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22 अगस्त 2022 · AUG 22 , 2022

शहरनामा/मुंबई

आज भी हर रोज हजारों लोग आखों में सुनहरे ख्वाब लिए यहां तशरीफ लाते हैं
मायानगरी के किस्से

ऐ दिल है मुश्किल

सीआइडी (1956) के 'ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां, जरा हटके जरा बचके ये है बंबई मेरी जान' से डॉन (1978) के 'ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ' तक न जाने कितने नगमानिगारों ने इस करिश्माई मायानगरी के कसीदे पढ़े और इसके खतरों से आगाह भी किया। तब भी, जब इसका नाम बॉम्बे था और अब भी जब इसे मुंबई न कहना इसकी शान में गुस्ताखी है! लेकिन, नाम बदल जाने से किसी जीते-जागते शहर (करीब से जानने वाले कहते हैं, यह कमबख्त सोता ही नहीं!) का तेवर और मिजाज नहीं बदल जाता। रातोदिन आपाधापी, भागमभाग। सीने में जलन, आंखों में तूफान हो तो हो, आज भी हर रोज हजारों लोग आखों में सुनहरे ख्वाब लिए यहां तशरीफ लाते हैं। उनमें गिनेचुने सपने साकार होते हैं, अधिकतर शीशे की मानिंद बिखर जाते हैं, लेकिन न तो दिन में सपने देखने वालों का हुजूम कम होता है, न ही उम्मीद की लता मुरझाती है। श्वेत-श्याम सिनेमा के दौर से चकाचौंध करने वाली डिजिटल ओटीटी कायनात तक, इसे सपनों की नगरी बनाने में हिंदी सिनेमा की महती भूमिका रही है। धोबी घाट के चबूतरों से एशियाटिक सोसाइटी हॉल की सीढ़ियों तक, धारावी की तंग गलियों से कमाटीपुरा की सड़कों तक, बेस्ट की डबल-डेकर हो या लोकल ट्रेन के खचाखच भरे डब्बे, मुंबई का शायद ही कोई इलाका हो जिससे दूरदराज झुमरी तिलैया में बैठा सिनेमची वाकिफ न हो। बोले तो, कभी-कभी अपुन को लगता है, बीडू, बॉलीवुड ही आमची मुम्बाइ का किंग रहा है!

बंबई को आया मेरा दोस्त

असल जिंदगी की तरह रुपहले पर्दे का मुंबई भी बदला है।  नए दौर की फिल्मों में अब धोती पहने गांव का कोई भोला मानुष मुंबई नहीं आता। कुछ बरस पहले तक न जाने उसके जैसे कितने ऐतिहासिक विक्टोरिया टर्मिनस से बाहर अकबकाए निकले। शहर की अट्टालिकाएं उन्हें अचंभित करतीं और इंतजार में बैठे ठगों की टोली उनकी गठरी लेकर नौ दो ग्यारह हो जाती। फिर भी, मुंबई दिलदारों की नगरी रही है। टैक्सी से टकराते-टकराते कोई न कोई रहमदिल रहमत चाचा या मिसेज डी’कॉस्टा जैसे फरिश्ते टकरा जाते। और अगर दोनों के आने में कोई लोचा होता तो किसी न किसी रईसजादी की कार से टकराना उनके मुकद्दर में लिखा ही होता। उसके बाद क्या, यह जानने के लिए सलीम-जावेद का ही हुनर हो, यह जरूरी नहीं!

 रिमझिम गिरे सावन

नायक गांव से आयातित गबरू जवान रहा हो या महानगर की चिल्लपौं में फंसा कोई मेहनतकश युवा, मुंबई ने उनके रोमांस के लिए आदर्श लोकेशंस मुहैया करने में कभी भेदभाव नहीं किया। गेटवे ऑफ इंडिया के पास कबूतरों के बीच प्यार की पींगें बढ़ाना हो, मानसून में मरीन लाइन्स के थपेड़ों के किनारे-किनारे हल्की फुहारों के मजे लेने हो, जुहू बीच पर भेलपुरी खानी हो या सांझ ढले चौपाटी पर सुकून भरे लम्हे चुराने हों, मुंबई में जालिम दुनिया की नजरों से बचने के लिए आशिकों के ठिकानों का टोटा कभी नहीं रहा। अगर कोई मुफीद जगह कभी-कभार नहीं भी मिली, तो फिर पुरानी टैक्सी तो उपलब्ध रही ही है, जो मुंबई दर्शन कराने के दौरान उन्हें अक्सर अपने मन की सीमा रेखा को तोड़ने को बेचैन करती रही। ओला और उबर तो आएंगे-जाएंगे, लेकिन काली-पीली मुंबई के लिए हीरे की तरह है। सदा के लिए!

गोली मार भेजे में

मुंबई हालांकि सिर्फ मुहब्बत की नगरी नहीं है, यहां कानूनी और गैर-कानूनी तिजारत करने वालों की भी चांदी रही है। मोना डार्लिंग के बॉस को तो सारा शहर ‘लॉयन’ के नाम से जानता रहा, जिसका सोना वर्सोवा बीच पर हर रात चढ़ता-उतरता। वैसे तो पूरा अरब सागर ही उसकी मिल्कियत रही। न जाने वह कब किसको खौलते लिक्विड-ऑक्सीजन के पूल के ऊपर लटका दे? वक्त के साथ बॉस का गेट-अप बदला, सोना की जगह ड्रग्स की स्मगलिंग शुरू हुई और ‘लॉयन’ अब ‘भाई’ या ‘भाऊ’ बन गया, जिसके गुर्गे किसी को भी टपकाने के बाद पतली गली से निकलने में देर नहीं करते। स्कॉटलैंड यार्ड के बाद दूसरी तेजतर्रार समझी जाने वाली मुंबई पुलिस की ऐसी की तैसी। उन्हें तो काली पहाड़ी पर क्लाइमैक्स में ही आना है। जाहिर है, उनके कारण कुछ भाई लोग यह भी समझने लगे कि ‘अपुनिच ही भगवान है’। 

सपनों...हादसों का शहर  

किसी जमाने में मालाबार हिल सितारों का इलाका होता था, जहां सुरैया जैसी मशहूर अदाकारा रहती थीं। बाद में दिलीप कुमार, देवानंद, सुनील दत्त-नर्गिस के कारण यह स्टेटस पाली हिल को मिला। आज जुहू में अमिताभ बच्चन के बंगले पर हर रविवार की सुबह उनके प्रशंसकों की भीड़ उनके दीदार को जुटती है। बांद्रा में शाहरुख खान के बंगले और सलमान खान के अपार्टमेंट के बीच हर रोज उनके मुरीद उनसे मिलने की आस लिए गुजरते हैं। लेकिन पास ही कार्टर रोड है, जहां कभी हिंदी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के बंगले ‘आशीर्वाद’ के सामने दीवानगी की हद पार करती लड़कियां उनकी इम्पाला कार को चूमने के लिए इकट्ठा होतीं। आज उस बंगले की सिर्फ यादें बची हैं। गुजरे जमाने के कई और नामवर स्टार-फिल्मकार के आशियाने बिक चुके हैं। और तो और, राज कपूर के विख्यात आरके स्टूडियो की जगह बहुमंजिली इमारतें बन रही हैं। यहां कुछ भी स्थायी नहीं। शोहरत भी। परदे पर और परदे से इतर भी कब कोई राजा रंक हो जाए, पता नहीं। यही मुंबई को सपनों का शहर बनाता है और हादसों का भी।

(राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फिल्म आलोचक)

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