कंदराओं में घसीट लेती है। लौटते वक्त ख्याल आ रहा था कि क्या पातालकोट वासियों को भी भय व्यापता होगा?

रहवास और परंपराएं

पातालकोट के भारियाओं को सभ्य समाज में अजूबा या नुमाइश की तरह प्रस्तुत किया गया है। कभी उन्हें नग्न नरभक्षी कहा गया तो कभी लंगोटी वाले बंदर, पर सच्चाई यह है कि वे निश्छल आदिवासी तमाम अपवादों से परे जीवन को संपूर्णता में जीते हैं। कृषि संस्कृति से जुड़े तमाम त्यौहार जैसे दीपावली, होली, हरी जिरौतिया को तत्परता और प्रेम भाव से मनाते, प्रकृति और पशुओं के साथ नाचते-गाते, ठेठरा-बतियां खाते, फसल हरी-भरी रखने और समस्त चराचर के लिए दाना-पानी की कामना करते हैं। होली में पेड़ों की त्यक्त लकडि़यां जलाकर, रात भर फागें गाकर जीवन का उत्सव मनाते हैं। महादेव उनके आराध्य हैं परंतु मेठोदेवी, घुरलापाट, खेड़ापति, मढुआदेव, भीमसेनी, बाघदेवी, पघिर, भंसासर, ग्रामदेवी, चंडीमाई, जोगनी, खेड़ामाई का पूजन भी करते हैं। इनकी सादा, परिश्रमपूर्ण जीवनशैली अव्वल तो उन्हें बीमार नहीं पड़ने देती, पड़ भी जाएं तो भूमका-पड़हार उनका डॉक्टर होता है। प्रकृति के प्रति आस्था तथा पारंपरिक लोकनृत्य एवं गीत उनकी सांस्कृतिक परंपरा का अजस्र स्रोत हैं।

फसलें और स्वाद

पातालकोट के भारिया मूलत: बेउरी कुटकी, भदेल कुटकी, कंगना, मडि़या, बाजरा, तुअर, काला कांग, धान, सांवा, जगनी, मक्का, बरबटी, नेवा, लाल समा, बल्लर (सेम) जैसी फसलें उगाते हैं। गुड़ और महुआ को कूटकर बनाई मिठाई ‘भुरका’ स्वाद में अद्वितीय होती है। कुसमुसी दाल के बड़े-मुंगौड़े, कुटकी का भात और बल्लर की दाल प्रमुख त्यौहारी भोजन है। अत्यंत विपन्न भारिया, आम की गोही (गुठली) की रोटी, बांस की सब्जी तथा कोयलार भाजी से जीवनयापन करते हैं। कुटकी का पेज (सूप) और महुए की गपई (शराब) प्रमुख पेय है। सूखे दिनों में अनाज ना होने पर ये कातुल के फल उबालकर भूख मिटाते हैं।

प्राकृतिक दृश्यों का कोलाज

आदिवासी मिट्टी और घास-फूस की झोपडि़यों को खडि़या और गेरू से लीप-पोतकर, सुंदर प्रतीक चिन्हों से सजाते हैं। कारेआमरातेड़, चिमटीपुर, दूधी तथा गायनी नदी का उद्गम, राजा खोह और घटलिंगा गांव से लगा दुर्गम जलप्रपात खास आकर्षण है। आम के मोटे तनों को देखने के अभ्यस्त मैदानी लोगों को यहां यूकलिप्टस जैसे लंबे आम के पेड़ देख अचंभा होगा। सूर्य की कृपादृष्टि पाने को आतुर पेड़ होड़ लगा, लंबाई बढ़ाते जाते हैं। घटलिंगा गांव से राजा खोह पातालकोट का सर्वाधिक आकर्षक स्थान है। विशाल कोटरनुमा चट्टान, आम, बरगद, हर्र-बहेड़ा और महुआ के पेड़ों से ढंकी गुफा के बीच से गायनी नदी चट्टानों को काटते हुए वेग के साथ यूं बहती है, ज्यों सतपुड़ा की उपत्यकाओं पर लेटी किसी सुंदरी की मनचली लट खुलकर बिखर गई हो।

हमारी जवाबदेही

विकास और तकनीक का उजाला पातालकोट तक भी पहुंच चुका है। नगरीय दखल से आदिम सभ्यता मूल स्वरूप से किंचित स्खलित हुई है। पक्का रास्ता बनने से पहुंचना आसान हो गया है किंतु ध्यान रखना आवश्यक होगा कि इस स्थान का सौंदर्य और महत्व प्राकृतिक परिवेश, आदिम और सांस्कृतिक परंपराओं में निहित है। अपनी मिट्टी के प्रति अनन्य लगाव भारियाओं को वास्तविक धरती पुत्र-पुत्री का दर्जा प्रदान करता है। हमारी जवाबदेही बनती है कि उनके नियम-कायदों के अनुसार सम्मिलित होकर प्रकृति और जीवन के साहचर्य को अक्षुण्ण बनाए रखें।

रक्षा दुबे चौबे

(कहानीकार, काव्य संग्रह सहसा कुछ नहीं होता)

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