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शहरनामा/बड़हिया

रोचक किस्सों में बिहार का एक कस्बा
यादों में शहर

दबंगई पुरजोर

 “तड़तड़ तड़तड़...! बुम्म्म...!” अचानक हवा में इस ध्वनि के साथ बारूद की गंध फैल गई थी। मिनटों में चर्चा पूरे बड़हिया में आम हो गई कि दो गुटों में वर्चस्व की लड़ाई शुरू हो गई है! सत्तर के दशक में वह पूरा इलाका अपराध का गढ़ माना जाता था। एक ओर गंगा के उस पार तीस किलोमीटर दूर बेगूसराय, तो दूसरी ओर अठारह किलोमीटर दूर मोकामा। ये तीनों नगर बिहार में अपराध का त्रिकोण बना रहे थे! आज भी, “घसकभो भाई जी, तनी घसखो न!” पटना-जसीडिह या पटना-भागलपुर रेल-रूट पर मगही भाषा में बोलते ही बड़हिया के लोगों को ट्रेन में आसानी से जगह मिल जाती है।

अखाड़ों का शहर

बड़हिया की कहानी तीस से भी अधिक अखाड़ों से शुरू होती है, जहां सैकड़ों पहलवान तैयार किए जाते थे। राष्ट्रीय स्तर के रामाश्रय पहलवान और विश्वनाथ पहलवान स्वयं बड़े किसान थे। वैसे हरेक बड़े किसान का अपना अखाड़ा होता। दाल का कटोरा कहे जानेवाले बड़हिया में उस समय सौ से भी अधिक बड़े किसान थे। बड़हिया-मोकामा टाल से लेकर गंगा दियारा तक उनका साम्राज्य फैला हुआ था। 1943 के अकाल में बड़हिया के नौ भैया परिवार ने पूरे साल सदाव्रत बांटा था, जिसमें हरेक को एक बोरा अनाज, एक साड़ी या धोती और एक चांदी का सिक्का दिया जाता था। इसीलिए वे बड़े दानवीर भी कहलाते थे।

छोटी अयोध्या

छोटी अयोध्या के नाम से प्रचलित इस नगरी में आजादी के समय सत्तर से भी अधिक माता मंदिर, राम मंदिर और ठाकुरबाड़ी थे। हालांकि वहां मा बाला त्रिपुर सुंदरी का बहुचर्चित और प्राचीन मंदिर है, जिसे तोड़कर हाल ही में भव्य और विशाल बनाया गया है। आज हरेक शनिवार और मंगलवार को हजारों लोग वहां दर्शन करने आते हैं। कहते हैं कि दर्शन करने वालों की मुराद बिन मांगे पूरी हो जाती है।

विषनाशक जल

“दुहाय सिरधर बाबा की...! दुहाय मा बाला त्रिपुर सुंदरी की...!” कहा जाता है कि बड़हिया का कोई भी दिघबय-शांडिल्य व्यक्ति इस मंत्र उच्चारण के साथ किसी सर्पदंश से पीड़ित आदमी को जगदम्बा मंदिर के कुएं का जल पिला दे, तो कुछ ही देर में विष का प्रभाव खत्म हो जाता है। बड़हिया में सावन-भादो का झूला पूरे बिहार में प्रचलित था। विश्वकर्मा पूजा में कव्वाली भी उतनी ही प्रचलित थी, जब मुंगेर से लेकर पटना और बेगूसराय तक के लोग देश भर के नामी कव्वालों को सुनने वहां आते थे। “पुलवा लागेला सुहावन...!” गीत-संगीत की बात निकली है, तो संगीत के बड़हिया घराना का नाम उद्धृत करना आवश्यक है। बड़हिया घराना के बहुचर्चित गायक श्यामदास मिश्र मेरे भी गुरु रहे हैं।

हमेशा स्वतंत्र

लखीसराय जिले के बॉर्डर पर बसा बड़हिया आज शेखपुरा, पटना और बेगूसराय के बॉर्डर को छूता है। कहा जाता है कि मगध, मिथिला और अंग राज्य के बॉर्डर पर स्थित बड़हिया कभी किसी राज्य के अधीन नहीं रहा। मूलतः बड़हिया की कहानी शुरू होती है बारहवीं शताब्दी से, जब  मिथिला के दो साधक भाई जयजय ठाकुर और पृथु ठाकुर पुरी की यात्रा पर जा रहे थे। उन्होंने एक स्थान पर चूहा और बिल्ली को लड़ते देखा। दृश्य देखकर उन्हें यह प्रतीत हुआ कि यह मिट्टी बहुत बलशाली है। वहां के राजा के आग्रह पर वे पुरी से लौटते हुए, वहीं बस गए।

नेता नामधारी

आजादी के बाद तक उस क्षेत्र की सबसे बड़ी अनाज-मंडी बड़हिया में थी। वहां के युवा पढ़-लिखकर डॉक्टर, वकील, प्राध्यापक भी बनने लगे थे। मटुकधारी प्रसाद सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानी सहित कपिलदेव सिंह, ललित विजय सिंह और वर्तमान केन्द्रीय मंत्री गिरिराज सिंह जैसे नेता हुए। डॉक्टर कृष्णपाल सिंह जैसे उद्योगपति भी हुए। इसका श्रेय बड़हिया हाइ स्कूल को दिया जाता है, जो 1912 में स्थापित हुआ था। वहां के मारवाड़ियों की चर्चा जरूरी है। व्यापार का मुख्य जिम्मा उन्हीं पर था। अपराध की वजह से धीरे-धीरे एक समृद्ध बाजार कमजोर पड़ने लगा। आजादी के बाद जिला बनने का प्रबल दावेदार बड़हिया आज तक एक सबडिवीजन भी न बन सका।

अब नई कहानी

बड़हिया की अब नई कहानी शुरू होती है। मगही के कबीर कहे जाने वाले कवि मथुरा प्रसाद नवीन की मूर्ति लगाई गई है। इसके लिए बीसियों युवाओं ने मिलकर हरेक घर से एक-एक रुपया चंदा लिया। युवाओं की छोटी-सी दिखने वाली इस सांस्कृतिक सोच ने बड़हिया की एक नई कहानी लिखनी शुरू कर दी है। हां, यहां आने पर लोकी पंडित की फेमस रसगुल्ले की दुकान पर जाना न भूलें। यहां एक प्लेट में दो लाल, एक नारंगी, एक उजला रसगुल्ला और एक एटम बम मिलता है, जो मुंह में रखते ही घुल जाते हैं। कहा जाता है कि बड़हिया की काली मिट्टी में दूध की नदी बहती है। शायद इसीलिए यहां आज भी सिर्फ सौ रुपये किलो रसगुल्ला मिलता है।

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