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शहरनामा / विदिशा

मध्य प्रदेश के विदिशा के बनने-बदलने की कहानी
यादों में शहर

दिशा-विदिशा

काशी, उज्जैन, पाटलिपुत्र जैसे भारत के पौराणिक नगरों का समकालीन है विदिशा। कहते हैं, शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती का भू-भाग रहा है यह। कस्बेनुमा इस शहर का जिक्र कालिदास के मेघदूत और बाणभट्ट की कादंबरी में भी है। सम्राट अशोक वही, जिन्हें बुद्ध की शरण में शांति मिली, उनका ससुराल रहा है विदिशा। उनकी पत्नी के नाम पर ही इसे विदिशा नाम मिला। यहीं पास में है बुद्ध के शिष्यों की तपोस्थली सांची। यहां वे सारे साक्ष्य हैं, जो एक महान पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक नगर का वैभव बताने के लिए जरूरी हैं। यहां भगवान राम के भी चरण पड़े थे। तभी यहां चरण तीरथ है। कहते हैं, भगवान राम पिता दशरथ के पिंड दान करने के लिए पुष्कर जाते हुए च्यवन ऋषि से मिलने यहां आए थे।

भाषा-साहित्य

बेबाक बयानी के लिए एक कहावत है, ‘भेलसा की तोप।’ विदिशा के पुराने नाम भेलसा और यहां की मशहूर तोप से मंसूब यह कहावत और बेबाक बयानी तो जस की तस है, लेकिन अफसोस 1870 के आसपास की इस विशाल ‘भेलसा तोप’ का अब फोटो ही शेष है। यह फोटो भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय में है। लेकिन भाषा को जिन्होंने संभाला और साहित्य बनाया उनमें कई नाम हैं। बाबा नागार्जुन और कैफ भोपाली ने अक्सर यहां लंबा वक्त बिताया है।

तख्तो-ताज की दुनिया

पहली बार था जब किसी जिले ने तत्कालीन मुख्यमंत्री से उसका तख्त छीन लिया था। 1952 में बाबू तख्तमल जैन इसी जिले के बासौदा से चुनाव हार गए थे। मुख्यमंत्री रहते हुए किसी नेता के हारने का यह पहला उदाहरण था। विदिशा ने राजमाता सिंधिया से लेकर रामनाथ गोयनका को लोकसभा में जीत दिलाई। 1985 में ग्वालियर से माधवराव सिंधिया से हारने के बाद, अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ के साथ यहां की ‘सुरक्षित’ सीट से चुनाव लड़ा। तबसे कई नेताओं को इस सीट ने ‘सुरक्षा’ दी, जिनमें सुषमा स्वराज और शिवराज सिंह चौहान भी हैं।

मुक्तिबोध का लोहांगी

मुक्तिबोध की एक लंबी कविता की पंक्तियां हैं- उस अंधियाले ताल के उस पार/नगर निहारता-सा खड़ा है पहाड़ एक/लोहे की नभचुंबी शिला का चबूतरा/लोहांगी कहाता है.. विदिशा नगर के बीचोबीच छोटी-सी पहाड़ी है, लोहांगी। इस पहाड़ी पर तीन धाराओं की निशानी है। एक मंदिर, मस्जिद और अशोक स्तंभ। मस्जिद पर महमूद खिलजी और अकबर के 864 और 987 हिजरी के अभिलेख हैं। अशोक स्तंभ पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का शिलालेख है। कहते हैं, 650 साल पहले यहां शेख जलाल चिश्ती उर्फ लोहांगी पीर हुए थे, पहाड़ी का नाम उन्हीं से मंसूब है। आषाढ़ी पूर्णिमा पर बड़ा मेला भरता है। मुझे नहीं लगता कि आज की पीढ़ी के किसी युवा को मुक्तिबोध या उनकी कविता में रुचि होगी, फिर खिलजी, अकबर, अशोक और लोहांगी की क्या कहें।

शालभंजिका का शिल्प

वैत्रवती (बेतवा) और बैस नदी के संगम पर बसा यह शहर अब आधुनिक हो गया है। लेकिन शहर में बने प्राचीन मंदिर इसके ऐतिहासिक होने की खुद ही गवाही देते हैं। कई छोटे-बड़े मंदिर हैं, जिनमें कुछ आधुनिक विस्तार पा गए हैं। लेकिन ग्यारसपुर का प्राचीन मूर्तिशिल्प और शालभंजिका की पहचान ज्यों की त्यों है और उस खाम बाबा के स्तंभ की भी जिसे यूनानी राजदूत हेलियोडोरस के विदिशा आकर वैष्णव धर्म स्वीकार करने के प्रतीक स्वरूप बनाया गया था।

आजादी आंदोलन

ऐतिहासिक होने का अर्थ हर मायने में ऐतिहासिक होना है। भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण घटना स्वतंत्रता आंदोलन में फिर भला विदिशा कैसे पीछे रहता। यहां 1930 में दत्तात्रेय सरवटे ने आजादी का आंदोलन शुरू किया था। 1942 के करो या मरो आंदोलन की आंच भी यहां पहुंची। कई गिरफ्तारियां हुईं और उन क्रांतिकारियों की याद में बना एक शहीद ज्योति स्तंभ है।

कर्क रेखा वाला शहर

मौर्य काल में पाटलिपुत्र से उज्जयिनी (उज्जैन) राज्यमार्ग का प्रमुख नगर रहा विदिशा से ही कर्क रेखा गुजरी है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के बिलकुल पास बसा यह शहर आजादी के बाद ग्वालियर रियासत का हिस्सा रहा है। ग्वालियर के पूर्व महाराजा जीवाजीराव सिंधिया ने यहां इंजीनियरिंग कॉलेज बनवाया था। अब यह कॉलेज नामचीन तकनीकी महाविद्यालयों में एक है। ग्वालियर रियासत का ही शायद असर रहा है कि इस शहर के रहन-सहन और खान-पान पर मालवा का असर है। यहां की उपजाऊ भूमि में अच्छे किस्म का गेहूं उगता है।

सनद रहे

शांति का नोबल पुरस्कार पाने वाले कैलाश सत्यार्थी विदिशा के हैं। समाजसेवी और लेखक गोविंद देवलिया ने अपनी किताब दिशायाम विदिशा में लिखा है, “भारत में मंदिर निर्माण का आरंभ उदयगिरि की आखिरी गुफा से हुआ है। इससे पहले मंदिर लकड़ी के बनाए जाते थे।” उदयगिरि की गुफाएं जिनका काल चौथी और पांचवी शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक का है। इन्हीं गुफाओं में एक में सबसे प्राचीन गणेश प्रतिमा है। उदयगिरि की गुफाएं विदिशा की धरोहर हैं।

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