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29 मई 2023 · MAY 29 , 2023

शहरनामा/कांकरा

भूरे बालू के ऊंचे रेतीले टीले वाला शहर
यादों में शहर

मां की गोद-सी अनुभूति

राजस्थान में कांकरा की हवाओं में पुरखों की स्मृतियां तैरती हैं, जहां की हर शै अपनी है, जहां होना मां की गोद-सी अनुभूति देता है। कांकरा विचित्र नाम है इसलिए अपना गांव कभी जयपुर, कभी जोधपुर बताया। ‘फाट्या कपड़ा अर बूढ़ा माइत की लाज नी करणी’ (फटे कपड़े और बूढ़े माता-पिता से शरमाओ मत) नानी से यह कहावत सुनकर मैंने इसमें अपने गांव का नाम जोड़ दिया, तबसे शर्म की जगह फख्र होने लगा।

सफेद मिट्टी वाला बुजुर्ग गांव

कांकरा में भूरे बालू के ऊंचे रेतीले टीले हैं, हरी फसलों से इठलाते खेत हैं, सफेद मिट्टी का ‘खारड़ा’ (नमक युक्त सफेद कठोर जमीन) है, काली बूढ़ी दीवारों वाले गढ़ और हवेलियां हैं और गुलाबी गालों वाले जिंदादिल लोग हैं। इतिहास और लिखित दस्तावेजों में कांकरा की जड़ें मध्यकाल तक जाती हैं। शेखावाटी की खंडेला रियासत के राजा रायसल दरबारी (मुगल दरबार के प्रतिष्ठित मनसबदार) के शासन के प्रमाण इसे साढ़े चार सौ वर्ष पुराना साबित करते हैं। राजस्थान में मराठों का उपद्रव इतिहास में अंकित है। ईश्वरी सिंह जी तथा माधो सिंह जी के समय मराठों के जयपुर में मचाए आतंक, उपद्रव और मारकाट का शिकार कांकरा भी हुआ। उसके निकट बने डांसरोली के विशाल किले का विध्वंस कर लूटमार की गई। प्रजा की रक्षार्थ यहां के ठाकुर परिवार सहित लड़े। मराठों और उनके साथ लड़े मुस्लिम सैनिकों की कब्रें इस भयानक घटना की साक्षी हैं।

नौ खूंटी मारवाड़

कांकरा शेखावाटी का सरहदी गांव था जिसके आगे ‘नौ खूंटी मारवाड़’ शुरू हो जाता था। यहां के शासकों ने राज्य के भौतिक परिसीमन के साथ-साथ सांस्कृतिक परिसीमन भी किया और अपनी सरहदों पर रथिका, शृंग, उरुशृंग युक्त शिखर वाले नागर शैली के ग्यारह लिछमीनाथ (लक्ष्मीनाथ) मंदिरों का निर्माण करवाया, जिनमें कांकरा का मंदिर भी है। एक सांचे में ढली मूर्तियों वाले ये ग्यारह मंदिर आकार-प्रकार में समान हैं। यहां से गांव की जीवित परंपरा आरंभ होती है। ठाकुर इंद्र सिंह कांकरा के मंदिर को धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र बनाना चाहते थे। शौर्य भूमि राजस्थान में विजयदशमी पर्व की महत्ता देखते हुए उन्होंने उत्सव हेतु विजयदशमी का दिन चुना और ब्राह्मणों से मंत्रणा कर उत्सव की रूपरेखा निर्मित हुई। यहां के विद्वान ब्राह्मण विद्या अध्ययन हेतु दक्षिण भारत जाया करते थे। वहां मंदिरों में प्रचलित मुखौटा नृत्य शैली ने उन्हें सम्मोहित किया और कुछ ब्राह्मण उसे सीखकर गांव लौटे। लक्ष्मीपति के चौबीस अवतारों के साथ अन्य लोक प्रचलित देवताओं के मुखौटों वाला नृत्य आरंभ हुआ जो ‘चेहरा नाचना’ कहलाता है। इस तरह शेखावाटी-मारवाड़ के संगम स्थल को उत्तर भारत और दक्षिण भारत का संगम स्थल बनने का सौभाग्य मिला।

मंदिर शिखर पर लीलटांस

उत्सव में गांव की प्रत्येक जाति को प्रतिनिधित्व और उत्तरदायित्व मिला और निर्वहन हेतु करविहीन भूमि वितरित की गई। ब्राह्मणों ने स्तुतियां तैयार कीं, कुम्हारों ने मुखौटे बनाए, मुस्लिम मणिहारों ने मुखौटों में रंग भरा, नाइयों ने मशालें संभालीं, दर्जियों ने पोशाकें सिलीं, राणाओं (गाने-बजाने वालों) ने  गायन-वादन संभाला और मीणों ने नृत्य किया। हर जाति से एक व्यक्ति आज भी मुखौटा धारण करके ‘चेहरा नाचता’ है। पुश्तैनी संपत्ति की तरह यह कर्तव्य भी पिता के बाद पुत्र को स्थानांतरित होता है। दशहरे की शाम को सांकेतिक रामलीला मंचन और रावण दहन के बाद सांस्कृतिक मंडली लिछमीनाथ मंदिर के आगे पहुंचती है। आसपास और दूरदराज के असंख्य लोग, रातभर चलने वाली चौबीस अवतारों की झांकियों, स्तुति और नृत्य के साक्षी होते हैं। किसी कठिन प्रतिज्ञा जैसी इस उत्सव की पूर्णाहुति की आरती तब तक नहीं होती जब तक अगले दिन सूर्योदय के बाद मंदिर के शिखर पर लीलटांस (गरुड़) आकर नहीं बैठता।

शेखावाटी का अन्नागार

कांकरा पर देवी अन्नपूर्णा सदा मेहरबान रहीं। कभी ‘शेखावाटी का अन्नागार’ रहे कांकरा का बावन सौ बीघा का काकड़ (कृषि परिधि) था जिसमें सात सौ पैंतीस लावें (कुंएं) चलती थीं जिनमें अकूत पानी था। लोग सोलह-सोलह घंटे बैलों के साथ चिलचिलाती धूप और हाड़ कंपाती ठंड में चड़स (भैंस के चमड़े से निर्मित मोटा पात्र) खींचकर भूमि सींचते थे। इतना अन्न उपजता कि फागुन से लेकर जेठ तक अन्न से भरी बैलगाड़ियां गांव से नगरों की ओर चलती रहतीं।

हाथां उत्तर देणो ...

पश्चिमी राजस्थान में पानी और वनस्पति की कमी के चलते ऊंटों के टोले, गायों की छांग और भेड़ बकरियों के एवड़ पूर्व की ओर पलायन करते। ग्वाले जहां शाम होती, उसी गांव में ठहर जाते। कांकरा इनकी रोटी-पानी की आवश्यकताएं निशुल्क पूरी करते। इनके अलावा बाळद और बाळदी नमक, लाल मिर्च, धनिया, जीरा और गोंद बेचने आते, शाम को गांव में खाते-पीते और ठहरते। खाने के लिए किसी को ‘ना’ नहीं बोला जाता था। क्योंकि ‘हाथां उत्तर देणो मुंडा उत्तर नी देणो’ (मांगने वाले को हाथों से उत्तर दो, मुंह से नहीं। अर्थात जो दे सको दो, ना मत कहो)। गर्मी के कारण तालाबों का पानी सूख जाता तो लोग कुओं से तालाबों में पानी डालते ताकि कोई जीव प्यासा ना रहे। कांकरा में कुछ मिले, ना मिले पर अपणायत (अपनापन) जरूर मिलता है।

नीलू शेखावत

(युवा लेखिका)

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