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लोकतंत्र का लाजिम मंजर

सुप्रीम कोर्ट ने वार्ता की पहल तो की, मगर मूल सवाल जहां के तहां, इससे नई सियासी राह खुलेगी या मौजूदा सत्ता-तंत्र हावी रहेगा
भारत-विचार के रंगः शाहीन बाग में आजाद भारत का अनोखा महिला माेर्चा

शाहीन बाग यानी झक सफेद बाजों के बाग में अब बाजों का तो पता नहीं, लेकिन वह आज हमारे लोकतंत्र और गणराज्य का ऐसा यक्ष-प्रश्न बन गया है जिससे हमारे बुनियादी अधिकारों से लेकर भारत-विचार की बुनियादी अवधारणा भी बीच बहस में है। इन पंक्तियों को लिखे जाने तक 66 दिनों से भरी सर्दी में शाहीन बाग अहिंसक प्रतिरोध का अनोखा बगीचा बना हुआ है, जहां देश के बुनियादी उसूलों के हर रंग खिल रहे हैं। शायद यही वजह है कि देश में हजार से अधिक शाहीन बाग सड़कों पर खिल आए हैं और दुनिया भर में उनकी गूंज तारी है। इसका एहसास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आवाज में भी हाल में झलका। उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र बनारस की एक सभा में कहा, “दुनिया भर से दबावों के बावजूद हम कश्मीर (अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा हटाने) और सीएए (नागरिक संशोधन कानून, 2019) पर कायम हैं।” हालांकि शाहीन बाग का दबाव कई रूपों में बदस्तूर दिख रहा है। खासकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में शाहीन बाग को “करंट” लगाने से लेकर तमाम तरह के बिगड़े बोल को लोगों ने बुरी तरह खारिज कर दिया, तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह एक टीवी चैनल में बातचीत की पेशकश करते दिखे। लेकिन शाहीन बाग की 'दबंग दादियों' ने पेशकश स्वीकार करके शाह के घर जाना चाहा, तो पुलिस का पहरा कड़ा कर दिया गया। लेकिन बहस अब कार्यपालिका और विधायिका से आगे न्यायपालिका के दरवाजे पहुंच गई है। सुप्रीम कोर्ट ने वार्ता की पहल करना ही बेहतर समझा। बेशक, उसकी दुविधा भी साफ झलक रही थी।

यह दुविधा एक वकील और एक भाजपा नेता की शाहीन बाग की सड़क खुलवाने की याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान साफ-साफ झलकी। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एस.के. कौल और के.एम. जोसेफ की पीठ ने कहा, “प्रतिरोध और प्रदर्शन बुनियादी अधिकार है। इससे किसी को वंचित नहीं किया जा सकता, लेकिन लंबे समय तक सड़कें भी रोकने से परेशानियां होती हैं। ऐसे में हमें उम्मीद करनी चाहिए कि कोई हल निकल आएगा, ताकि दोनों का ही सम्मान हो सके।” अदलत ने दिल्ली पुलिस की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से भी कहा कि किसी वैकल्पिक जगह की पेशकश करें। इसी के साथ अदालत ने यह टिप्पणी भी की कि उसके बाद हम प्रशासन पर छोड़ देंगे। गोया इशारा यह था कि इसकी पहल तो सरकार को करनी चाहिए थी। शायद यह तुषार मेहता समझ गए क्योंकि उन्होंने कहा, “यह नहीं लगना चाहिए ‌कि हर संस्‍था उनसे अपील कर रही है।” फिलहाल, अदालत ने शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों से बातचीत के लिए वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और प्रदर्शनकारियों के पक्ष में हस्तक्षेप करने वाले पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह को नियुक्त किया है और एक अन्य पक्षकार भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद से भी जरूरत पड़ने पर मदद लेने को कहा है।

हालांकि वार्ता से क्या निकलेगा, इस पर संजय हेगड़े भी स्पष्ट नहीं हैं और पहली प्रतिक्रिया में उन्होंने यही कहा कि बातचीत तो करते हैं। संजय हेगड़े पहले भी शाहीन बाग जा चुके हैं और सीएए-एनआरसी के खिलाफ अपना विरोध दर्ज कर चुके हैं। वैसे, प्रदर्शनकारी बातचीत करने को तो तैयार हैं मगर सड़क से हटने को तैयार नहीं हैं। धरनास्‍थल पर पहले दिन से बैठी दादियों में एक करीब 90 वर्षीय अस्मा खातून ने कहा, “हम बात तो सबसे करने को तइयार हैं लेकिन यहां से तभी हटेंगे जब कानून हटेगा। हम सालों भर बैइठे रहेंगे।” एक और बुजुर्गवार मेहरुन्निसा ने कहा, “हम यहां से तभी उठेंगे, जब हल निकलेगा।” आशंका दूसरी भी है जिसकी ओर यहां की इंतजामिया कमेटी के अफसान कहते हैं, “कहीं अलग-थलग धरने का असर बेमानी हो जाएगा। ठीक उसी तरह जैसे जंतर-मंतर पर प्रदर्शनों से सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता।” वे यह भी कहते हैं कि हमारे प्रदर्शन से तो सड़क का महज एक छोटा-सा हिस्सा ही प्रभावित है, सड़क तो दिल्ली पुलिस ने रोक रखी है। मसलन, कालिंदी कुंज पुल को नोएडा में उत्तर प्रदेश पुलिस ने बंद कर रखा है। अगर वह खोल दिया जाए तो पुल के बाद ही फरीदाबाद की ओर जाने वाले पुश्ते की सड़क खुल सकती है। इसी तरह जामिया की ओर जाने वाली सड़क भी खुल सकती है। इसके अलावा धरना सड़क की एक लेन में है, दूसरी लेन खोली जा सकती है, जिससे प्रदर्शनकारी एंबुलेंस, स्कूली बसों वगैरह को जाने के लिए रास्ता बना देते रहे हैं। दरअसल, मामला पेचीदा है और सियासत के खेल पर भी कई तरह की शंकाएं हैं। ये शंकाएं खत्म होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं। आखिर, संसद में कानून पास होने के बाद 13 और 15 दिसंबर को जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों पर पुलिसिया दमन की प्रतिक्रिया में ही शाहीन बाग की सुनसान सड़क पर यह धरना शुरू हुआ था, जिसे कालिंदी कुंज के उस पार से ही पुलिस ने रोक रखा था। अब जामिया के वीडियो भी आ गए हैं, जिनमें पुलिस लाइब्रेरी में घुसकर लड़कों पर लाठियां बरसाती दिख रही है, जिसमें एक लड़के की एक आंख चली गई और दो लड़कों के हाथ-पैर टूट गए। पुलिस पहले लाइब्रेरी में घुसने से इनकार करती रही है। अब दूसरी ही फिजा बनाई जा रही है कि वह दंगाइयों के पीछे घुसी थी। लेकिन इन घटनाओं पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है। उत्तर प्रदेश में जो हुआ और हो रहा है, वह तो जैसे “बदले” की दर्दनाक कहानी ही है।

ऐसे में भरोसा कैसे बनेगा। सरकार सीएए पर बात करने को तैयार नहीं ही है, एनआरसी पर भी “अभी नहीं” की भाषा ही बोल रही है। वजाहत हबीबुल्लाह ने कहा, “सरकार का दायित्व है कि वह लोगों की आशंकाएं दूर करे। इसके बदले प्रदर्शन पर ही सवाल उठाए जा रहे हैं। ऐसे में तो पेचीदगियां ही बढ़ेंगी।” जाहिर है, पेचीदगियां भी सियासत का ही अंग हैं।

मामला मौजूदा सियासत भर का नहीं है, बल्कि इसके दूरगामी नतीजे भी तय हैं। सीएए पर सुप्रीम कोर्ट में करीब 150 याचिकाओं पर सुनवाई की तारीख भी लगभग उसी के पास है, जब शाहीन बाग पर सर्वोच्च अदालत फैसला सुनाएगा। एनआरसी पर कंफ्यूजन तो बना हुआ है, एनपीआर पर अगर कई राज्य सरकारें कर्मचारी मुहैया कराने से मुकर जाती हैं, तो केंद्र को उस बारे में भी सोचना पड़ सकता है।

बहरहाल, शाहीन बाग मानो इस समूची सियासत को चुनौती दे रहा है। लेखिका नतासा बधवार कहती हैं, “शाहीन बाग भारत के बुनियादी विचार को फिर से अंगीकार करने और उसके लिए आवाज उठाने की अनोखी मिसाल है। यहां देखिए, कितनी तरह की रचनात्मक ऊर्जा खिल रही है। लोग जन गण मन, वंदे मातरम गा रहे हैं। यहां संविधान की लाइब्रेरी खुल गई है। दिल्ली में तकरीबन 22 जगहों के शाहीन बाग में एक निजामुद्दीन पर वसंत पंचमी मनाई गई। बच्चे पेंटिंग कर रहे हैं।” यकीनन, इसकी भावना का एहसास मुंबई, चेन्नै, बिहार, लखनऊ के शाहीन बाग भी जाहिर कर रहे हैं। चेन्नै में धरनास्‍थल पर एक शादी का भी आयोजन हुआ। दिल्ली के मूल शाहीन बाग में बुर्के में उस लड़की को “इंकलाबो, इंकलाबो, इंकलाब” का नारा बुलंद करते और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते देख मुस्लिम औरतों के बारे में प्रचलित धारणा भी टूट रही है। अब सवाल है कि शाहीन बाग वाकई नई सियासत की राह खोलेगा या मौजूदा सत्ता की पेचीदगियों में उलझकर अपनी भावना खो बैठेगा।

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