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शहरनामा / भोपाल

भोपाल की बुनियाद में शामिल है दोस्ती और भाईचारे का जज्बा
यादों में शहर

मोहब्बत की चाशनी में डूबा शहर

नवाबी ठाठ, ठसक और फकीराना सादगी का कोलॉज है मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल। पुराने भोपाल की एक मुख्य सड़क यहां के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खां के नाम पर हमीदिया रोड है तो उसी सड़क का एक चौराहा अंधे फकीर का चौराहा कहलाता था, जो अब भोपाल टॉकीज चौराहा के नाम से जाना जाता है। तारीख के इत्र की खूशबू यहां के दर-ओ-दीवार में आज तक बसी है। कुछ ललक हो तो आकर लुत्फ लीजिए। मोहब्बत की चाशनी में डूबा यह शहर गंगा-जमुनी तहजीब के ऑक्सीजन में सांस ले रहा है और माशाअल्लाह सेहतमंद है। बड़े तालाब के बीच टापू पर सूफी हजरत शाह अली शाह की दरगाह है तो उसी तालाब के एक किनारे पर संत शीतलदास जी की बगिया और मंदिर है। सुना है, दोनों सूफी-संत गहरे दोस्त थे।

 

बाकी सब तलैया

दोस्ती और भाईचारे का जज्बा भोपाल की बुनियाद में शामिल है। रानी कमलापति ने राखी भेजकर अफगान सरदार दोस्त मोहम्मद खां को भाई बनाया और अपने शौहर के कातिलों से बदला लेने का वादा लिया। सरदार ने वादा निभाया तो रानी ने सरदार को यह जमीन दी। सरदार दोस्त मोहम्मद खां अपने साथियों के साथ इस जमीन पर आबाद होकर यहां के नवाब हुए और भोपाल रियासत वजूद में आई। पहले नवाब दोस्त मोहम्मद खां से आखिरी नवाब हमीदुल्लाह खां तक 1708 से 1949 तक 240 साल रियासत। भोपाल पर 13 नवाबों और बेगमों ने शासन किया। इनमें चार महिला शासक यानी बेगमात खासतौर से काबिल-ए-जिक्र हैं। यह जो बड़ा तालाब और रानी कमलापति हैं उनके लिए कहावत है: ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैयां/रानी तो कमलापति बाकी सब गधैयां।

 

जीने की अपनी अदा 

नवाबी राज खत्म होने के बाद 1950 में भोपाल रियासत भारतीय संघ में विलीन हो गई और 1956 में भोपाल मध्य प्रदेश की राजधानी बना। नवाबी दौर में जो सुकून और बेफिक्री पांव फैलाए रहती थी वह किस्से, बातें, जहन और जुबानों पर ही रह गई। 70 बरस बीत जाने के बाद भी 100 बरस पहले की जिंदगी की अदा कहीं बाकी है। कुछ लोग बंसिया लेकर बड़े तालाब मछलियां मारने जाते हैं। मुर्गेबाजी, कबूतरबाजी, पतंगबाजी और पहलवानी भी होती है। खुली जीप में घूमना भोपालियों का खास शौक है। यहां द्वितीय विश्व युद्ध के जमाने की जीपें अब भी फर्राटा भरती हैं।

 

नमकवाली सुलेमानी चाय

भोपाल रात भर जागता है। कुछ लोगों की सुबह जैसे रात को होती है। पुराने बस स्टैंड पर नए और पुराने शहर के बांके नहा-धोकर, सज-संवरकर रात 11 बजे आते हैं और 3-4 बजे तक महफिल जमाते हैं। भोपाल बहुत महंगा और खर्चीला शहर नहीं है। कम में भी गुजारा होता है और ज्यादा की कोई हद नहीं। सुबह से देर रात तक समावारों में उबलती नमकवाली सुलेमानी चाय पीने को दिल चाहे तो भोपाल तशरीफ लाइए। साथ में चार तरह के समोसे भी मिलेंगे। एक तो वही आलूवाला अंतरराष्ट्रीय समोसा, दूसरा दाल या कीमा रोटी में लपेटकर तला हुआ कुरकुरा समोसा, तीसरा वरकी समोसा निहायत मुलायम और चौथा मावा और सूखा मेवा भरकर बनाया मीठा समोसा, और भी बहुत कुछ।

 

गंगा-जमुनी तहजीब

अब नया वक्त है, नए लोग हैं लेकिन दिलों में अब भी गुंजाइशें बहुत हैं। चौक बाजार जामा मस्जिद में रमजान महीने के आखिरी जुमे, जुमातुलविदा पर जब नमाज अदा करने वालों की तादाद इतनी बढ़ जाती है कि मस्जिद के बाहर भी नमाज अदा की जाती है तो चौक के हिंदू कपड़ा व्यापारी अपने नए कपड़े के थान बिछा देते हैं। तालाबों और मस्जिदों का यह शहर छोटी-छोटी पहाडि़यों और घुमावदार रास्तों और तंग गलियों में अपनी लय से चलता है। जिंदगी की रफ्तार बहुत तेज नहीं है। लेकिन यह शहर बिल्कुल सुस्त भी नहीं। सादगी पंसद अवाम ने शहर के मिजाज की कमान को टेढ़ा नहीं होने दिया।

 

दुष्यंत कुमार की कर्मभूमि

हॉकी का खेल भोपालियों का दूसरा मजहब हुआ करता था। कई मशहूर हॉकी खिलाड़ी यहां पैदा हुए। मशहूर कव्वाल शकीला बानो भोपाली यहीं की थीं, लेकिन इसे शहर-ए-गजल भी कहा जाता है। शायरी भोपालियों के खून में शामिल है। भोपाल में कई नामवर शायर पैदा हुए जैसे कि बासित भोपाली, ताज भोपाली, शैरी भोपाली, कैफ भोपाली वगैरह। हिंदी गजल को नया कलेवर देने वाले दुष्यंत कुमार की कर्मभूमि भी भोपाल है। यहां 18वीं शताब्दी में साहित्य लेखन शुरू हो चुका था, खासतौर से मिर्जा गालिब के शागिर्द भी यहां के लोग रहे हैं।

 

शब-ए-मालवा

भोपाल मालवा के पठार पर बसा है, वही मालवा जिसकी मिसाल दी जाती है: शाम-ए-अवध, शब-ए-मालवा, सुब्ह-ए-बनारस। यह मालवा के मौसम का सुरूर और रात की नजाकत है कि सख्त गर्मी में भी रात को अगर खुली छत या आंगन में सो जाएं तो इतनी ठंडक हो जाती है कि रजाई ओढ़नी पड़ती है। यह बहुत दिलकश, दिलरूबा शहर है, यहां की मिट्टी की मिठास पांव पकड़ती है, यहां का पानी अपना बना लेता हैं। इसीलिए तो आने वालों को पहली नजर में भोपाल से इश्क हो जाता है क्योंकि 'शाम दिलकश, रात महवश, सुब्ह गुलवश बद्र जी/याद जन्नत में भी आएंगे मजे भोपाल के!!'

(गजल संग्रह ‘तो मैं कहां हूं’, उर्दू-हिंदी संगम के हिमायती)

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