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शहरनामा/देवास

आध्यात्मिक और लोकसंगीत की संगत वाला शहर
यादों में शहर

मां चामुण्डा की नगरी

हर शहर का अपना मिजाज होता है, अपनी तासीर, अपनी तरंगें और अपनी संस्कृति होती है, एक अंतरधारा होती है, जो वहां की समूह ऊर्जा, व्यवहार और परंपरा से विकसित होती है। देवास त्रिवेणी है देवी, संत और संगीत की। इसका नाम अगर आता है तो भाव आता है मां चामुण्डा की नगरी का। जैसे ही कोई देवास में प्रवेश करता है, तो वह छोटी पहाड़ी जिसे मालवा में टेकरी कहा जाता है, जहां ये प्राचीन मंदिर स्थित है, अपना ध्यान बरबस खींच लेती है। आज यह शहर के ठीक बीच में स्थित है और हमें साधना के शिखर का बोध कराती है। इसी जाग्रत शक्तिस्थल के कारण यह स्थान साधकों की साधना स्थली रहा है। पिछली सदी के पूर्व नाथ संप्रदाय के संत शीलनाथजी महाराज देवास पधारे और टेकरी के नीचे ही उन्होंने अपनी तपस्थली बनाई। उस समय के देवास के शासक के आग्रह पर यहीं एक-दूसरे स्थान पर भी अपनी धूनी रमाई जो आज भी शीलनाथ धूनी संस्थान नाम से जानी जाती है। चालीस के दशक में स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने भी टेकरी के नीचे ही अपना आश्रम बनाया जो आज विश्व में शक्तिपात साधना का आध्यात्मिक केंद्र है।

लोकसंगीत की सुवास

देवास में आध्यात्मिक तरंगों के साथ ही लोकसंगीत की सुवास को सहज महसूसा जा सकता है। देवास के आसपास एक अनूठी परंपरा रही है कबीर गायन की। लोक भाषा में इकतारे और लोक वाद्य यंत्रों के साथ कबीर गायन की जड़ें बहुत गहरी हैं जो लोकमानस और लोक संस्कृति तक फैली हैं। कबीर को वाचिक परंपरा में गाया-सुना जाता है लेकिन ये सरिता मालवा तक आते-आते बहुत सी जाग्रत परंपराओं को अपने साथ समेट लेती है। कई बार बाबा शीलनाथजी के वचनों को भी कबीर गायन में ही शामिल कर लोग गाते हैं। इस गायन परंपरा में इकतारे के साथ सुर खुल के लगते हैं, नाभिचक्र से उठी यह हूक सीधे हृदयचक्र तक पहुंचती है। इस जाग्रत स्थान पर संतों का ठहराव और लोकजीवन में संगीत का प्रवाह शायद संयोग नहीं है। लोकजीवन में कबीर गायन की समृद्ध परंपरा, उस्ताद रज्जब अली खां साहब का प्रभावी व्यक्तित्व, फिर पंडित कुमार गंधर्व का स्वास्थ्य लाभ के लिए देवास आना और यहीं का हो कर रह जाना। यहां के लोकसंगीत की भावप्रवणता और सोंधेपन को समादृत कर जब उन्होंने शास्त्रीय संगीत की जाजम पर बैठाया तो एक ऐसा अपूर्व संगीत उपजा जिसने देवास को विश्वस्तरीय सम्मान दिलाया।

उत्सव प्रेमी नगर

यह शहर उत्सव प्रेमी है। सावन में निकलने वाले भोलेनाथ के जुलूस की पुरानी परंपरा है।  खास तौर पर भोलेनाथ की सवारी जब निकाली जाती है तो विभिन्न अखाड़ों के पहलवान अपने करतब यानी मल्लखंब, लाठी घुमाना आदि का प्रदर्शन करते चलते हैं। बाकी युवा ढोल की ताल पर नृत्य करते हुए आगे होते हैं। भोलेनाथ के साथ ही एक सहज स्मरण हो आता है एक ऐसे अनूठे व्यक्तित्व का जिसने अपने जीवन में सेवा का उत्कृष्ट उदाहरण स्थापित किया। वो है शंकर भोले। वे देवास के ऐसे सहज आत्मीय व्यक्ति थे, जो लावारिस शवों का सम्मान से अंतिम संस्कार करते थे। लंबी दाढ़ी, कुर्ता और धोती पहने, कांधे पर गुलाल से भरा झोला लटकाए जुलूस में गुलाल उड़ाते शंकर भोले आज भी देवास वासियों की स्मृति में जीवित हैं। एक अनोखे जुलूस की स्मृतियां आज भी जेहन में जीवंत हैं, ‘भुजरिया’ की जो, राखी के अगले दिन निकलता था। किन्नर समाज ट्रॉलियों पर क्षत्रिय वेषभूषा में, पूरे उत्साह और जोश के साथ हाथों में तलवारें लिए ओजपूर्ण तरीके से वीररस के संवाद बोलते थे। संवाद बोलते समय उनकी तलवारें हवा में लहरा जातीं। अभिनय के प्रवाह और संवादों में ओज बढ़ाने के लिए कई बार अचेतन से निकली गालियां भी अपना स्थान बना लेतीं। कई बार मजेदार स्थिति बनतीं, जब माइक एक ही होता था। पात्र पूरे जोश से सामने वाले को दुश्मन मान संवाद बोलता, फिर उसके संवाद के लिए माइक उसे सौंप देता और उसी से बीड़ी मांग कर पीने लगता।

शबे मालवा

कभी मालवा के लिए कहा जाता था ‘मालव भूमि गहन गंभीर, डग डग रोटी पग पग नीर।’ आज भी उस समृद्धि के संस्कार हैं। भावप्रवणता, आत्मीयता और अपनत्व यहां का मूल स्वभाव है। कहा तो यह भी जाता है कि सुबहे बनारस, शामे अवध और शबे मालवा। यहां की रातें बेहद सुखद होती हैं, भरी गर्मी की रात भी सोते वक्त आपको ओढ़ने की जरूरत महसूस हो जाती है।

निरात-पसंद भिया के बाफले 

पोहा देवास की पहचान है। ऊपर से नीबू निचोड़कर, सेंव डालकर इसका मजा लिया जाता है। सुबह गुमटियों पर ‘भिया’ के आत्मीय और सम्मानजनक संबोधन और कड़क मीठी कट चाय के साथ शहर अंगड़ाई लेता है। यहां के लोग सारे काम बहुत ‘निरात’ यानी आराम से करते हैं। भोजन में दाल-बाटी या बाफले से कमतर कुछ भी पसंद नहीं करते। मिठाई खाने के शौकीनों की जुबान पर आज भी माखन हलवाई, मोतीसेठ, छोगालालजी, बाबूजी मिठाईवाले की रबड़ी आदि के स्वाद लेकर चर्चे होते हैं। बाहर से लोग देवास आते हैं और यहीं के होकर रह जाते हैं। बाहर से ही आए थे बाबा शीलनाथ, स्वामी विष्णुतीर्थ और कुमार गंधर्व। देवास कृतज्ञ है अपनी साझी, समरस और समृद्ध विरासत के साथ।

मनीष शर्मा

(साहित्यकार, काव्य संग्रह ‘बहाव संग’ के लेखक)

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