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एप्पल के आलू

आलू अमेरिकन हो रहा है, मोबाइल चाइनीज हो लिया है
ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश के स्मार्ट मोबाइल बाजार के करीब दो तिहाई हिस्से पर चीनी ब्रांडों का कब्जा हो गया है

आलोक पुराणिक

गुजरात में आलू उगाने वाले किसानों को पेप्सी कंपनी डपट रही है। कंपनी कह रही है, आलू किस तरह और कैसे उगाओगे, हमसे पूछोगे। आलू पर अमेरिकन कंपनी कब्जा करना चाहती है।

मुझे डर है, कहीं एप्पल मोबाइल कंपनी भी आलू बाजार में घुस गई तो आफत हो जाएगी। एप्पल ब्रांड के आलू महंगे तो होंगे ही, साथ में उन पर कॉपीराइट इस तरह का होगा जैसे- खरीदने के पैसे अलग और आलू काटने के पैसे अलग से देने होंगे। यह भी संभव है कि एप्पल आलू देखने भर से ही रॉयल्टी मांग ली जाए। आलू काटकर उसे पकाने की रॉयल्टी अलग। पकाकर उसे खाने की रॉयल्टी अलग। यह भी संभव है कि आप एप्पल के आलू खरीद रहे हों और आलू विक्रेता कह उठे, “आलू का नया रेट आ गया है अब आलू वर्जन 2.0 के रेट लगेंगे।” एप्पल वाले आलू मार्केट में आ गए, तो आलू भी एप्पल के लेवल पर पहुंच जाएगा। फल वाला नहीं, मोबाइल वाला एप्पल। यह अलग बात है कि फिर एप्पल आलू का स्टेटस भी उसी तरह हो जाएगा जैसे एप्पल मोबाइल है।

एप्पल आलू की दुकान पर इस तरह के बोर्ड दिखाई पड़ेंगे, “आलू खरीदने के लिए इधर जाएं, आलू के साथ सेल्फी खिंचाने के लिए उधर जाएं।” हर महंगे और दुर्लभ आइटम के साथ सेल्फी खिंचाने को नई पीढ़ी अपना संवैधानिक कर्तव्य मानती है। एप्पल आलू के साथ सेल्फी खिंचाने की भी फीस देनी पड़ेगी।

खैर, ये अमेरिकन, वो चाइनीज तो भारत का क्या माना जाए।

उधर ताजा आंकड़ों के मुताबिक देश के स्मार्ट मोबाइल बाजार के करीब दो तिहाई हिस्से पर चीनी ब्रांडों का कब्जा हो गया है। भारत महान देश है ऐसा मानने वाले भारत में भले ही कम हों, पर चाइनीज मोबाइल कंपनियां पक्के तौर पर ऐसा मान रही हैं। चीन बंदूकों के जरिए नहीं मोबाइल और मोबाइल एप्लीकेशनों के जरिए घुस रहा है। भारतीय नौजवान चाइनीज मोबाइल एप्लीकेशन पर टिक-टॉक करता है और चीनी कंपनियों के मुनाफे ऊपर जाते हैं। चीन डोकलाम से हटता है और भारतीय कंज्यूमर की पॉकेट में घुस जाता है, क्रिकेट में घुस जाता है। मुझे डर है कि कुछ दिनों बाद ठेठ भारतीय आइटमों में चीन दिखाई देने लगेगा। माता का जागरण चीनी पंडे करा रहे होंगे। भारत वाले जितनी रकम में माता का एक जागरण कराते हैं, उतनी रकम में चीनी पंडे बारह जागरण करवा देंगे। “मैंने कर दिया है टेलीफून चाइनीज मोबाइल से, उतरेगी किरपा चाइनीज स्टाइल से” कुछ इस तरह के गीत आसपास जल्दी सुनाई पड़ सकते हैं।

आलू अमेरिकन हो रहा है, मोबाइल चाइनीज हो लिया है।

कुछ समय पहले एक खबर आई थी कि चीनी मोबाइल एप्लीकेशन टिक-टॉक अब भारत में नहीं रहेगा। इस खबर से नौजवान जितने उदास हुए, उतने उदास तो वो अपने दादा जी के न रहने पर भी नहीं हुए होंगे। नौजवानों की दुआओं से टिक-टॉक की वापसी हुई। चीन ने संवेदनाओं के मायने बदल दिए हैं। टिक-टॉक के लिए शोक संवेदनाएं आ सकती हैं, दादा जी के लिए नहीं। हां, अगर दादा जी किसी चाइनीज मोबाइल एप्लीकेशन का नाम हो जाएं तो दादा जी के प्रति सम्मान और चिंताएं बढ़ी हुई दिखेंगी।

मोबाइल चाइनीज और उसके अंदर एप्लीकेशन भी चाइनीज। आलू अमेरिकन, कोल्ड ड्रिंक अमेरिकन तो भाई फिर इंडियन क्या है? इंडियन ग्राहक हिंदी के सीरियल अमेरिकन नेटफ्लिक्स पर देख रहे हैं। अमेरिकन एमेजन प्राइम पर भारतीय कंज्यूमर ‘मिर्जापुर’ सीरियल देख रहे हैं, जिसकी गालियां खालिस देसी हैं। मतलब खालिस देसी सुनने के लिए भी अमेरिकन रूट से जाना पड़ेगा। देसी गालियों को देसी चैनलों पर आना चाहिए। अपने भोजपुरी स्टार निरहुआ का रिक्शा वाला गीत सुनने के लिए अमेरिकन यू-ट्यूब पर जाना पड़ता है। पूर्वांचल की गालियां और पूर्वांचल के स्टार निरहुआ तक पहुंचना है, तो अमेरिकन रूट पकड़ना पड़ेगा। यह हो क्या रहा है?

मेक इन इंडिया में यह हो क्या रहा है? माने इंडिया का क्या है? कस्टमर तो इंडियन हैं न? उनकी जेब से चाइनीज मोबाइल के लिए जो नोट निकल रहे हैं वो भी इंडियन ही हैं। मोबाइल चाइनीज, इसके एप्लीकेशन चाइनीज, क्रिकेट भी चाइनीज, सिर्फ नोट हिंदुस्तानी हैं। ऐसे गचागच चाइनीज माहौल में चुनावों में काश नेता भी चाइनीज हो जाते, तो कई मामलों में बड़ा आराम रहता। कास्ट इफेक्टिव होने की उम्मीद चाइनीज मोबाइल से भी रहती है और चाइनीज नेता से भी। जितनी रिश्वत में भारतीय नेता एक काम करता है, उतनी रिश्वत में चाइनीज नेता बारह काम कर देगा। अभी तमाम नेता चुनावी सीजन में हर घर के आगे से मेट्रो ट्रेन चलवाने के वादे कर रहे थे, चाइनीज नेता होता तो कहता, “बारह मेट्रो चलवाऊंगा।” जब चलनी ही नहीं है, तो फिर एक क्यों बारह चलवाओ!

झूठ और सपने छोटे नहीं होने चाहिए।

 

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