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8 अगस्त 2022 · AUG 08 , 2022

शहरनामा/बिहिया

अद्भुत कलाकारी और हस्तनिर्मित नक्काशी से सुसज्जित सूर्य मंदिर वाला यह पोखरा श्रद्धा का केंद्र है।
यादों में शहर

शहरी भाव, देहाती ठाट

शहर और देहात का रंग लिए बिहिया बिहार के भोजपुर जिले में एक ‘चट्टी’ के समान है जो देहात और शहर के बीच सामंजस्य बैठाता है। मानो उसे शहर बनने से परहेज है लेकिन गांव के सीमित दायरे में रहना पसंद नहीं। बिहिया सुबह शहर हो जाता है, लोग विभिन्न काम में जुट जाते हैं। शाम को बिहिया ठेठ देहात होकर अल्हड़ रसीली रागों और मजाकिया बतकहियों की महफिल सजाता है तथा चैन की नींद सुलाता है। बिहिया का गौरव ‘सूर्य मंदिर’, दक्षिण भारत की तर्ज पर, पोखर में बीचोबीच बना है। अद्भुत कलाकारी और हस्तनिर्मित नक्काशी से सुसज्जित सूर्य मंदिर वाला यह पोखरा श्रद्धा का केंद्र है।

बावन गलियां, तिरपन बाजार

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले बिहिया का गुणगान 1857 के महानायक, जगदीशपुर रियासत के जमींदार बाबू वीर कुंवर सिंह की कर्मभूमि के रूप में किया जाता है। वीर कुंवर सिंह, बिहिया और उसके अंतर्गत आते गांवों की नसों में ऊर्जा बनकर दौड़ते हैं, जिससे लोगों को मातृभूमि पर मर-मिटने की जोशीली प्रेरणा मिलती है। बिहिया, चेरो के प्रमुख घुघुलिया की राजधानी के रूप में भी जाना जाता है। कोर्ट-कचहरी के लिए भी इसे याद किया जाता है। जनश्रुति के अनुसार पहले यहां बावन गलियां थीं और तिरपन बाजार लगते थे।

मां महथिन की तपोभूमि

बिहिया, सती शिरोमणि मां महथिन की तपोभूमि के रूप में विख्यात है। यहां मां महथिन के सती चौरा पर उनकी पूजा की जाती है और मंदिर में विवाह होते हैं। प्रचलित कथा के अनुसार, बिहिया पर हरिहोबन (हरिहोवंश) के अत्यधिक दुराचारी, व्यभिचारी राजा रणपाल का राज था। उसके बनाए नियम के अनुसार, बिहिया के रास्ते से होकर जाती डोली की हर नई दुल्हन को पहली रात उस दुष्ट राजा के साथ बितानी होती थी। एक ब्राह्मण महंत चौबे की पुत्री महथिन की डोली बिहिया से गुजरने पर राजा रणपाल के सेवक डोली तक आए। महथिन ने हरिहोबन को श्राप दिया, तत्पश्चात उनके तेजोमय सतीत्व के कारण डोली धू-धू करके जल उठी। उधर रणपाल राजा का सर्वनाश हो गया और उसके वंशज बिहिया छोड़कर चले गए। लेकिन जब कभी उन्हें बिहिया के रास्ते से होकर जाना होता तो वे घोड़ी से उतरते, अपने जूते उतारकर हाथ में लेते, पगड़ी उतारकर, सिर झुकाते, फिर बिहिया को पार करते थे। मां महथिन ने बिहिया को निर्भीकता का वरदान दिया था। सती चौरा रेलवे ट्रैक के करीब है, जहां एक अंग्रेज रेलवे ट्रैक बिछवा रहा था। मंदिर से होकर गुजरने के कारण दिन में बिछाया ट्रैक हर रात उखड़ जाता था। किंवदंती है कि फिर मां महथिन ने ट्रैक बनवाने वाले अंग्रेज के स्वप्न में आकर निर्देश दिए और चमत्कार दिखाए जिसके बाद ट्रैक का सकुशल निर्माण हुआ। चमत्कारों से प्रभावित, उस अंग्रेज ने मां महथिन के मंदिर की नींव रखवाई। मान्यता है कि मां महथिन के दरबार में सच्चे मन से लगाई अर्जी में व्यक्त इच्छा जरूर पूरी होती है।

बिहार का अपना ‘बनारस’

बिहिया को शाहपुर विधानसभा के राजनैतिक व आर्थिक दायरे के कारण ‘बनारस’ कहा जाता है। कुछ भी पाकर उसे दोगुना वापस करने वाली परंपरा के निर्वहन के कारण बिहिया का नामकरण बनारस हुआ। बिहिया, आसपास के गांवों से सुदृढ़ व्यवस्था मिलने के एवज में गांवों को सशक्त संसाधन वापस करता है। व्यावसायिक केंद्र होने के कारण मान्यता है कि यहां नेता और बेटा दोनों को मोक्ष मिलता है। बेटों को अपना घर चलाने के लिए काम मिलता है और नेताओं को सत्तासीन होने के लिए चंदे के साथ वोट मिलता है। बिहिया और आसपास के गांवों की हवा क्रांतिकारी मानी जाती है। यहां इंकलाब सांसों में बसा है। बिहिया के नेता, स्थानीय और देश-विदेश की राजनीति अपने चश्मे से देखते हैं। यहां चाय की दुकान से सैलून तक प्रतिदिन ‘चलता-फिरता संसद’ बैठता है।

दियरांचल से दोस्ती

बिहिया के उत्तर में, मां गंगा की गोद में बसा विराट दियरांचल है। बिहिया चौरस्ता से उत्तर दिशा की ओर बढ़ने पर दिखता दृश्य देखकर बाघ की भी घिग्गी बंध जाए क्योंकि कोसों तक मां गंगा का छाड़न फैला है जिसमें बाढ़ की विभीषिका के कारण न कोई घर-मकान, न कोई पेड़ दिखते हैं। बाढ़ के दिनों में, बबूल और कांटेदार झाड़ियों वाला सूनेपन का मंजर खतरनाक दिखाई देता है। बरसात में गंगा विराट रूप धारण करके बिहिया तक आ जाती है। मां गंगा का रौद्र रूप और दियरांचल में बसे लोगों की हिम्मत एक समान है। न गंगा पीछे हटती है, न गांव के लोग हार मानते हैं। दियरांचल में बाढ़ की विभीषिका होने पर, बिहिया सच्चे मित्र की भांति हर वर्ष रोटी सहित, दियरांचल की हर मूलभूत समस्या का निवारण करता है। बाढ़ उतरने के बाद दियरांचल खेती के दम पर, बिहिया वासियों को तरह-तरह के स्वाद चखाता है।

हाथी के कान-सी पूड़ी

बिहिया में स्वाद की चर्चा होने पर पाक विद्या इठलाती हुई प्रवेश करती है। क्षण भर में सिद्ध हथेलियों पर बढ़ा-बढ़ाकर हाथी के कान के आकार की पूड़ी बना दी जाती है, तो कहीं गोइठा (उपले) की आग पर लिट्टी-चोखा बनाकर आनंद लिया जाता है। चाय के साथ टिकिया, चाट और खीरमोहन के निराले, अनोखे स्वाद का चस्का जीभ को उनका आदी बना देता है।

पवन कुमार ‘ अर्पित’

(गीतकार, काव्य संग्रह ‘मणिकर्णिका’)

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