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शहरनामाः मेख

नर्मदा तट पर सांकल घाट, बरमान घाट, झांसी घाट की प्राकृतिक सुंदरता मनमोहक है
यादों में शहर

पांडवों से जुड़ा इतिहास

मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में मेख छोटी जगह है, जिसकी आबादी भले ही 4,000 है लेकिन इसका इतिहास पुराना है। इसे करकबेल स्टेशन, भोपाल-जबलपुर और इलाहाबाद, मुंबई से जोड़ता है। पास ही झोतेश्वर में शंकराचार्य स्वरूपानंद के सदप्रयासों से स्थापित मां त्रिपुर सुंदरी मंदिर है। नर्मदा तट पर सांकल घाट, बरमान घाट, झांसी घाट की प्राकृतिक सुंदरता मनमोहक है। मकर संक्रांति पर श्रद्धालु तिल, बेसन-आटे के लड्डुओं और दूसरे पर्वों पर पूड़ी-अचार लेकर पहले बैलगाड़ी, अब ट्रैक्टर-ट्राली से नर्मदा किनारे पहुंचकर स्नान-ध्यान का पुण्य लाभ लेते हैं। जनश्रुति के अनुसार पांडव अज्ञातवास में पास के बरेहटा गांव में रहे थे। यहां सुबह-सवेरे ‘राम-राम भैया, काकीजी प्रणाम, चाचाजी नमस्ते’ के अभिवादनों के साथ कृषक खेतों की ओर निकलते हैं। मेख बैलगाड़ी हांकते गाड़ीवानों और गाय-भैंस चराने जाते ग्वाल-बालों के साथ जागता है। वर्षों से सूर्योदय के समय, ढोल-मंजीरे की धुन के साथ प्रभात फेरी में गाते-चलते ग्रामीणों की मधुर स्वरलहरियों से वातावरण गुंजायमान हो जाता है। 

राजा भैया बनाम दरोगा करतारनाथ

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजा भैया ने 14 साल की उम्र में गांव में लगने वाले बाजार को लुटवा दिया था और अंग्रेजों की टोपियों की होली जलाई थी। ठेमी थाने के दरोगा करतारनाथ (अभिनेता प्रेमनाथ के पिता) इसकी सूचना मिलते ही मेख आए और चौधरी राजा भैया से पूछताछ की। उन्होंने सब सच बता दिया। घोड़े पर बैठे करतारनाथ ने गुस्से में राजा भैया की पीठ पर चाबुक बरसाए। वे स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेकर जेल गए। इसी कस्बे के हरे राम ‘समीप’ राष्ट्रीय स्तर के गजलकार हैं। प्रकाश ‘प्रलय’ हास्य विधा में जाना-पहचाना नाम थे।

बारातियों के लिए मिर्चुहा

गुड़ की चाशनी में पगी बेसन सेंव, गुड़ की जलेबी, खोवे की बरफी यहां के देशी व्यंजन हैं। राजगिर के लड्डू, बर्फ के गोले भी बढ़िया होते हैं। चना-गेहूं मिश्रित आटे से बनी बिर्रा की रोटी, बाटी-भरता, चना-भाजी, टमाटर चटनी, कच्ची कैरी का मीठा शीरा, बूंदी-सेव का स्वाद लाजवाब होता है। विवाह में छोले-पूड़ी, पारंपरिक खट्टी-कढ़ी, रायता, हींग-हल्दी-नमक के पानी में भीगे बड़े आनंद देते हैं। पहले बारातियों को मजाक में मिर्चुहा (मिर्च का पानी) पिलाया जाता था। गोटेगांव की जलेबी, झोतेश्वर के दुबे जी की कचौड़ियां, आलू बंडे और हींग वाला ताजा मठा मुंह में पानी लाने को काफी है। चौरसिया जी के घर का पान मन तृप्त करता है। उड़द दाल में सफेद कद्दू के बीज और सफेद तिल चिपकाकर, टिकिया रूपी ‘बिजौरे’ बनाकर, धूप में सुखाकर साल भर रखते हैं जिन्हें तलकर खाते हैं। बड़ी-पापड़ के साथ ‘छींद की झाड़ू’ बनाना मुख्य कुटीर उद्योग है। अच्छी गुणवत्ता वाली झाड़ुओं की बाहर मांग रहती है। व्यापारी आम की गुठलियां भी खरीदते हैं। बुधवार को हाट में सब्जी-फल और जरूरत का सामान मिलता है।

कुश्ती और पटाबनैटी

नागपंचमी पर हनुमान जी यानी ‘दादा महाराज’ पूजे जाते हैं। पहले बड़े-बुर्जुग रात को भजन गाते थे। अब दिन में पूजन तथा चना-चिरौंजी और स्वादिष्ट रोट का प्रसाद वितरित होता है। दोपहर में सुंदरकांड का पाठ और शाम को महिलाओं द्वारा भजन-पूजन होता है। आस्थावान भक्त नारियल रखकर मन्नत मांगते हैं। नागपंचमी पर कुश्ती और पटाबनैटी (लकड़ी के गदा-मुग्दर भांजना) होती थी। राधाकृष्ण और राममंदिर में भागवत कथा का आयोजन होता रहता है। ‘चंडी माता खेरमाई’ के मंदिर में विवाह पूर्व और विवाहोपरांत दूल्हा-दुल्हन माथा टेकने जाते हैं। होली से रंगपंचमी तक सभी फाग की धुन के साथ रंग-गुलाल खेलते हैं। दीवाली के बाद चौथ को मड़ई (मेला) में अहीर कौड़ी-जड़ी आर्कषक पोशाकें पहनकर गायन-वादन और नृत्य करते हैं। देवउठनी एकादशी पर महिलाएं आंगन में सुंदर मांडने बनाती हैं। गोटेगांव के सुनार शुद्ध चांदी से निर्मित सुंदर पारंपरिक जेवर बनाते हैं।

बैलगाड़ी की सवारी

खेती में आधुनिक प्रयोगों के साथ मुख्य पैदावार गेहूं-चना, उड़द-मूंग है, साथ में धान रोपते और गन्ना उगाते हैं। शीत ऋतु में गन्ने के रस का गुड़ बनने पर सोंधी मिठास चहुंओर फैलती है। ट्रैक्टर, कार और बाइक के बावजूद शहरी लोग अभी भी यदाकदा बैलगाड़ी की सवारी का आनंद उठाते हैं। खेतों में काम करने बाहर से आए मजदूर झोपड़ी बनाकर रहते हैं। सीमित साधन, कड़ी मेहनत और कठिनाइयों के बीच उनका जीने का सरल तरीका और उल्लसित होकर गाना-बजाना अनुकरणीय होता है।

अतरपुट की यादें

गर्मी की छुट्टियों में बच्चों संग गांव आगमन पर गोबर लिपा फर्श, मिट्टी की दीवारें, अनाज रखने की कोठियां, कुएं से पानी निकालना स्मृतियों में बसे हैं। चूल्हे की मंदी आंच में घंटों औंटता गुलाबी दूध, चूल्हे की सौंधी रोटी के साथ सिलबट्टे पर पिसी चटनी में बच्चों को पिकनिक का आनंद मिलता था। अनाज संग्रह करने के लिए मिट्टी की सुंदर कोठियां होती थीं। अनाज रखने हेतु बनाए बंडे में बिछा टाट ‘अतरपुट’ कहलाता था। गर्मियों में टेबल-फैन की हवा का आनंद एसी-कूलर से अधिक था। अब घरों में कूलर-पंखे, फ्रिज-वाशिंग मशीन, गैस चूल्हा-इन्डक्शन, इन्वर्टर जीवन के अभिन्न अंग हैं। बच्चे करकबेल स्टेशन पर रेलगाड़ी का इंतजार करते हुए दर्जी चाचा से रूमाल सिलवाते और छोटी-मोटी खरीदारी का आनंद उठाते हैं। आधुनिक होकर भी मिट्टी से जुड़े सरल ग्रामीणों की आत्मीय आवभगत और प्रेमयुक्त व्यवहार, यहां पधारे अतिथियों को अभिभूत करके उनका मन मोह लेता है।

शक्ति तिवारी

(वरिष्ठ लेखिका)

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