उत्तराखंड का हर अंचल अपनी विशिष्टता में अनुपम है। इसमें चंपावत का इतिहास और संस्कृति विशेष महत्व रखते हैं। यह वही भूमि है, जहां कभी चंद वंश की राजधानी बसी थी। पुराने मंदिरों, प्राचीन किलों और लोककथाओं से सजी यह धरती आज भी अपने अतीत की गवाही देती है। यहां की घाटियों में कदम रखते ही लगता है, मानो समय ठहर गया हो और प्रकृति और परंपरा ने मिलकर जीवन को एक अनोखी लय दे दी हो।
पत्थरों का युद्ध और श्रद्धा
चंपावत की सांस्कृतिक पहचान की चर्चा देवीधूरा के बुग्वाल मेले के बिना अधूरी है। हर वर्ष रक्षा बंधन के दिन आयोजित यह मेला न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि साहस और परंपरा का अद्भुत संगम भी है। किंवदंती है कि देवी वराही की पूजा के लिए किसी समय नरबलि दी जाती थी। एक वृद्धा की प्रार्थना से प्रसन्न होकर देवी ने यह प्रथा समाप्त की लेकिन शर्त रखी कि रक्त की आहुति अवश्य हो। तब चार खाम- लमगड़िया, चम्याल, खाम्स और वलिक ने पत्थरों से युद्ध का यह रूप रचा, जिसे आज भी बग्वाल कहा जाता है। ढोल-दमाऊ की गूंज, जयकारों की लय और हाथों में बांस-रिंगाल की ढालें, जब पहला पत्थर हवा में उछाला जाता है, तब पूरा मैदान युद्धभूमि जैसा प्रतीत होता है। कई लोग घायल होते हैं, पर उनके चेहरे पर आस्था और उल्लास दोनों झलकते हैं। यह केवल खेल नहीं, बल्कि देवी को समर्पित अनूठा पर्व है, जहां साहस और श्रद्धा एक साथ जीवित रहते हैं।
वीरता की थाप
चंपावत की शादियों और मेलों में जब छोलिया नृत्य की लय गूंजती है, तो वातावरण वीर रस की किसी कविता जैसा हो उठता है। तलवार और ढाल थामे नर्तक जब ढोल-दमाऊ की थाप पर कूदते-फांदते मंच पर उतरते हैं, तो उनकी चाल में शौर्य और उल्लास दोनों का संगम दिखता है। लोकविश्वास है कि विवाह समारोह में छोलिया नृत्य इसलिए किया जाता है ताकि नवदंपत्ति के जीवन में साहस और देवशक्ति दोनों बनी रहे। “हुई-हुई” की सामूहिक गूंज के साथ जब तलवारें चमकती हैं, तो मौजूद लोग इतिहास की किसी जीवंत कथा का हिस्सा बन जाते हैं।
मेले और मेले
चंपावत की पहचान केवल बुग्वाल से नहीं, बल्कि कई और अन्य मेलों और पर्वों से भी है, जो इसके सांस्कृतिक वैभव को जीवंत रखते हैं। काली नदी के तट पूर्णागिरि बसा हुआ है। इस तीर्थ में शारदीय नवरात्र में लाखों श्रद्धालु आते हैं। यह मेला बहुत प्रसिद्ध है। यहां देवी के चरणों में नारियल और चुनरी चढ़ाई जाती है, जो गहरी आस्था को दर्शाती है। दूर-दूर से आए यात्री चंपावत की राह को पवित्र यात्रा-पथ में बदल देते हैं।
नंदा देवी मेला सिर्फ चंपावत ही नहीं, बल्कि पूरे कुमाऊं में आस्था का केंद्र है। देवी की झांकियां जब लोकगीतों की धुनों के बीच सजीव होती हैं, तो पूरा नगर उत्सव में डूब जाता है। यह पर्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक एकता का प्रतीक भी है। कृषि संस्कृति के उत्सव का प्रतीक बिशु मेला किसानों को समर्पित है। फसल कटने के बाद किसान जब एकत्र होते हैं, तो गीत-संगीत, लोकनृत्य और मेलजोल उनकी मेहनत और जीवन की सादगी का उत्सव बन जाते हैं। भाद्रपद में मनाया जाने वाले आठू मेले का स्थानीय लोगों में गहरा विश्वास है। यहां का समुदाय, स्थानीय देवी-देवताओं को प्रसन्न करने और सामुदायिक संबंधों को मजबूत करने के लिए इस मेले में जुटते हैं। चंपावत को मेले की नगरी कहा जाए, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां एक पूजा मेला भरता है, जिसमें स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों के लिए बड़ा आकर्षण होता है। इसमें पारंपरिक शिल्प, हस्तशिल्प और लोककला देखने को मिलती है। लोकगीतों और नृत्यों से सजे इस आयोजन में चंपावत का बाजार जीवंत होकर झलक उठता है।
लोकगीतों की आत्मा
यहां की संस्कृति केवल मेलों में ही नहीं, बल्कि लोकगीतों में भी गहरी रची-बसी है। आज भी शादियों और उत्सवों में गूंज उठता है, ‘‘बेडू पाको बारो मासा, ओ नारायण काना काफल पाको चैत में, ओ लारो खेला जाना’’ यह गीत ऋतुओं, फलों और जीवन की सहजता का प्रतीक है। इन गीतों में प्रकृति के साथ गहरा संबंध झलकता है। लोककथाओं में कहा जाता है, “जैंसी देवभूमि, तैंसी देवपरंपरा” यानी यहां की परंपराएं भी उतनी ही पवित्र हैं, जितनी यह भूमि।
देवताओं का निमंत्रण- जागर
चंपावत की पहाड़ियां लोकविश्वासों से भरी हुई हैं। यहां अब भी जागर परंपरा जीवित है, जिसमें ढोल-दमाऊ की थाप पर देवताओं को बुलाया जाता है। पूरी रात चलने वाले ये जागर न केवल भक्ति, बल्कि लोकजीवन और देवताओं के बीच संवाद का अनूठा माध्यम भी हैं। यहां के मंदिरों में बंटेश्वर, नंदा देवी और मानेश्वर आज भी लोगों की आस्था का केंद्र हैं। वहीं पुरानी कहानियां बताती हैं कि यह क्षेत्र कभी कूर्म अवतार की स्थली भी माना गया।
साहस, आस्था और लोकजीवन
चंपावत की पहचान केवल पहाड़ों की सुंदरता में नहीं, बल्कि उसकी संस्कृति और परंपराओं की जीवंतता में है। बग्वाल का साहस, छोलिया की वीरता, लोकगीतों की सरलता और मेलों की एकजुटता, सब मिलकर इस भूमि को अद्वितीय बनाते हैं। जब दुनिया की कई प्राचीन सभ्यताएं मिट चुकीं, तब भी चंपावत की यह धड़कन आज तक जीवित है। यही इसकी सबसे बड़ी शक्ति है, अपनी जड़ों से अटूट जुड़ाव।
(इंटर कॉलेज में इतिहास के प्रवक्ता)